नीतीश कुमार पिछले 15 साल से मुख्यमंत्री हैं. हालांकि लोकसभा या विधानसभा चुनाव में वह तभी सत्ता तक पहुंचने वाली सफलता पा सके हैं, जब उनका किसी न किसी दल से गठजोड़ रहा है. बिहार के हर चुनाव से पहले यह चर्चा उठती है कि कुमार का कोई वोट बैंक नहीं है. ऐसे में इस बात की पड़ताल जरूरी हो जाती है कि क्या नीतीश कुमार का सचमुच कोई वोट बैंक नहीं है? अगर कोई वोट बैंक नहीं है तो लालू प्रसाद जैसे धुरंधर को 2015 में जदयू से समझौता क्यों करना पड़ा? नीतीश के हर नाज-नखरे झेलकर भाजपा समझौता करने को क्यों मजबूर है?
बिहार में पिछले 30 साल से अगड़ा बनाम पिछड़ा की जंग चल रही है. मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू होने के बाद बिहार में सामाजिक गैरबराबरी दूर करने के लिए लालू प्रसाद ने जो कवायदें कीं, वंचित जातियों को सुविधाओं में हिस्सेदारी का भरोसा मिला. हालांकि उसके पहले भी कर्पूरी ठाकुर के नेतृत्व में बिहार में वंचित तबके को हक दिलाने की कवायद हो चुकी थी, लेकिन 90 के दशक में यह एक निर्णायक मोड़ पर पहुंचा. पिछड़े वर्ग में इतनी जागरूकता आ गई कि वह वंचित समाज के लोगों से नेतृत्व चुनने लगा. खासकर कांग्रेस की राजनीति खत्म हो गई, जिसने स्वतंत्रता के बाद श्रीकृष्ण सिन्हा, दीपनारायण सिंह, विनोदानंद झा, केबी सहाय, हरिहर सिंह, दरोगा प्रसाद राय, भोला पासवान शास्त्री, केदार पांडेय, अब्दुल गफूर, जगन्नाथ मिश्र, चंद्रशेखर सिंह, बिंदेश्वरी प्रसाद दुबे, भागवत झा आजाद, सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के नेतृत्व में 1950 से 1990 तक अधिकतर सवर्ण मुख्यमंत्री दिए. उसके बाद कांग्रेस सिर्फ सत्ता से बाहर नहीं हुई, बल्कि अगले 30 साल तक किसी सवर्ण के मुख्यमंत्री बनने का सपना भी दुर्लभ हो गया. इन 30 वर्षों में लालू प्रसाद यादव करीब 15 साल प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से सत्ता में रहे. लालू प्रसाद और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के शासनकाल में समाज का ताना बाना बदल गया.
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यादवों का प्रभुत्व
लालू प्रसाद के शासन काल में निश्चित तौर पर संघर्ष में यादव सबसे आगे रहे. यादवों का एक तबका राज्य में तेजी से दबंग छवि का बनकर उभरने लगा. लालू प्रसाद का शुरुआती 5 साल का कार्यकाल समावेशी था, जिसमें पिछड़े वर्ग और दलित तबके का बड़ा धड़ा उनके साथ था और सत्ता के संघर्ष में उन्हें बराबर की हिस्सेदारी मिलती रही. लेकिन 7 साल मुख्यमंत्री रहने के बाद उन्हें चारा घोटाला मामले का सामना करना पड़ा. उसके अलावा प्रसाद के साले साधू यादव सहित कुछ अन्य नाम सामने आए, जिन्हें दबंग के रूप में जाना जाने लगा. इस दौरान यादवों की दबंगई का शिकार अन्य पिछड़ी जातियां हुईं, जिन्हें अभी भी नेतृत्व मयस्सर नहीं है. वह जातियां कुलबुला रही थीं. इसी दौर में लालू के निकट सहयोगी रह चुके नीतीश कुमार भाजपा का दामन थामकर लालू प्रसाद का विकल्प बनकर उभरे.
और नीतीश कुमार के उभरते ही उन तमाम जातियों ने लालू की लालटेन छोड़ दी, जो पिछड़े वर्ग की कुछ जातियों के प्रभुत्व से शोषण का शिकार बन रही थीं. सामाजिक गैर बराबरी और वंचितों को सम्मान दिलाने की कवायद में लालू के शासन में जो जातीय संघर्ष हुआ, उसमें सवर्ण तबका भी वैकल्पिक नेतृत्व तलाशने लगा था.
नीतीश का वोट बैंक
बिहार की राजनीति में जब जातीय समीकरण की बात आती है तो घूम-फिरकर ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत, यादव, कुर्मी, कोइरी और पासवान तक मामला सिमट जाता है. राज्य में ओबीसी की लिस्ट अब्दाल, अगरिया, अघोरी से शुरू होकर तुरहा, यादव और सिकलिगर तक जाती है. राज्य में ओबीसी सूची में 131 जातियां हैं. इनमें से ज्यादातर जातियों का नाम भी सुना हुआ नहीं लगता है. लेकिन बढ़ई (विश्वकर्मा), बेलदार, भर, भट्ट, बिंद, चंद्रबंशी (कहार), प्रजापति (कुम्भार), चुड़िहार, दांगी, धोबी, धुनिया, घटवार, कैवर्त, कलवार, लोहार, केवट, मल्लाह, खटिक, तेली जैसी तमाम जातियां हैं, जिनके नेता हाशिये पर हैं, लेकिन वोट बैंक के रूप में इनका असर हैं. जातीय उभार में यह एक दबाव समूह बन गए. नीतीश कुमार ने इन जातियों को अपने पाले में खींच लेने में सफलता हासिल कर ली, जो बिहार की कुल आबादी का 25-30 प्रतिशत मानी जाती हैं.
इसी तरह से अनुसूचित जाति में सिर्फ पासवान का नाम आता है, जो दुसाध नाम से अनुसूचित जाति की सूची में हैं. इनके अलावा भी बिहार की अनुसूचित जाति की सूची में 23 जातियां मौजूद हैं, जिनमें भंतर, भौरी, भोगता, भुइया, चमार, मोची, रविदास से लेकर मुसहर, नट, स्वासी, पासी, रजवार तूरी तक शामिल हैं. अनुसूचित जातियों में इनकी अच्छी खासी आबादी है और इन जातियों के भी अपने स्तर के छोटे-मोटे नेता हैं. इन तमाम हाशिये वाली जातियों को नीतीश कुमार के दल ने अच्छा खासा नेतृत्व दिया है. नीतीश के टिकट बंटवारे से लेकर पार्टी के संगठन में विभिन्न पदों पर वंचित जातियां बड़े पैमाने पर नजर आती हैं.
समाजशास्त्री या राजनीतिक विश्लेषक जब अपना विश्लेषण लेकर सामने आते हैं तो वह इन जातियों को मतदाता मानने का जहमत नहीं उठाते. सवर्ण बनाम वर्णहीन की लड़ाई में हाशिये पर पड़ी तमाम जातियों ने नीतीश को विकल्प के रूप में अपनाया है.
विकास कार्य
ऐसा कहा जाता है कि लालू प्रसाद ने बिहार के लिए बुल्डोजर का काम किया. सामाजिक ऊंच-नीच को बराबर किया. इस दौर में विकास हाशिये पर था और सम्मान की लड़ाई प्राथमिकता पर थी. लालू प्रसाद अपने भाषणों में कहते भी रहे हैं कि उन्होंने लोगों को स्वर दिया है. लालू प्रसाद के पहले भी बिहार देश का सबसे बीमार, गरीब और अशिक्षित राज्य था और उसके बाद भी रहा.
नीतीश कुमार को एक बहुत बीमार, अविकसित राज्य मिला. उन्होंने राज्य में सड़कों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, ग्रामीण सड़कों, पुलों के निर्माण की दिशा में काम शुरू किया. कानून व्यवस्था दुरुस्त करने पर जोर दिया. स्थानीय स्तर पर लीची, तलमखाना आदि जैसी बिहार की विशेष पहचान वाली खेती पर ध्यान केंद्रित किया. दुग्ध उत्पादन की दिशा में कदम उठाए गए. ऐसे में न सिर्फ कामकाज पटरी पर लौटा, बल्कि थोड़ी मानसिक स्थिरता भी आई. इसका लाभ समाज के हाशिये पर खड़े तबके को मिला. नीतीश का एक ऐसा वोटर बन गया, जो विकास पर नजर रखता है.
महिला वोट बैंक
इस समय घर में महिलाएं भले ही वोटिंग के मामले में पुरुषों की बात में हां में हां मिला लें, लेकिन वे अपने मन मुताबिक मतदान करने लगी हैं. नीतीश सरकार ने अपने पहले कार्यकाल से ही महिलाओं को सरकारी नौकरियों व कामकाज में भागीदारी देनी शुरू कर दी. बिहार में पंचायती राज संस्थाओं ओर नगर निकायों में 50 प्रतिशत आरक्षण कर दिया. बड़ी संख्या में आशा कार्यकर्ता नियुक्त की गईं. लड़कियों की शिक्षा की बेहतर व्यवस्था की. उन्हें आने-जाने के लिए साइकिलें दी गईं. कानून व्यवस्था बेहतर होने से लड़कियां घरों से बाहर निकलने लगीं. पुलिस बल में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भर्ती की गई और बिहार पुलिस में महिला और पुरुष का अनुपात बेहतर हुआ. एक करोड़ 20 लाख महिलाओं को जीविका समूह से जोड़ा गया. शराब एक बड़ी समस्या थी. भले ही विपक्षी दल शराबबंदी को विफल बता रहे हों, लेकिन इससे घर में मार कुटाई झेल रही महादलित और पिछड़े समुदाय की महिलाओं को बड़ी राहत मिली है. इससे नीतीश का एक अलग महिलाओं का वोटबैंक बन चुका है.
शायद यही कारण है कि जब नीतीश कुमार 2015 में भारतीय जनता पार्टी से अलग हो चुके थे, उस समय भी लालू प्रसाद के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनता दल अलग से चुनाव लड़ने की हिम्मत न जुटा सकी. जदयू और राजद 2015 के विधानसभा चुनाव में बराबर-बराबर सीटों पर चुनाव लड़े. उसके बाद एक बार फिर नीतीश भाजपा के पाले में चले गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को काफी दबकर जदयू से समझौता करना पड़ा. 2014 में 22 लोकसभा सीटें जीतने वाली भाजपा 2019 में सिर्फ 17 सीटों पर चुनाव लड़ पाई. 2020 के विधानसभा चुनाव में भी यही हुआ है. भले ही यह माहौल बनाया जा रहा है कि चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी भाजपा के इशारे पर अलग लड़ रही है, लेकिन नीतीश के तेवरों ने बार-बार भाजपा को चिराग से किनारा करने को मजबूर किया है. अगर नीतीश का कोई वोट बैंक नहीं होता तो राजनीति में यूं ही कोई समर्पण नहीं कर देता है.
ऐसे में उस वोटबैंक पर खास नजर रखने की जरूरत है, जिसके हाथों में बिहार की सत्ता की चाभी है और राजनीतिक विश्लेषक उस वोट की गणना किए बगैर नीतीश की पार्टी को जनाधार विहीन करार देते रहे हैं.
(लेखिका राजनीतिक विश्लेषक हैं. यह लेख उनका निजी विचार है)
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