क्या आपको याद है पिछले 30 सालों में, भाजपा और कांग्रेस के अलावा भारत में कौन सी ऐसी राजनैतिक पार्टी हुई है जिसने एक से अधिक राज्य में सरकार चलाई है? जेहन में नाम कौंधेगा कम्युनिस्ट पार्टी का, जिसने पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में लगभग 3 दशक और जिसकी केरल में तत्कालीन सरकार है. क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व हमेशा उनके राज्यों तक रहा. अगर वो अपने राज्य से बाहर भी गए तो न वो विपक्ष बन पाए और न ही दो या उससे अधिक राज्य जीतकर भाजपा या कांग्रेस का राष्ट्रीय विकल्प. लेकिन वर्तमान समय में आम आदमी पार्टी उस हाशिए पर खड़ी है कि अगर वह 2022 में होने वाले चुनावों में पंजाब राज्य जीत जाती है और गोवा में कुछ सीटें जीत लेती है तो न ही वो केवल राष्ट्रीय तौर पर उभरने का दम्भ भरेगी, बल्कि अगले दो साल में होने वाले 9 राज्यों के चुनावों में समीकरण बदल सकती है.
आइये समझते हैं पिछले 30 सालों में तीसरी पार्टी का पूरा खेल. इतिहास और संभावनाएं
जनता दल- क्षेत्रीय दल और कम्युनिस्ट पार्टी
जनता दल का निर्माण वी-पी सिंह और एनटी रामा राव के नेतृत्व में 1989 हुआ लेकिन 1990 तक उनकी सरकार गिर गयी और 1991 में सत्ता से बाहर हो गयी. इसके बाद जनता दाल का विभाजन अनेक क्षेत्रीय पार्टियों में हो गया जैसे समाजवादी पार्टी, जनता दाल यूनाइटेड, बीजू जनता दाल, राष्ट्रीय जनता दाल, राष्ट्रीय लोकदल, इंडियन नेशनल लोकदल. ये सारी क्षेत्रीय पार्टियां अलग-अलग अलग राज्यों में बहुमत हासिल करती रहीं या एक अन्य राज्य में कुछ सीटें लेकिन कोई भी ऐसा दल नहीं हुआ जिसने दो या एक से अधिक राज्य जीतकर बाकी राज्य में विपक्ष के रूप में आया हो. हां एक समय मायावती की पार्टी ज़रूर तीसरी बड़ी पार्टी बनती दिख रही थी जब बसपा ने 2004, 2009 और 2014 में राष्ट्रीय स्तर पर 4% वोट से अधिक पाए थे.
इसी तरह पश्चिम बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी ने 34 साल राज किया (1977-2011) और 2021 में हालत ये हो गई कि कम्युनिस्ट पार्टी अपने गढ़ बंगाल में एक सीट नहीं जीत पायी. त्रिपुरा में कम्युनिस्ट पार्टी ने 1978 से 2018 तक सत्ता चलाई, हमेशा पूर्ण बहुमत के साथ, लेकिन 2018 में 60 में से केवल 16 सीटें आईं. कम्युनिस्ट पार्टी आज केवल केरल तक सिमट कर रह गयी है जहां वह आज़ादी के बाद से अपनी सरकार बनाती रही है और आज भी कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सिस्ट) का 25% वोट प्रतिशत जस का तस है.
गलतियां जिनकी वजह से क्षेत्रीय पार्टियां राष्ट्रीय विकल्प नहीं बन पायीं
क्योंकि अधिकतर क्षेत्रीय पार्टियां किसी ख़ास वर्ग, समुदाय या जाति विशेष पर केंद्रित थीं इसलिए वो अपने गृह राज्य में भले ही मजबूत रहती हों लेकिन दूसरे राज्य में जाते ही वो बाहरी पार्टी समझी जाती हैं और किसी मॉडल, करिश्माई चेहरे के अभाव में वो बेअसर रहती हैं. आम आदमी पार्टी यह मिथक तोड़ते हुए दिल्ली मॉडल पेश कर रही है और अरविन्द केजरीवाल का राष्ट्रीय चेहरा आगे करके स्वीकार्यता बनाने की कोशिश कर रही है. तत्कालीन समय में, जहां ममता बनर्जी 2024 के सपने संजोते हुए विभिन्न राज्यों में पैठ बनाने की कोशिश कर रही हैं, वहीं न उनके पास कोई बंगाल मॉडल है और न ही उनका चेहरा सर्वमाननीय है. यद्यपि उनके चरित्र पर मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोप हैं जिससे उनका और उनकी पार्टी का तीसरे विकल्प में उभारना मुश्किल है.
आम आदमी पार्टी क्यों बन सकती है तीसरा विकल्प?
केजरीवाल दिल्ली से बाहर अपनी छाप छोड़ने के लिए प्रयासरत 2015 दिल्ली विजय के बाद से थे और 2017 में ‘आप’ पंजाब में विपक्ष बनकर आई. लेकिन 2019 से केजरीवाल ने अपनी रणनीति बदल दी. जिसका परिणाम 2020 दिल्ली विजय के साथ-साथ ‘आप’ सूरत नगरपालिका में 27 सीटें और चंडीगढ़ नगरपालिका चुनाव में 35 में से 14 सीट जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. आज भी आम आदमी पार्टी इकलौती ऐसी राज्य स्तरीय पार्टी है जिसके पास एक पूर्ण राज्य है और दूसरे राज्य पंजाब में वह विपक्ष (24%) है.
आम आदमी पार्टी के पास वो तोड़ है जो भाजपा और कांग्रेस से तंग हुए लोग आजमाना चाह रहे हैं. ‘आप’ एक ऐसा राजनीतिक विकल्प है जो उन राज्यों में फोकस कर रही है जहां या तो भ्रष्टाचार चरम पर है, या कांग्रेस-भाजपा जैसे दल लम्बे समय से राज करते आ रहे हैं. लेकिन सबसे महत्वपूर्ण है ‘आप’ ने जिस तरह राष्ट्रवाद, हिंदुत्व व कल्याणवादी नीतियों के कॉकटेल की राजनीति द्वारा लोगों को मोहित किया है. केजरीवाल ने राष्ट्रवाद के नाम पर दिल्ली में देशभक्ति पाठ्यक्रम निकाला, आर्टिकल 370 में केंद्र सरकार के कदम के साथ खड़े रहे, पूरी दिल्ली में 500 तिरंगे झंडे लगाने की योजना और पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड जैसे राज्यों में अब उनकी राजनैतिक रैलियों का नाम भी तिरंगा यात्रा होती है. हिंदुत्व की बात की जाए तो केजरीवाल ने दिल्ली चुनाव 2020 के दौरान हनुमान चालीसा पढ़ा, कहते हैं कि वो सॉफ्ट हिंदू नहीं, देश जोड़ने वाले सच्चे हिन्दू हैं, और बुजुर्गों के लिए दिल्ली से आयोध्या तीर्थ यात्रा शुरू करके वो भाजपा की पिच पर उन्हीं के खिलाफ बैटिंग करते हैं.
केजरीवाल का दिल्ली मॉडल
लेकिन आम आदमी पार्टी अपनी ताकत ग्रहण करती है अपने शिक्षा-बिजली-पानी-स्वास्थ्य मॉडल से. यह वही शिक्षा मॉडल है जिसे यूपी में योगी सरकार अपना रही है, महाराष्ट्र के शिक्षामंत्री समेत विश्व के बड़े विश्वविद्यालय व नामी लोग जिसे देखने आते हैं. यह वही स्वास्थ्य मॉडल है जिसे देखकर झांरखंड, तेलंगाना, गुजरात और कर्नाटक की सरकारें मोहल्ला क्लीनिक जैसे डिस्पेंसरी व स्वास्थ्य का तीन लेयर का स्वास्थ्य मॉडल तैयार कर रही हैं. यह वही बिजली मॉडल है जिसको देखकर समाजवादी पार्टी यूपी में अब 300 यूनिट फ्री बिजली देने का वादा कर रही है और उत्तराखंड, पंजाब राज्य की सरकारों ने 200 यूनिट तक बिजली मुफ्त कर दी. दिल्ली में फ्री बिजली से 73% परिवार लाभान्वित हो रहे हैं.
संभावनाएं
यह वही रणनीति है जिससे कांग्रेस ने दशकों तक भारत पर राज किया और अब भाजपा इसके नित नए प्रयोग कर रही है. गोवा हो या उत्तराखंड, या फिर पंजाब तीनों ही राज्यों में आम आदमी पार्टी के पास कोई मजबूत कार्यकर्ता की सेना नहीं है लेकिन अरविन्द केजरीवाल, उनके दिल्ली मॉडल और एक नए विकल्प की चाह उन्हें अपने प्रतिद्वंदियों से आगे रख रही है. चाहे वो ममता हों, नवीन पटनायक, शरद पवार या फिर अखिलेश-मायावती. केजरीवाल पिछले 30-40 सालों में उभरे बड़े विपक्षी (गैर भाजपा-कांग्रेसी) नेताओं में सबसे आगे नजर आते दिख रहे हैं.
पंजाब, गोवा और उत्तराखंड चुनाव के नतीजे जहां आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पटल पर रख सकते हैं, वहीं पंजाब की 7 राज्यसभा सीटों के चुनाव भी अप्रैल में होने हैं जिसका परिणाम पंजाब विधानसभा नतीजे पर निर्भर है. यह देखने योग्य होगा की अगर नतीजे ‘आप’ के पक्ष में आते हैं तो अन्य राज्यों समेत राष्ट्रीय राजनीति के समीकरण बदल जायेंगें और अगर नहीं, तो यह इस राजनैतिक स्टार्टअप के लिए बड़ा झटका होगा.
(सागर विश्नोई पेशे से पॉलिटिकल कंसलटेंट और गवर्न नामक गवर्नेंस इनोवेशन लैब के सह-संस्थापक हैं. सागर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी से स्ट्रेटेजी में पढ़ाई की है. व्यक्त विचार निजी हैं.)