जातिगत जनगणना का प्रश्न एक बार फिर से राजनीतिक परिदृश्य में तैरने लगा है. राष्ट्रीय जनगणना में जाति ख़ासकर पिछड़ी जाति की गिनती की जाए या नहीं इसे लेकर गम्भीर राजनीतिक बहस चल रही है. ऐसे में यह प्रश्न लाज़मी है कि जाति की गणना से क्या हासिल होगा? क्या जाति की गिनती भूखे और बेरोज़गार लोगों की गिनती से अधिक महत्वपूर्ण है? क्या 21 वीं शताब्दी के इस मोड़ पर भी भारतीय समाज को समझने का सबसे सटीक नज़रिया जाति ही है?
स्वतंत्रता के पश्चात आधुनिक भारतीय राष्ट्र-राज्य नागरिकता का बोध जगाने में असफल रहा? क्या उदारवाद को अपनाने के 30 वर्ष बाद भी भारतीय समाज की संरचना में कोई बदलाव नहीं हुआ है? ऐसे तमाम प्रश्न हैं जो आज जाति की गिनती की मांग के साथ समानांतर मुंह बाये खड़े हैं.
10 साल बाद आरक्षण पर होनी थी समीक्षा
जाति जनगणना की मांग इसलिए हो रही है क्योंकि ओबीसी आरक्षण के 27 प्रतिशत सीमा को विस्तार देने की मांग को जायज़ ठहराया जा सके. मालूम हो कि दलितों और आदिवासियों के लिए आरक्षण का प्रतिशत उनकी आबादी के हिसाब से ही तय किया गया था. यानी जाति आधारित जनगणना का प्रश्न सीधे तौर पर आरक्षण की राजनीति से जुड़ा हुआ मसला है.
बाबा साहेब आम्बेडकर ने ‘एनिहिलेसन ऑफ़ कास्ट’ यानी जाति के ख़ात्मे की बात कही थी. जाति के ख़ात्मे के लिए वंचित तबकों को राज्य द्वारा विशेष मदद का संवैधानिक प्रावधान भी किया गया. परंतु, इसके साथ साथ इस विशेष मदद यानी आरक्षण को 10 वर्ष बाद समीक्षा की बात भी डॉक्टर आम्बेडकर ने ज़ोर देकर कही थी. आम्बेडकर ने यह भी कहा था कि यदि हमें 10 वर्ष बाद भी आरक्षण की आवश्यकता पड़े तो इसका मतलब हम कहीं न कहीं अपने उद्देश्य में विफल रहे. इसके अलावा आम्बेडकर के अनुसार आरक्षित की जाने वाली सीटें, संविधान के आर्टिकल 14, (तब के अनुच्छेद 10) समानता के अधिकार के अनुरूप और सीटों की अल्प संख्या तक सीमित होनी चाहिए.
विडम्बना यह है कि आज़ादी के 70 वर्ष बाद यदि कोई डॉक्टर आम्बेडकर के कहे शब्द को दोहरा दे तो उस पर ब्रह्मणवादी होने का आरोप मढ़ दिया जाता है. इतना ही नहीं भारत का सर्वोच्च न्यायालय भी जाति के बजाए आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात कह चुका है.
इसके अलावा अनुसूचित जाति और जन जाति के आरक्षण में क्रीमीलेयर के प्रावधान रखने की बात भी सर्वोच्च न्यायालय ने की थी लेकिन इसका विरोध भी राजनीतिक हलकों में किया गया.
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सबको नहीं मिल रहा आरक्षण का फायदा
क्या यह सत्य नहीं है कि अनुसूचित जाति और जनजाति आरक्षण का लाभ वही लोग ले रहे जिनकी पिछली पीढ़ी ने आरक्षण का लाभ उठाया है. रोहिणी कमिशन के मुताबिक़ सेंट्रल लिस्ट में मौजूद 2633 ओबीसी जातियों में से कुछ ने ही आरक्षण का फ़ायदा उठाया है. यह साबित करता है कि जो जाति आर्थिक तौर पर समृद्ध है उसी के सदस्यों ने आरक्षण का फ़ायदा उठाया है. ओबीसी आरक्षण का 97% लाभ मात्र एक चौथाई जातियों को ही मिला है.
कृषि प्रधान आर्थिक ढांचा के समय का शोषण और फ़ाइनेंस कैपिटल के समय के समाज की संरचना में काफ़ी बदलाव आए हैं. समाज के आधुनिक संस्थाओं मसलन यूनिवर्सिटी, स्कूल समेत शहरी क्षेत्रों में सामाजिक सम्बंध में ख़ासा बदलाव आया है. इन जगहों पर जाति से अधिक आर्थिक नज़रिए से हमें समाज को देखने समझने की ज़रूरत है. तो क्या बहुसंख्यक राजनीति के दबाव में हो रहे सामाजिक-आर्थिक बदलाव को अनदेखा किया जा रहा है?
राजनीतिक दल भी इस बहुसंख्यक राजनीति के ख़िलाफ़ कुछ भी बोलने से परहेज़ करते हैं. सिविल सोसाइटी के कुछ विद्वान यदि कभी कुछ साहस करके बोल भी देते हैं तो उन पर आरक्षण विरोधी, उच्च जाति और ब्रह्मणवादी होने का आरोप लगा चौतरफ़ा हमला बोल दिया जाता है. भारतीय जनता पार्टी की सरकार से यह उम्मीद की जाती है की वो इस तरह के संख्या बल के दबाव में न आकर राष्ट्र हित में कठिन फ़ैसले लेगी.
आरक्षण के लिए आंदोलन
आरक्षण की व्यवस्था का एक त्रुटिपूर्ण पक्ष यह भी है कि जो जाति इसका लाभ नहीं उठा पा रही वो आरक्षित श्रेणी में जुड़ने के लिए संघर्षरत है. ऐसी जातियां जो सामाजिक और आर्थिक रूप से समृद्ध हैं वो भी स्वयं को पिछड़ी श्रेणियों में शामिल किए जाने के लिए आंदोलन कर रही हैं.
आरक्षण की व्यवस्था से कुछ सकारात्मक परिणाम भी आए हैं, किंतु आरक्षण की राजनीति से आरक्षण के उद्देश्यों को ही धक्का पहुंच रहा है. सशक्तीकरण के बजाय अशक्त होने की होड़ जैसी लग रही है.
जातिगत आरक्षण का उद्देश्य पिछड़ी जातियों को सशक्त करना था जिससे कि समाज में समानता के साथ बंधुत्व का भाव विकसित हो सके, लेकिन आज आरक्षण ने न सिर्फ़ भारतीय राजनीति को लम्बे समय से (स्टेटस-को) यथास्थिति पर रखा है बल्कि जातिगत विद्वेष को भी एक नया स्वरूप प्रदान किया है.
आज कालेज मे पढ़ रहे युवाओं में जातिगत विद्वेष का एक प्रमुख कारण जातिगत आरक्षण है. एक विद्यार्थी का अच्छे अंक लाने के बाद भी बेहतर कालेज मे दाख़िला नहीं मिलता जबकि उसके किसी अन्य मित्र को इससे कम में ही दाख़िला हो जाता है. ऐसी परिस्थिति, जातिगत विद्वेष के एक नए युग और संस्कृति का बीज बोने का काम कर रही है.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मक़सद जाति आधारित शोषण और असमानता को ख़त्म करना है न कि एक नए जाति आधारित शोषण और ग़ैरबराबरी के समाज का निर्माण करना.
(लेखक आईआईटी दिल्ली से स्नातक और भाजपा बिहार प्रदेश कला संस्कृति प्रकोष्ठ के प्रवक्ता हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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