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Friday, 8 November, 2024
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प्रियंका गाँधी बचा सकती हैं कांग्रेस, लेकिन फिर भैया राहुल का क्या होगा?

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प्रियंका राहुल से कहीं बेहतर तरीके से मोदी-शाह को टक्कर देने की काबिलियत रखती थी।

मुझे तब बहुत आश्चर्य हुआ था जब कांग्रेस पार्टी ने 2004 में राहुल गांधी के राजनीति में प्रवेश की घोषणा की।

कादमिक प्रताप भानु मेहता ने बीबीसी से बातचीत में कहा था, “यह निर्णय समझ से परे है। सामान्य धारणा यह थी कि प्रियंका अधिक स्पष्ट, दृढ़ और अधिक करिश्माई थीं। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि सच क्या है कोई नहीं जानता। शायद यह अधिक व्यक्तिगत है या हो सकता है परिवार से संबंधित कोई बात हो ”

चौदह साल बाद, कम मुखर, परिधीय और कम करिश्माई भाई राहुल औपचारिक रूप से पार्टी के मुखिया बन गए हैं और उन्होंने खुलेआम भारत का प्रधानमंत्री बनने की अपनी मंशा ज़ाहिर कर दी है।

दिक्कत बस इतनी है कि इन 14 वर्षों में राहुल के पास कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि है ही नहीं।


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उन्होंने पार्टी के युवा विंग को पुनर्जीवित करने की कोशिश की है, उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को संगठन के स्तर से मजबूती देने की कोशिश की है और पार्टी को एक वैचारिक संबद्धता भी प्रदान करना चाहा है। दुखद है कि वे इन सारे मामलों में फेल हो चुके हैं।

वह नरेंद्र मोदी की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को एक अदद महत्वपूर्ण चुनाव में पराजित करने में नाकाम रहे हैं। ऐसा भी नहीं है कि उसके पास प्रशासक के रूप में सफलता का कोई सिद्ध ट्रैक रिकॉर्ड है ।

यहां तक ​​कि उनकी पार्टी के समर्थक भी राहुल के 14 साल के राजनैतिक कैरियर में उनकी एक उपलब्धि नहीं गिना पाएंगे।

इतिहास गवाह है कि गांधी परिवार ने एक मजबूत गोंद की तरह कांग्रेस को जोड़े रखा है। ठीक उसी तरह, भाजपा भी अपने वैचारिक गुरु, आरएसएस के बिना निःशक्त होगी। इसलिए पार्टी का अध्यक्ष तो एक गांधी को ही होना है।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस पार्टी के पास राहुल के अलावा कोई उम्मीदवार ही नहीं था। कांग्रेस के पास हमेशा से एक दूसरा विकल्प रहा है जिसे अबतक आज़मा लिया जाना चाहिए था: प्रियंका गांधी।

सालों से हमें बताया गया कि प्रियंका राजनीति से दूर रह रही हैं क्योंकि वह अपने बच्चों की देखभाल में व्यस्त हैं। बच्चे अब बड़े हो गए हैं। अब हमें बताया जा रहा है कि वे राजनीति में पदार्पण तभी करेंगी जब उनकी इच्छा होगी। एक बार तो अपने राजनीति में आने के सवाल पर वे संवाददाता को हंसते हुए कह चुकी हैं- “यह अगले सप्ताह हो सकता है”

पुत्रमोह छोड़े न छूटे

हम नहीं जानते कि गांधी परिवार में डाइनिंग टेबल पर क्या बहसें चलती हैं लेकिन यह उजाले की तरह साफ है कि प्रियंका भारतीय राजनीति में पितृसत्ता का सबसे बड़ा शिकार रही हैं।

उसके जैसे अन्य भी हैं। द्रमुक में कनिमोझी की अनदेखी कर एमके स्टालिन को पार्टी का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। लालू यादव के आरजेडी में तेजस्वी को अपनी बड़ी बहन मीसा भारती के ऊपर तरजीह दी गयी है।

उनके न के बराबर हुई सार्वजनिक सभाओं की बात करें तो प्रियंका राहुल की तुलना में एक बेहतर राजनेता प्रतीत होती है। वह एक बेहतर वक्ता हैं, खासकर हिंदी में । ज़मीन से जुड़ी हुई, अधिक प्राकृतिक। जनता को वह इंदिरा गांधी की याद दिलाती हैं। राहुल को देखकर तो मुझे नहीं लगता किसी को भी राजीव की याद भी आये। प्रियंका अधिक आक्रामक, अधिक राजनैतिक प्रतीत होती हैं।


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चूंकि कांग्रेस पार्टी 2014 में 44 लोकसभा सीटों के ऐतिहासिक निम्न स्तर पर गिर गई थी, ऐसे में यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि प्रियंका इस डूबती  को सहारा दें। 2014 के बाद से चली आ रही पार्टी की निरंतर विफलताओं ने दिखाया है कि जहाज अभी भी धीरे-धीरे ही सही लेकिन डूब ज़रूर रहा है।

प्रियंका को अग्रणी भूमिका दिए जाने के कोई संकेत नहीं दिख रहे हैं। कारण की कल्पना करना मुश्किल नहीं है। अगर प्रियंका कांग्रेस पार्टी का सार्वजनिक चेहरा बन जाती हैं तो वह अपने भाई को इतनी जल्दी और ऐसी निश्चितता के साथ पीछे धकेलेंगी कि ‘राहुल गांधी की जय’ कहने के लिए एक भी पार्टी कार्यकर्ता नहीं बचेगा।

साफतौर पर प्रियंका को नेपथ्य में रखा गया है ताकि मंच पर उनके भाई राहुल गांधी को असंख्य गलतियां करने का मौका मिलता रहे। प्रियंका समेत पार्टी में हर कोई कहता रहता है कि राजनीति में आने का उनका निर्णय स्वयं का होगा। वे कहती आयी हैं कि वे समय अपने हिसाब से चुनेंगी, मानो इन मामलों में सोनिया, राहुल एवं उनके करीबियों की राय कोई मायने ही नहीं रखती।

हम इतालवी माताओं के बारे में काम से कम इतना तो जानते ही हैं कि वे अपने बेटों से भारतीय माताओं की तरह ही प्यार करती हैं।

अपने पति की पत्नी

एक निष्पक्ष दुनिया में प्रियंका कांग्रेस के मोदी विरोधी एजेंडे की अगुवाई कर रही होतीं। उन्हें अक्सर पार्टी के ‘ब्रह्मास्त्र’ के रूप में वर्णित किया गया है। यह देखते हुए कि मोदी-शाह ने कांग्रेस-मुक्त भारत बनाने का इरादा भर ही ज़ाहिर नहीं किया है, बल्कि वे सफल भी हो रहे हैं, ऐसे में क्या आपको नहीं लगता कि इस ब्रह्मास्त्र के प्रयोग का समय आ चुका है? लेकिन सोनिया का ‘पुत्र-मोह’,अपने बेटे के लिए प्यार इस ब्रह्मास्त्र के आड़े आ रहा है।

प्रियंका ने के सांलों तक बैकरूम में रहकर समस्या निवारक की भूमिका निभाई है और कई हालात सुधारे हैं। । उनके भाई सार्वजनिक आयोजन के लिए सिंगापुर जाते हैं तो प्रियंका को एआईसीसी का पूर्ण सत्र आयोजित करने का काम सौंपा जाता है। राहुल को नई कांग्रेस कार्यकारिणी बनाने के लिए महीनों लगते हैं और प्रियंका फ़ोन करके रूठे नेताओं को मनाती हैं। 2019 के चुनाव का युद्ध कक्ष चलाने का ज़िम्मा भी प्रियंका को मिलना तय माना जा रहा है।

वह मोदी की माचो छवि के खिलाफ विशेष रूप से प्रभावी होती क्योंकि उनकी छवि एक मजबूत महिला की है। इसके विपरीत राहुल एक ऐसे इंसान के रूप में देखे जाते हैं जो हालात पर नियंत्रण करने में असफल रहे हैं। राहुल ने भले ही मोदी को गले लगाकर और आंख मारकर हालात रोचक बना दिये हैं लेकिन अब भी वे ब्रांड मोदी को चुनौती दे पाने की हालत में नज़र नहीं आते।

सांलों से से रॉबर्ट वाड्रा को लेकर प्रियंका पर आरोप लगाए जाते रहे हैं। भ्रष्टाचार के आरोपी, कसरत के शौकीन वाड्रा मुरादाबाद के एक व्यापारी हैं और प्रियंका पर लगे तमाम आक्षेपों की जड़ में वही हैं। एक पति के अपराधों की सज़ा उसकी पत्नी को देना हमारे पितृसत्तात्मक समाज की पहचान रही है। तमाम विफलताओं के बाद भी ताज राहुल के सर पर ही रखा जाएगा।

भविष्य में जब इतिहासकार पीछे मुड़कर देखेंगे तो वे सोचने पर मजबूर हो जाएंगे कि क्या प्रियंका वह चेहरा था जो मोदी को टक्कर दे सकती थी लेकिन दे नहीं पाई क्योंकि यहां लेडीज़ फर्स्ट नहीं है।

Read in English : Is Priyanka Gandhi the greatest victim of patriarchy in Indian politics?

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