scorecardresearch
Tuesday, 11 November, 2025
होममत-विमतक्या प्रशांत किशोर बिहार के केजरीवाल हैं? हां, लेकिन पूरी तरह नहीं

क्या प्रशांत किशोर बिहार के केजरीवाल हैं? हां, लेकिन पूरी तरह नहीं

14 नवंबर को जो भी नतीजा आए, पीके बतौर नेता बिहार की राजनीति में अपनी जगह बना चुके हैं. वह अब चुनावी रणनीतिकार वाले पीके नहीं, एक अलग पीके हैं.

Text Size:

6 नवंबर की शाम, जब धुंधलापन फैल रहा था और बिहार में पहले चरण का मतदान हो चुका था, पटना के शेखपुरा स्थित एक बड़े घर में माहौल उदास था. यह घर पूर्व पुर्णिया सांसद उदय सिंह का है. यही प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (JSP) का मुख्यालय भी है. सिंह इसके पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. तब तक टीवी चैनल लगभग 55 प्रतिशत मतदान दिखा रहे थे और इसी वजह से यहां माहौल भारी हो गया था. अगर मतदान कम रहता, तो इसका मतलब होता कि प्रशांत किशोर का तीन साल का ‘अभियान’—लोगों, खासकर प्रवासियों और उनके परिवारों को जगाने और सक्रिय करने का—असफल रहा.

करीब 13 करोड़ की अनुमानित आबादी वाले बिहार में लगभग 7.2 प्रतिशत लोग, यानी करीब 93 लाख, प्रवासी हैं. पीके के आकलन के अनुसार, लगभग 50 लाख प्रवासी छठ पर अपने घर आए और मतदान के लिए रुके. वह उम्मीद कर रहे थे कि वे अपने परिवार के सदस्यों की वोटिंग पसंद पर भी असर डालेंगे. अगर सिर्फ माता-पिता और पत्नी ही जेएसपी को वोट दें, तो यह लगभग 2 करोड़ वोट बैठता है. यह एक जीतने वाला आंकड़ा है. 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए को 1.57 करोड़ वोट मिले थे.

इसीलिए पीके का अभियान प्रवासियों के इर्द-गिर्द घूमता रहा. उनका मुख्य वादा था कि 14 नवंबर के बाद, प्रवासियों को अपने परिवार से दूर सिर्फ 10-12 हजार रुपए महीने कमाने के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा. उनके अभियान में चलने वाले एक गीत में भी पीके के घर लौटने की बात थी, जो प्रवास के दर्द को छूता था: “सब कुछ अपना छोड़ के आया ये बिहार का बेटा है, जन सुराज का प्रशांत किशोर जन-जन का चहेता है.”

ऐसे माहौल में पहले चरण में कम मतदान की आशंका ने जेएसपी नेताओं को बेचैन कर दिया. “अगर प्रवासी और पटना के पढ़े-लिखे लोग भी वोट देने नहीं आए, तो यह बहुत निराशाजनक है,” बिहार जेएसपी अध्यक्ष मनोज भारती ने मुझसे कहा. 1988 बैच के भारतीय विदेश सेवा अधिकारी भारती की आखिरी पोस्टिंग इंडोनेशिया में भारत के राजदूत के तौर पर थी. मार्च 2023 में रिटायर होने के बाद वे नोएडा में रह रहे थे, तभी प्रशांत किशोर के इंटरव्यू ने उनकी दिलचस्पी बढ़ाई.

भारती हमेशा बिहार के लिए कुछ करना चाहते थे और उन्हें लगा कि पीके की राजनीति यही मौका है. मधुबनी में जन्मे IITian पूर्व राजनयिक को कम मतदान ने कुछ देर के लिए वैकल्पिक राजनीति पर उनका विश्वास हिला दिया. लेकिन यह चिंता बहुत देर नहीं रही. जल्द ही साफ हो गया कि इन 121 सीटों पर औसत मतदान 65.08 प्रतिशत रहा—जो अब तक का सबसे ज़्यादा है, और 2020 के मुकाबले 7.79 प्रतिशत अधिक. यह पीके और उनकी टीम के लिए बड़ी राहत थी.

नतीजे चाहे जो हों, पीके आ चुके हैं

14 नवंबर को जो भी नतीजा आए, पीके बतौर नेता बिहार की राजनीति में अपनी जगह बना चुके हैं. वह अब चुनावी रणनीतिकार वाले पीके नहीं, एक अलग पीके हैं. वह राजनीति के लिए सर्वे पर निर्भर नहीं हैं. शुरू में जेएसपी के लोगों के मुताबिक, उन्होंने लगभग 1.6 करोड़ स्थानीय असर वाले लोगों का डेटा इकट्ठा किया—उनका राजनीतिक इतिहास, झुकाव और नेटवर्क. लेकिन वह डेटा सिर्फ संगठन बनाने के लिए इस्तेमाल हुआ. जेएसपी ने लगभग 90,000 मतदान केंद्रों में से 75,000 पर समितियां बना ली हैं—हर बूथ पर 10 सदस्यीय टीम, पंचायत स्तर पर 21, ब्लॉक पर 51, अनुमंडल पर 151 और जिले में 251 सदस्य.

जेएसपी में टिकट का चयन सर्वे नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं और बूथ प्रभारी के फीडबैक पर आधारित है. मैंने पीके से पूछा कि वह अब सर्वे क्यों नहीं करते, जबकि एक रणनीतिकार के तौर पर वह हमेशा सर्वे पर भरोसा करते थे. उन्होंने सहजता से जवाब दिया: “मैंने उन्हें (ग्राहक को) भी यही कहता था आखिरकार एक नेता को जनता की नब्ज पढ़नी आती होनी चाहिए, सर्वे की जरूरत नहीं होनी चाहिए.” अब वह किसी भी मुद्दे या व्यक्ति पर सर्वे नहीं कराते. उन्हें विश्वास है कि नेता को पहले से पता होना चाहिए. और आजकल तो सर्वे का इस्तेमाल कई नेता विपक्षियों को टिकट न देने के लिए करते हैं.

एक रणनीतिकार पीके की तुलना में, नेता पीके को कहीं ज़्यादा करना पड़ता है—अभियान का चेहरा बनने से लेकर संगठन संभालने, योजना बनाने, फैसले लेने और संसाधन जुटाने तक. शायद पीके भी चाहते होंगे कि उनके पास भी एक ‘पीके’ होता जो यह सब कर देता.

पीके उन लोगों को लेकर भी बेपरवाह दिखते हैं जो उन्हें खारिज करते हैं: “पहले कहा ‘पीके कौन है’; फिर कहा ‘कौन सुनेगा इसे’; अब कहते हैं ‘ठीक है, घर-घर जाना जाता है पर क्या वोटों में बदलेगा?’; 14 नवंबर को सबको झटका लगने वाला है.”

पीके ने सचमुच बिहार की राजनीति में दस्तक दे दी है. उनकी वजह से पुरानी बड़ी पार्टियां बेचैन हैं. एनडीए और महागठबंधन के नेताओं से बात करने पर यह साफ दिखा. सार्वजनिक रूप से वे आत्मविश्वास जताते हैं, लेकिन निजी तौर पर स्वीकारते हैं कि मुकाबला “टाइट” है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के अन्य बड़े नेता अपने भाषणों में पीके का नाम लेने से बचते रहे—क्योंकि इससे पीके और बड़े दिखेंगे. एक तीन साल पुराने नेता के लिए यह बड़ी उपलब्धि है कि वह सबको असुरक्षित महसूस करा रहा है.

क्या प्रशांत किशोर बिहार के केजरीवाल हैं?

यह सवाल इन दिनों राजनीतिक हलकों में सबसे ज़्यादा पूछा जा रहा है. क्या वह बिहार के अरविंद केजरीवाल साबित होंगे? केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने 2013 में दिल्ली की राजनीति में धूम मचा दी थी, कांग्रेस को हटाया और नंबर वन पार्टी बन गई, जब तक कि पिछले साल फरवरी में बीजेपी ने उसे हाशिए पर खड़ा नहीं कर दिया. पीके और एके की तुलना इस मायने में सही है कि दोनों राजनीतिक दुनिया में नए थे. लेकिन एक बड़ा अंतर है. आम आदमी पार्टी एक आंदोलन से पैदा हुई थी, जैसे पहले कई राजनीतिक स्टार्टअप हुए. ऐसे अन्य स्टार्टअप या तो किसी वंशज ने शुरू किए थे, या किसी करिश्माई नेता ने, या फिर वे किसी बड़ी पार्टी से टूटकर बने थे या किसी सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन के परिणाम थे.

कुछ अपवाद जरूर हैं—जैसे महाराष्ट्र में शिवसेना के बाल ठाकरे, या उत्तर प्रदेश में कांशीराम, जिन्होंने अपनी पार्टी शून्य से बनाई. प्रशांत किशोर इसी श्रेणी में आते हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि उनकी राजनीतिक यात्रा बहुत तेज़ रही है, उनकी कल्पनाशील राजनीति, चुनावी रणनीति के अनुभव और सोशल मीडिया की वजह से. आप इस श्रेणी में फिट नहीं बैठती क्योंकि वह अन्ना हज़ारे के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन की अनचाही संतान थी, जिसे परोक्ष रूप से कांग्रेस-विरोधी सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-वैचारिक समूहों ने समर्थन दिया था. केजरीवाल उस आंदोलन के लाभार्थी थे, निर्माता नहीं. प्रशांत ने अपनी राजनीति शून्य से शुरू की.

फिर भी, समकालीन होने के कारण केजरीवाल का नाम पीके के संदर्भ में आता है. दिल्ली की आप की तुलना बिहार की जेएसपी से करना सही नहीं होगा. राष्ट्रीय राजधानी का सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक माहौल बिहार जैसे गरीब, जाति–केंद्रित और सिर्फ 12 प्रतिशत शहरी आबादी वाले राज्य से बिल्कुल अलग है. अगर कोई तुलना करनी ही है, तो पंजाब की आप सही उदाहरण होगी, जहां बेरोजगारी, आर्थिक संकट और जनता में हताशा ज्यादा है.

केजरीवाल की आप ने 2017 के विधानसभा चुनाव में पंजाब में बड़ी ताकत के रूप में उभर कर 20 सीटें जीती थीं—शिरोमणि अकाली दल से पांच अधिक—और 23.7 प्रतिशत वोट लिए थे, जो SAD से सिर्फ 1.5 प्रतिशत कम थे. मैं वह चुनाव कवर कर रहा था. आप को लेकर इतना ज़्यादा माहौल था कि उनका प्रदर्शन भी कम लगा. फिर भी, पार्टी ने पांच साल बाद पंजाब में अपनी सरकार बनाई. बिहार में पीके की जेएसपी को लेकर ज़मीन पर उससे भी बड़ा माहौल दिखता है—लगभग वैसा ही जैसा पंजाब में 2017 में महसूस हुआ था. पीके कहते हैं यह “अर्श या फ़र्श” होगा—या तो 0 या 150 सीटें (243 में से). उनका मतलब है कि यह पंजाब की आप 2017 जैसा नहीं होगा.

जो भी हो, पीके और एके की तुलना होना तय है. दोनों खुद बने हुए नेता हैं और पुरानी पार्टियों को चुनौती दे रहे हैं. लेकिन तुलना यहीं तक खत्म हो जाती है. केजरीवाल एक “राजनीतिक परजीवी” थे, जो अन्ना आंदोलन से ताकत लेते थे—जो कांग्रेस-विरोधी ताकतों द्वारा पोषित था. वह किसी विचारधारा या ठोस सिद्धांत से बंधे नहीं थे. वह जनता को वही दिखाते थे जो जनता सुनना चाहती थी—व्यवस्था से नाराज़ लोगों की भावनाओं पर सवार होकर. उनकी राजनीति आकर्षक, लोकलुभावन और बिना विचारधारा वाली थी: तुम चाँद मांगो, मैं दे दूंगा.

एक जेएसपी रणनीतिकार के अनुसार, “केजरीवाल जल्दी में थे (सत्ता में आने के लिए), पर दिल्ली वाले नहीं थे”—यह 2013 के विभाजित जनादेश और कांग्रेस के समर्थन से मुख्यमंत्री बनने के उनके निर्णय से साफ था. लेकिन बिहार में हालात उल्टे हैं—“बिहार के लोग जल्दी में हैं, पीके नहीं.” पीके न तो किसी के समर्थन से मुख्यमंत्री बनना चाहेंगे, न ही किंगमेकर बनना. अगर बिहार में खंडित जनादेश आया, तो पीके दोबारा चुनाव कराने को मजबूर करेंगे. केजरीवाल जनता को खुश करने के लिए चांद का वादा करते थे, जबकि पीके कड़ाई से कहते रहे हैं कि बिहार की बदहाली और बच्चों की दुर्दशा के लिए लोग खुद जिम्मेदार हैं और बदलाव उन्हें खुद करना होगा. केजरीवाल सत्ता के लिए कांग्रेस से हाथ मिला सकते थे, जबकि पीके जरूरत पड़ी तो पांच साल इंतजार करने को तैयार हैं.

शुक्रवार को नतीजा चाहे जो हो, पीके ने साबित कर दिया है कि एक सामान्य व्यक्ति भी शून्य से राजनीतिक पार्टी खड़ी कर सकता है और चुनावी माहौल तय कर सकता है. उन्हें कोई जल्दी नहीं है. 14 नवंबर के बाद भी उनकी राजनीति जारी रहेगी.

डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैंउनका एक्स हैंडल @dksingh73 हैव्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ें: भारतीय राजनीति 2014 से पहले के दौर में लौट रही है, ब्रांड मोदी और भाजपा के लिए इसके क्या मायने हैं


 

share & View comments