21वीं सदी के अगले दशकों में भारत कैसा हो— क्या इस सोच में मार्क्सवाद प्रासंगिक है? हमारे समय का सबसे गूंजता हुआ उत्तर है— ना. यह एक बड़ा नुकसान है, हम सबका साझा नुकसान! मैं कभी मार्क्सवादी नहीं रहा. राजनीति और राजनीतिक विचारों की दुनिया से मेरा जुड़ाव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुआ और यह जुड़ाव तब के जाने-माने वामपंथी छात्र-संगठनों की मुखालफत में हुआ था. उन दिनों में मैं मार्क्सवादी विचारधारा की रुढ़ियों का आलोचक हुआ करता था. इन सबके बावजूद, मेरा मानना है कि जो लोग एक बेहतर दुनिया की परिकल्पना किया करते हैं वे मार्क्सवाद की अनदेखी नहीं कर सकते— ऐसा करने में बड़ी हानि है.
मार्क्सवाद के कुछ जन्मजात दोष हैं और उसने अपने कंधे पर मान्यताओं का कुछ ज्यादा भार ओढ़ रखा है. इन दो बातों को हम हटा सकें तो फिर हमारे आगे जाहिर हो जायेगा कि मार्क्सवाद भावी भारत की परिकल्पना और पुनर्निर्माण की आधार-सांमग्रियों में एक है.
लेकिन हमारे देश में आज की युवा पीढ़ी, खासकर पढ़ा-लिखा तबका, मार्क्सवाद को इस रूप में नहीं देखता. युवा पीढ़ी मार्क्सवाद को साम्यवाद (कम्युनिज्म) या फिर नक्सलवाद या इसी तर्ज पर माओवाद का समानार्थी समझती है— इन सबको वाम या वामपंथी सरीखे समूहवाची संज्ञा के भीतर समेट लिया जाता है.
नौजवानों के बीच जिन्हें मार्क्सवाद की कुछ जानकारी है, वे समझते हैं कि मार्क्सवाद संयुक्त साम्यवादी सोवियत गणराज्य (यूएसएसआर) के समाप्त होने के साथ खत्म हो गया. ऐसे नौजवान मार्क्सवाद को साम्यवादी तानाशाही, जनसंहार, सारी चीजों पर सरकारी नियंत्रण और खाऊ-अघाऊ, बड़जोर नौकरशाही से जोड़कर देखते हैं.
जहां तक अपने देश की बात है, लोग-बाग मार्क्सवाद का अर्थ वामधारा की चुनाव लड़ने वाली पार्टियों और उनकी घटती राजनीतिक साख से लगाते हैं. मार्क्सवाद का आशय जानना चाहो तो ऐसे लोगों का उत्तर होता है कि देखिए, जब वामपंथी पार्टियां सत्ता में थीं तो उनके कामकाज का रिकार्ड बड़ा औसत किस्म का रहा, इन पार्टियों के पास लोगों से कहने को कुछ रटे-रटाये और बंधे-बंधाये मुहावरे हैं जिसके आगे वे कभी आगे नहीं बढ़तीं, कि ये पार्टियां भारत के समाज को समझ पाने में नाकाम रही हैं, वे भारत में मौजूद जाति-व्यवस्था और उसकी सच्चाइयों, लोगों की भावना और आस्था तथा भारतीय संस्कृति को समझने में कामयाब ना हो पायीं.
संक्षेप में कहें तो आज का भारतीय युवा मार्क्सवाद को एक अजीब, अतिवादी और गुजरे वक्त की गयी-बीती विचारधारा मानकर चलता है.
लेकिन, सवाल ये है कि इस विचारधारा (मार्क्सवाद) में जो कुछ बेशकीमती है, उसे हम कैसे हासिल करें?
जवाब के रूप में यहां एक सुझाव दर्ज किया जा सकता है कि: अगर आप मार्क्सवादी सिद्धांत से कुछ सीखना चाहते हैं तो फिर आधिकारिक साम्यवादी (कम्युनिस्ट) विचारधारा और इसके ‘गुरु-ज्ञानियों’ के परे जाइए. आपको पीछे लौटना होगा और 19वीं सदी के उस प्रखर प्रतिभाशाली जर्मन चिंतक के पास लौटना होगा जिसे कार्ल मार्क्स कहा जाता है.
बेशक कार्ल मार्क्स पर उनके समय यानी 19वीं सदी के खास छाप है, वे अपने सोच-विचार में जितने ठेठ जर्मन हैं उतने ही ठेठ यूरोपीय भी. फिर भी, आप उनकी लिखी किताबों पर जमी समय की धूल को झाड़कर उन्हें पढ़ सकें तो आप अपने वक्त और मुकाम के हिसाब से अपना खुद का एक क्रांतिधर्मी विचार गढ़ सकते हैं.
अगर आप मार्क्सवादी आचार-विचार से कुछ सीखना चाहते हैं तो आपको भारत या फिर भारत की सीमा के बाहर के सत्ताशील साम्यवादी गढ़ों-मठों से दूरी बनानी होगी, उनके प्रति एक स्वस्थ आलोचना-भाव पालना होगा. आपको साम्यवादी पार्टी-तंत्र और उसकी सनक भरी रणनीतियों से परे जाना होगा. अच्छा हो कि आप साम्यवादी विचारधारा के लाखों कार्यकर्ताओं, पार्टी-कर्मियों और क्रांतिकारियों पर ध्यान दें जो अथक और निस्वार्थ भाव से, मार्क्सवाद की अपनी समझ के अनुकूल अपना जीवन और कर्म जीये और किये जा रहे हैं.
संभव है, आपको जान पड़े कि ऐसे कार्यकर्ताओं की जीवन-निष्ठा का कार्ल मार्क्स के आदर्शों अथवा आधिकारिक पार्टी-लाइन से कोई खास रिश्ता-नाता नहीं है, फिर भी ऐसे कार्यकर्ताओं की स्वदेशी भाव-भूमि वाली विचारधारा हमें प्रेरित कर सकती है, हमें अंतर्दृष्टि दे सकती है.
आइए, देखें कि मार्क्सवादी विचारधारा से हम इन तीन मायनों में क्या कुछ सीख सकते हैं: इनमें पहला है मार्क्सवाद के दायरे में परिकल्पित यूटोपिया या कहे लें यह विचार कि आदर्श समाज कैसा हो. दूसरा है मार्क्सवाद की अतीत और वर्तमान विषयक समझ और तीसरा है मार्क्सवाद का सुझाया हुआ वह रास्ता जो बताता है कि वर्तमान के बंधनों से निकलकर आदर्श समाज की अपनी परिकल्पना की तरफ कैसे बढ़ें.
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हमारा लक्ष्य क्या है?
अगर मार्क्सवाद एक ही साथ नैतिक रूप से आकर्षक और अप्रीतिकर जान पड़ता है तो इसलिए कि मार्क्सवाद और स्वयं कार्ल मार्क्स ने अपनी बातों को रखने में नैतिकता से पगी बोली-बानियों के इस्तेमाल से परहेज किया है. चूंकि मार्क्स ने इतिहास विषय अपनी समझ को समाज की गतिकी के विज्ञान के रूप में प्रस्तुत किया इसलिए उन्हें आदर्श समाज (यूटोपिया) की अपनी परिकल्पना को पूर्वानुमान (फोरकॉस्ट) के जामे में पेश करना पड़ा.
साम्यवादी आदर्शों को साकार करता समाज या कह लें पूर्ण रूप से कम्युनिस्ट समाज कैसा होगा— इस बाबत बताने के लिए कार्ल मार्क्स के पास ज्यादा कुछ नहीं है.
आज कम्युनिस्ट (साम्यवादी) व्यवस्था का अर्थ हम जिन चीजों से लगाते हैं जैसे हर चीज पर सरकारी नियंत्रण, बाजार की गैर-मौजूदगी, राजनीतिक स्वतंत्रता का अभाव, साम्यवादी पार्टी की तानाशाही आदि– ये सब कार्ल मार्क्स के अनुयायियों के हाथों तैयार किया गया ब्लू-प्रिंट (आगे क्या और कैसे किया जाये- इस बात का खाका) है और इस ब्लू प्रिंट को बनाया गया है कार्ल मार्क्स के लेखन में संकेत रूप में आयी कुछ अस्पष्ट अभिव्यक्तियों को, जो अपनी बनावट में काव्यात्मक हैं.
मार्क्स का दुर्भाग्य यही नहीं था कि उसने जो कुछ संकेत-मात्र और काव्यात्मक रूप में कहा उसे पूरे के पूरे ब्लू-प्रिंट में बदल दिया गया बल्कि इससे ज्यादा बड़ा दुर्भाग्य तो यह था कि उस ब्लू-प्रिंट को दुनिया के कई हिस्सों में जस का तस साकार किया गया.
जाहिर है, फिर संयुक्त साम्यवादी सोवियत गणराज्य (यूएसएसआर) में जो साम्यवादी व्यवस्था खड़ी की गई उसे मार्क्सवाद का यूटोपिया मान लिया गया, उसे ही मार्क्सवादी विचारधारा की शिखर-पताका माना गया और एक ऐसी चीज के रूप में बरता गया जिसको दिखाकर दुनिया के लोगों और देशों से कहा जाये कि आप भी हमारे रास्ते लग जाइए.
वामपंथी गढ़-मठ ज्यादातर सोवियत संघ की साम्यवादी व्यवस्था के पक्षधर हैं लेकिन जहां तक इतिहास का सवाल है, सोवियत प्रणाली के बारे में उसने अपना कठोर फैसला सुनाया है. फैसला यह कि सोवियत प्रणाली यूटोपिया (आदर्श व्यवस्था) तो हरगिज ना थी. इसकी वजह सिर्फ यही नहीं कि सोवियत-प्रणाली की राजनीतिक व्यवस्था अलोकतांत्रिक थी और उसकी अर्थव्यवस्था में भारी दोष थे बल्कि इसलिए भी कि साम्यवादी शासन प्रणाली दरअसल यूरोपीय तर्ज की शहरी और औद्योगिक समाज के विभिन्न रूपाकारों में से एक थी और आधुनिकता के मोहपाश में बंधकर साम्यवाद शासन-प्रणाली में भी बड़े पैमाने के उत्पादन और ऐसे उत्पादन की प्रौद्योगिकी को परम साध्य मान लिया गया.
मार्क्स के यूटोपिया का संभवतया सबसे निराशाजनक पहलू ये है कि उसमें अध्यात्म के लिए जगह ही नहीं. मार्क्स का यूटोपिया हमारे अंतर्तम में पैठे आत्म से संवाद करने में अक्षम है. दरअसल, मार्क्स के यूटोपिया के पास इस बात की पहचान ही नहीं है कि मनुष्य का कोई अंतर्मन और अंतर्तम भी होता है. मार्क्स का यूटोपिया ऐसी नैतिक कसौटी नहीं दे पाता जिससे पता चल सके कि मनुष्य का कौन सा आचरण सही है और कौन सा गलत.
लेकिन मार्क्सवादी यूटोपिया की इन कमियों को बड़े हद तक मार्क्सवादियों के नैतिक आचरण से भरपायी की जा सकती है और विडंबना देखिए कि मार्क्सवादियों का यह नैतिक आचरण ही है जो वामपंथ को बड़े हद तक आकर्षक बनाता है.
जमीनी तौर पर देखें तो मार्क्सवाद हमें समानता का आदर्श देता है- एक ऐसा आदर्श जो दुनिया में लगातार बढ़ती जा रही असमानता के इस परिवेश में और भी ज्यादा चमकदार होकर उभरा है. यह पूंजीवादी ढर्रे की असमानता, शोषण और विभिन्न तरह के अन्याय के प्रतिकार के लिए जरूरी साहस और संकल्प देता है. अपने जीवन और विश्वास में मार्क्सवाद को बरतने वाले लोगों ने अपने को सिर्फ वर्गीय अन्याय के संघर्ष तक सीमित नहीं रखा बल्कि गुजरते वक्त के साथ साम्राज्यवाद, नस्लवाद, पितृसत्ता और जाति-व्यवस्था के अन्यायों के विरुद्ध भी मोर्चा खोला.
एक आम समझ चली आ रही है (और निज के बारे में मार्क्सवादियों की भी यही समझ है) कि जो गरीब, पीड़ित और दुनिया के दुखियारे जन के साथ खड़ा है, वह मार्क्सवादी है. यही जज्बा हमारे आज के वक्त की विचारधारा की बुनियाद होना चाहिए.
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हम कहां खड़े हैं?
इक्कीसवीं सदी में सामाजिक परिवर्तन का कोई भी सिद्धांतकार मार्क्सवाद को तजकर नहीं चल सकता तो इसलिए कि मार्क्सवाद समाज की समझ के लिए हमें सोच-विचार के जरूरी औजार मुहैया कराता है. सबसे बड़ी बात यह कि मार्क्सवाद राजनीतिक कार्यकर्ताओं, सुधारकों और क्रांतिकारियों को निर्देश देता है कि जिस समाज को आप लोग बदलना चाहते हैं, सबसे पहले उसको समझ लेना जरूरी है.
मार्क्सवाद एक भरा-पूरा सिद्धांत देता है, समाज को समझने का एक पूरमपूर विज्ञान देता है जिसके सहारे हम किसी समाज के अतीत, वर्तमान और भविष्य की व्याख्या कर पाते हैं. यह सिद्धांत इतना ताकतवर था कि वह सिर्फ क्रांतिकारियों का ही कंठाहार नहीं बना बल्कि आज जिसे हम समाज-विज्ञान कहते हैं उसकी भी बुनियाद बना.
नज़र घुमाकर पीछे की ओर से देखना शुरू करें तो जान पड़ेगा कि मार्क्सवादी ढर्रे के समाज-विज्ञान के बहुत से दावे अतिरंजित थे, इसके ज्यादातर पूर्वानुमान अपने मार्के से चूक गये और वस्तुनिष्ठ ज्ञान पर एकाधिकार का इसका दावा खोखला निकला. भारत सरीखे समाजों पर इसकी आजमाइश से ये भी जाहिर हुआ कि मार्क्सवादी सिद्धांत की बुनावट में एक खास तरह का खोट है— खोट यह कि मार्क्सवाद यूरो-केंद्रिकता का शिकार है. इसी कारण, भारतीय संदर्भों पर मार्क्सवादी सिद्धांत को मशीनी अंदाज में लागू करने से वामपंथी राजनीति को नुकसान ज्यादा हुआ, फायदा कम.
फिर भी ये बात बेखटके कही जा सकती है कि मौजूदा समाज-व्यवस्था की व्याख्या प्रस्तुत करने में मार्क्सवादी सिद्धांत की जो कमियां है, उनमें से कुछ की भरपायी की जा सकती है. बशर्ते हम कार्ल मार्क्स के मूल लेखन को देखें और उसे एक संसाधन की तरह बरतें.
समाज विज्ञानी सुदीप्त कविराज ने हाल के दिनों में बताया है कि मार्क्स के विचारों में ऐसे चार सिद्धांत-सूत्र हैं जिन्हें हम सामाजिक सिद्धांतों की दुनिया को उसकी मौलिक देन मान सकते हैं. इस सिलसिले की ज्यादा अहम बात यह कि सुदीप्त कविराज ने इन चार सिद्धांत-सूत्रों की जो व्याख्या की है वह हमारे वक्त के लिए मार्क्सवादी सिद्धांत को प्रासंगिक बना सकता है.
इस सिलसिले की पहली बात तो यह कि भौतिकवाद को इस तरह देखने की कत्तई जरूरत मानो वह विचारों के जगत का निषेध करता है, उन्हें अहम नहीं मानता. भौतिकवाद को दरअसल एक नैतिक चश्मे के तौर पर देखने की जरूरत है, एक ऐसे लेंस के रूप में जो दुनिया का ध्यान गरीबों की भौतिक दशा की तरफ खींचता है और इस रूप में यह लेंस आज के समय के पर्यावरणीय अपक्षय की तरफ हमारा ध्यान खींचने में मददगार हो सकता है.
दूसरी बात, ऐतिहासकता की धारणा से जुड़ी है यानी इस बात से कि जो चीजें आज की तारीख में हमें सहज-स्वाभाविक लगती हैं दरअसल वह इतिहास की देन हैं, उन्हें इतिहास ने एक कालक्रम के भीतर रचा है और स्वाभाविक प्रतीत हो रही इन चीजों का स्वरूप कुछ और भी हो सकता था.
कविराज का तर्क है कि इस अंतर्दृष्टि का इस्तेमाल सिर्फ कालगत रूपांतरण के लिए ही नहीं बल्कि देशगत रूपांतरण के लिए भी किया जा सकता है यानी किसी चीज के स्वरूप के बारे में यह भी सोचा जा सकता है कि वह सिर्फ कालक्रम के दायरे में नहीं बदली बल्कि स्थान विशेष के अनुसार भी बदली है. कविराज के मुताबिक, ऐसा करने से मार्क्सवादी सोच में पेवस्त यूरो-केंद्रिकता के दोष से बचा जा सकता है.
तीसरी बात, वर्ग की अवधारणा को हम व्युत्पतिपरक अर्थ में ले सकते हैं और जाति समेत सामाजिक समूहन के किसी भी रूप पर इसे लागू किया जा सकता है.
चौथी बात ये कि अंतर्विरोधों का नियम सिर्फ पूंजीवाद पर ही लागू नहीं होता बल्कि वह आधुनिकता पर भी लागू होता है. ऐसे सोचने पर हम देख पायेंगे कि हर आधुनिक विभावन परस्पर विरोधी अंदरूनी तनावों के बीच बना है.
समाज को लेकर आप मार्क्स या मार्क्सवादी विश्लेषण से सहमत हो सकते हैं या असहमत लेकिन आपको समाज के विश्लेषण के जो औजार मार्क्सवाद मुहैया कराता है, उनका इस्तेमाल करना ही होता है.
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हमारा रास्ता क्या हो?
अगर मार्क्सवाद हमारे समय में कर्मयोग का सबसे ताकतवर सिद्धांत है तो इसकी वजह यह नहीं कि यह सबसे सफल सिद्धांत है. अगर पीछे मुड़कर देखें तो नज़र आयेगा कि बीती सदी की सर्वाधिक सफल क्रांतियों का काफिला मार्क्सवादी सिद्धात की राहों से होकर नहीं गुजरा.
मार्क्सवादी सिद्धांत में क्रांति का जो ककहरा बताया गया है कि क्रांति कब, क्या और कैसे हो, वह वस्तुनिष्ठ कारकों का महत्व बढ़ा-चढ़ाकर बताती है और राजनीति की आकस्मिकताओं की अहमियत को गौण मानती है. भारतीय साम्यवादी आंदोलन का इतिहास कर्मयोग के इस भ्रामक मगर अति-विश्वासी सिद्धांत के त्रासद (तथा प्रहसनात्मक) निहितार्थों का स्वयं एक सबूत है.
कर्मयोग के मार्क्सवादी सिद्धांत का एक परेशान करने वाला पक्ष है उसमें साध्य-साधन को लेकर उचित-अनुचित के विवेक का ना होना— मार्क्सवादी सिद्धांत लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनाये जाने वाले साधनों के नैतिक या अनैतिक होने की परवाह नहीं करता. एक वजह यह भी है जो मार्क्सवाद से प्रभावित राजनीतिक कार्यकर्ताओं के कुछ जमातों में हिंसावाद किसी नियम की तरह बरता जाता है.
फिर भी, हमें अपने समय में अगर राजनीतिक कर्मयोग का कोई सिद्धांत तैयार करना है तो उसका प्रस्थान बिंदु मार्क्सवाद ही होना चाहिए. मार्क्स ना तो क्रांति के जनक थे ना ही क्रांति के सिद्धांत के लेकिन उन्होंने क्रांति की धारणा में जरूर ही क्रांतिधर्मी चेतना का ताप भरा. यह विचार कार्ल मार्क्स का ही है कि जिस दुनिया में हम जी रहे हैं, उसमें कुछ भी हमेशा से एकरूप बना चला नहीं आ रहा, वस्तुओं के रूप और स्वभाव में परिवर्तन होना ही है और इतिहास के नियमों से तालमेल बैठाते हुए बुनियादी सामाजिक परिवर्तनों की योजना बनायी जा सकती है. मार्क्स के इन विचारों को हम अपनी दुनिया के पुनःनिर्माण में एक योगदान की तरह देख सकते हैं.
आज के समय में मार्क्सवादी विचारधारा की निंदा करना आसान है लेकिन यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि मार्क्सवाद के आलोचकों (जिसमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है) पर मार्क्सवाद का जितना असर है, उतना कभी बताया नहीं जाता. मार्क्सवाद के आलोचक अक्सर इस बात से अनजान होते हैं कि उनपर मार्क्सवाद का गहरा असर है. और, इस अर्थ में देखें तो हम सब मार्क्स की संतान हैं.
(लेखक स्वराज इंडिया के सदस्य और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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