scorecardresearch
Sunday, 21 April, 2024
होममत-विमतक्या अब समय आ गया है कि ट्रम्प की सुनें और डब्लूटीओ को सुधारा जाए?

क्या अब समय आ गया है कि ट्रम्प की सुनें और डब्लूटीओ को सुधारा जाए?

Text Size:

डब्ल्यूटीओ की सीमाएं हैं लेकिन यह अपने आप कार्य नहीं कर सकता है, इसे सदस्य राष्ट्रों की पहल की प्रतीक्षा करनी होती है।

न दिनों एक शब्द “ट्रेड वार” सुर्ख़ियों में छाया हुआ है। सप्ताह दर सप्ताह नए व्यापारिक प्रतिबंधों और शुल्क में वृद्धि की घोषणाएं सामने आ रही हैं और इसके विरोध में भी कार्यवाई की जा रही है। वैश्विक संगठन आर्थिक मंदी की चेतावनी दे रहे हैं लेकिन तनाव में वृद्धि होती ही जा रही है। लेकिन सवाल यह उठता है की इन कई मामलों के बीच विश्व व्यापार संगठन (WTO) क्या कर रहा है। क्या इससे व्यापार नियमों को लागू करने और व्यापार से निपटने के अपेक्षा नहीं की जाती है।

इसका जवाब यही है कि जल्द ही उसकी व्यस्तता बढ़ऩे वाली है। चीन, भारत तथा अन्य देशों ने अमेरिका द्वारा इस्पात और एल्युमीनियम आयात पर शुल्क बढ़ाने को लेकर अपनी शिकायत दर्ज कराई है। इसके लिए राष्ट्रीय सुरक्षा को कारण बताया गया है। मामला 60 दिन की अनिवार्य प्रतीक्षा अवधि के बाद शुरू होगा। पहली बार अमेरिका द्वारा अपने कारोबारी कानून के एक अन्य हिस्से में शुल्क थोपे गए हैं, इनकी भी जाँच की जाएगी। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने डब्ल्यूटीओ को ‘आपदा’ करार देते हुए धमकी दी है कि वह अमेरिका को इस संगठन से बाहर कर लेंगे। उनके कारोबारी कदमों की जांच तो होनी तय है लेकिन उनका डब्ल्यूटीओ के नियमों से बाहर होना जरूरी नहीं है। अब तक जो कदम उठाए गए हैं वे काफी सीमित हैं। ऐसे में काफी हद तक यह संभव है कि डब्ल्यूटीओ एक संपूर्ण कारोबारी जंग को घटित होने से रोक दे।

परंतु जोखिम बरकरार है और डब्ल्यूटीओ की सीमाएं सामने आ रहीं हैं। वह दोहा दौर की बहुपक्षीय व्यापार वार्ता को सफलतापूर्वक समाप्त करने में नाकाम रहा। पुराने दौर की वार्ताओं की सफलता के बाद ऐसा होना इस बात का संकेत देता है कि मुक्त व्यापार को बढ़ावा देने की उसकी भूमिका लगभग खत्म हो गई है। हाल ही के वर्षों में उठाए गए अधिकांश कदम डब्ल्यूटीओ के बहुपक्षीय ढांचों से परे रहे हैं। अधिकांश वार्ताएं द्विपक्षीय रहीं हैं या विविध पक्षों के समझौते।

डब्ल्यूटीओ का दूसरा महत्वपूर्ण काम भी खतरे में नजर आ रहा है और वह है कारोबारी विवादों का निपटारा करना। विवादों के लिए उसकी अपील संस्था जल्दी ही निष्क्रिय हो सकती है। अमेरिका ने नई नियुक्तियों को रोक रखा है इसीलिए इसके सात सदस्यों में से तीन सीटें खाली पड़ी हैं। अगर मौजूदा क्षमता में और भी कमी हो जाती है तो इसकी बैठकों के लिए जरूरी कोरम ही पूरा नहीं हो पायेगा। यह विवाद निस्तारण प्रक्रिया की समाप्ति के समान हो सकता है।
चाहे कुछ भी हो विवाद निस्तारण की प्रक्रिया में सालों का समय लगता है। इस दौरान गैर-अनुपालन वाले शुल्क और प्रतिरोध में उठाए गए कदम बरकरार रखते हैं। चीन इस व्यवस्था का लाभ लेकर ऐसे शुल्क लगाता रहता है जिनके बारे में वह अच्छी तरह से जानता है कि कुछ वर्ष की अदालती कार्यवाही के बाद ये समाप्त हो जाएंगे। परंतु उसे आंतरिक तौर पर तो इनसे लाभ मिल ही जाता है। इसके अलावा सफलतापूर्वक व्यापारिक शिकायत दर्ज करने वाले देश को केवल यह अधिकार मिलता है कि वह नुकसान पहुंचाने वाले देश पर बदले में जुर्माना के रूप में शुल्क लगा सके। तेजी से बदलते परिदृश्य में जहां शुल्क पहले ही थोपे जा चुके हों, वहां शायद डब्ल्यूटीओ को भी लगता है कि विवाद निस्तारण अपनी भूमिका गंवा चुका है।

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

इसी दौरान अमेरिका ने रूस, उत्तर कोरिया और ईरान जैसे देशों पर एकतरफा व्यापारिक तथा अन्य प्रतिबंध लगा दिए हैं। इसका असर अन्य देशों पर भी पड़ता है। भारत को ईरान से तेल या रूस से मिसाइल खरीदने में होने वाली परेशानी इसका एक उदाहरण है। इस प्रकार का कोई अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध नहीं है लेकिन फिर भी यह प्रभावी है। अमेरिका अपनी विशेष स्थिति का लाभ ले रहा है।

उत्तर अटलांटिक संधि संगठन के वित्त पोषण की तरह यहां भी ट्रंप के पास वजह है। डब्ल्यूटीओ की अपनी सीमाएं हैं। चीन की वाणिज्यिक गतिविधियां वर्षों से जारी हैं। जबकि इस बीच अमेरिका की कृषि सब्सिडी आदि के रूप में गलत कारोबारी नीतियां भी जारी हैं। डब्ल्यूटीओ अपने आप कुछ भी नहीं कर सकता है। उसे सदस्य राष्ट्रों की पहल की प्रतीक्षा करनी होती है।

शायद समग्र रूप से इसकी समीक्षा करने का वक्त आ गया है लेकिन सभी क्षेत्रों के अंतर्राष्ट्रीय संस्थान इस अनुमान पर चलते हैं कि बड़े देश नियम कायदों से चलेंगे। अब ऐसा मामला नहीं है। क्या ऐसा हो सकता है कि बड़े देशों को परे रखकर बाकी देश नियम-कायदे से चलें, जैसे अमेरिका को बाहर रखकर जापान प्रशांत पार साझेदारी पर काम कर रहा है? यह कारगर नहीं होगा क्योंकि दुनिया के दो सबसे बड़े कारोबारी देशों के बिना इसका कोई मतलब नहीं। सबसे आसान विकल्प तो यही होगा कि डब्ल्यूटीओ में सुधार किया जाए और ट्रंप की कुछ शिकायतों की सुनवाई की जाए।

बिजनेस स्टैंडर्ड के साथ विशेष व्यवस्था द्वारा।

share & View comments