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Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतक्या ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने की वैधता के लिए न्यूनतम समय तय करने का वक्त आ गया है

क्या ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने की वैधता के लिए न्यूनतम समय तय करने का वक्त आ गया है

इस समय, तृणमूल कांग्रेस की सांसद और बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्री नुसरत जहां निशी जैन और निखिल जैन का प्रकरण काफी चर्चा में है.

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भारतीय समाज में तेजी से हो रहे परिवर्तन के दौर में बिन ब्याहे ही ‘लिव इन रिलेशंनशिप’ में वयस्क लड़के और लड़की के एक साथ रहने का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, उसी रफ्तार से ऐसे मामलों में विवाद भी बढ़े हैं. बड़ी संख्या में मामले पुलिस और अदालत तक पहुंचे हैं.

इसमें कोई दो राय नहीं है कि विपरीत लिंग के दो वयस्क अपनी मर्जी से एक साथ रहने और जीवन व्यतीत करने के लिए स्वतंत्र हैं. लेकिन इससे जुड़े विभिन्न मुद्दों के मद्देनजर सवाल उठता है कि सह-जीवन व्यतीत करने वाले जोड़ों को किन परिस्थितियों में ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की मान्यता दी जानी चाहिए.

हमारा संविधान और न्यायिक व्यवस्थाएं विपरीत लिंग के दो अविवाहित वयस्कों को अपनी मर्जी से किसी के साथ रहने और जीवन व्यतीत करने का अधिकार प्रदान करता है. लेकिन अब सवाल उठता है कि क्या ऐसे सभी रिश्तों को ‘लिव इन रिलेशनशिप’ की मान्यता दी जा सकती है या इसके लिये कोई न्यूनतम अवधि भी निर्धारित होनी चाहिए.

इस समय, तृणमूल कांग्रेस की सांसद और बांग्ला फिल्मों की अभिनेत्री नुसरत जहां निशी जैन और निखिल जैन का प्रकरण काफी चर्चा में है. यह विवाद थमने की बजाय उस समय अधिक गंभीर हो गया जब नुसरत जहां ने अचानक ही यह घोषणा कर दी कि निखिल से उनका विवाह भारत में मान्य ही नहीं है और वह तो लिव-इन रिलेशनशिप में थीं लेकिन अब दोनों अलग हो चुके हैं और ऐसी स्थिति में उसे तलाक लेने की भी जरूरत नहीं है.

दूसरी ओर, नुसरत जहां से विवाह करने वाले निखिल जैन अब इस प्रकरण को अदालत में ले गये हैं. निखिल का कहना है कि तुर्की में विवाह के बाद वह भारत में इसका पंजीकरण कराने के लिये लगातार दबाव बना रहे थे लेकिन नुसरत जहां कभी तैयार नहीं हुईं.

लगातार बढ़ते विवादों के मद्देनजर ही सवाल उठता है कि क्या ऐसे वयस्कों के ‘लिव इन रिलेशनशिप’ में रहने की वैधता के लिए उनके एक साथ रहने की न्यूनतम अवधि निर्धारित करने का समय आ गया है?

यह सवाल उठने की वजह पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में हाल ही आया एक मामला है जिसमें अदालत ने कहा कि दो वयस्कों के कुछ दिन साथ रहने का दावा लिव इन रिलेशनशिप में रहने की वैधता के लिये पर्याप्त नहीं है.

उच्च न्यायालय ने कहा कि लिव इन रिलेशनशिप के संबंध में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसमें एक दूसरे के प्रति कुछ कर्तव्यों और जिम्मेदारियों के निर्वहन के साथ ही रिश्ते की अवधि ऐसा तत्व है जो इस तरह के संबंध को वैवाहिक संबंध के समान बनाता है.


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लिव इन रिलेशनशिप में जिंदगी गुजारने के मामलों में प्रीवी काउंसिल से लेकर उच्चतम न्यायालय ने अनेक पहलुओं पर अपनी व्यवस्था दी है. न्यायालय समय समय पर ऐसे रिश्तों पर अपनी मुहर भी लगाता रहा है. हालांकि, न्यायालय ने ऐसा करते समय लिव इन रिलेशनशिप के पैमाने पर खरा उतरने के लिए कुछ शर्तें भी प्रतिपादित की हैं.

इनमें पहली शर्त ऐसे जोड़े को समाज द्वारा एक दूसरे का जीवन साथी स्वीकार करना, दूसरी शर्त कानूनी दृष्टि से दोनों का विवाह योग्य होना, तीसरी शर्त बिन ब्याहे जीवन गुजारने के बावजूद कानूनी तरीके से वैवाहिक जीवन व्यतीत करने की पात्रता होना है और चौथी शर्त है कि वे स्वेच्छा से लंबे समय से पति पत्नी के रूप में रह रहे हों.

न्यायिक व्यवस्थाओं का सबसे महत्वपूर्ण सूत्र ऐसे स्त्री पुरुष का बिन ब्याहे ही पति पत्नी के रूप में लंबी अवधि तक एक साथ रहना और समाज में खुद को पति पत्नी के रूप में पेश करना है. इन पैमानों पर खरा उतरने वाले जोड़ों से जन्म लेने वाली संतानों को भी न सिर्फ ऐसे व्यक्ति की संपत्ति में हिस्सा मिलेगा बल्कि ऐसे रिश्ते निभाने वाली महिला को अपने जीवन साथी का निधन होने की स्थिति में उसकी भविष्य निधि और पेंशन सहित दूसरे कानूनी अधिकार भी प्राप्त होंगे.

लिव इन रिलेशनशिप के बारे में करीब 15 साल पहले तक यदा कदा ही सुनने को मिलता था लेकिन 2005 में महिलाओं को घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून लागू होने के बाद से लिव इन रिलेशनशिप का मसला ज्यादा सुर्खियों में आया.

इसकी एक वजह जहां इस कानून के प्रावधान हैं, वहीं नवंबर 2013 में न्यायमूर्ति के एस राधाकृष्णन और न्यायमूर्ति पिनाकी चंद्र घोष की इंद्रा शर्मा वर्सेज वीके शर्मा (Indra Sarma vs V.K.V.Sarma) प्रकरण में दी गयी व्यवस्था भी है. इसमें न्यायालय ने कहा था कि घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून की धारा 2 (एफ) में ‘किसी भी समय’ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है और इसका इसका मतलब इस तरह के रिश्ते की अवधि से है जो ‘उचित अवधि और संबंध बरकरार’ रखने के बारे में है.

इस फैसले में न्यायालय ने कहा था कि किसी पुरुष के साथ लिव इन में जीवन गुजारने वाली महिला अगर गुजारा भत्ता और दूसरे अधिकार चाहती है तो उसे कुछ बुनियादी जरूरतें पूरी करनी होंगी. साथ ही इस तरह के मामले में अदालत को पहले यह निश्चित करना होगा कि ऐसे रिश्ते में शामिल महिला की स्थिति क्या पत्नी जैसी थी.

घरेलू हिंसा से संरक्षण कानून के तहत राहत प्राप्त करने के मामले में न्यायालय की व्यवस्था है कि अगर कोई महिला यह जानते हुए कि उसका साथी पुरुष पहले से विवाहित है, उसके साथ सह-जीवन अपनाती है तो उसे इस कानून के तहत कोई राहत नहीं मिल सकतीं. ऐसे मामले में महिला की स्थिति वैवाहिक रिश्ते में जीवन साथी जैसी नहीं हो सकती क्योंकि लिव इन के सभी मामले वैवाहिक रिश्ते जैसे नहीं हो सकते.

इस फैसले में न्यायालय ने लिव इन रिलेशनशिप के बारे में कुछ शर्तें भले ही प्रतिपादित कीं, लेकिन उसने इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया कि हमारे समाज ने अभी तक बिन ब्याहे सह जीन की जिंदगी अपनाने जैसे रिश्ते को पूरी तरह स्वीकार नहीं किया है. न्यायालय ने कहा कि इसके बावजूद उसका यही विचार रहा है कि ऐसा रिश्ता न तो अपराध है और न ही पाप है. ऐसे रिश्ते बनाना पूरी तरह से व्यक्तिगत मामला है.

इसी तरह, लिव इन रिलेशनशिप की अवधि के संदर्भ में शीर्ष अदालत के न्यायमूर्ति मार्कण्डेय काटजू और न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर की पीठ ने 21 अक्टूबर, 2010 को डी. वेलुसामी वर्सेज डी. पट्चैयाम्मल (D.Velusamy vs D.Patchaiammal) में अपने फैसले में कहा था कि सह जीवन गुजारने वाले सारे मामले वैवाहिक स्वरूप के नहीं होते हैं. ऐसे मामलों में महिला को गुजारा भत्ता नहीं दिया जा सकता. पीठ ने यहां तक कहा था कि सिर्फ सप्ताहंत या एक रात साथ में रहना घरेलू रिश्ता नहीं बनायेगा.

लिव इन रिलेशनशिप में लंबे समय से जीवन व्यतीत कर रहे जोड़ों और इनसे जन्म लेने वाली संतानों के अधिकारों के मामले में पहली बार 1927 में प्रीवी काउंसिल ने ए. दिनोहामी वर्सेज डब्ल्यू.एल. बलाह्मी (A. Dinohamy v. W.L. Blahamy) में अपनी व्यवस्था दी थी.

इसी व्यवस्था के आलोक में उच्चतम न्यायालय ने गोकल चंद वर्सेज प्रवीण कुमारी (Gokal Chand v. Parvin Kumari) प्रकरण में 1952 में कहा था कि एक स्त्री और पुरुष द्वारा लगातार कई वर्षों तक पति पत्नी के रूप में साथ-साथ रहना यह मानने को बाध्य करता है कि उनके वैवाहिक रिश्ते हैं.

इसी तरह बद्री प्रसाद वर्सेज डीवाई. डायरेक्टर ऑफ कान्सोलिडेशन (Badri Prasad vs Dy. Director Of Consolidation) प्रकरण में 1 अगस्त, 1978 को उच्चतम न्यायालय ने सालों से एक साथ जीवन गुजारने के तथ्य को महत्व दिया था और यह माना था कि कानूनी दृष्टि से यह विवाह था.

हाल ही में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने लिव इन रिलेशनशिप से संबंधित दो प्रकरणों में परस्पर विरोधी आदेश सुनाया जिसे लेकर सभी विस्मित थे. एक मामले में उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश ने ऐसे जोड़े को कोई भी राहत देने से इंकार करते हुए टिप्पणी की थी कि नैतिक और सामाजिक रूप से यह स्वीकार्य नहीं है. न्यायालय ने यह टिप्पणी भी की थी कि याचिकाकर्ता यह याचिका दायर करने की आड़ में अपने लिव इन रिलेशनशिप पर अनुमोदन की मुहर मांग कर रहे हैं.

हालांकि, बाद में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति नवीन सिन्हा और न्यायमूर्ति अजय रस्तोगी की अवकाशकालीन पीठ ने इस जोड़े को राहत प्रदान करते हुए कहा कि चूंकि यह मुद्दा जीवन और स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला है, इसलिए इस दंपत्ति को मिल रही धमकियों के मद्देनजर पुलिस को तेजी से कार्रवाई करनी चाहिए.

उम्मीद की जानी चाहिए कि लिव इन रिलेशनशिप को लेकर व्याप्त भ्रांतियों पर न्यायिक व्यवस्था के माध्यम से अंकुश लगाया जाएगा ताकि नाहक ही सह जीवन जीने वालों को अनावश्यक परेशानी हों.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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