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Friday, 1 November, 2024
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क्या मानव सभ्यता महाविनाश की ओर बढ़ रही है?

बदलते और बिगड़ते पर्यावरण की समस्या केवल भारत की नहीं है. लेकिन इसका विकराल रूप भारत जैसे गरीब देश को ज्यादा झेलना पड़ेगा. इसलिए हमें ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है.

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1980 के दशक की शुरुआत में भारत में गिद्धों की संख्या लगभग 4 करोड़ थी, जो 2017 के अंत तक घटकर केवल 19,000 रह गयी है. ये जानकारी केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में पिछले दिनों दी. गिद्ध तो न हमारे देश में खाया जाता है न ही इसका शिकार किया जाता है. फिर इतने सारे गिद्ध कहां गए? जानकारों का मानना है कि ऐसा डिक्लोफेनाक नामक दवा के कारण हुआ. यह दवा नब्बे के दशक के शुरुआती सालों में गाय, बैल, भैंसों आदि को सूजन, बुखार, घावों से जुड़े दर्द के उपचार के लिए दी जाती थी. जब गिद्ध ऐसे जानवरों के अवशेषों को खाते, जिसे डिक्लोफेनाक दिया गया हो, तो उनके मांस से होते हुए ये दवा गिद्धों के शरीर में पहुंच जाती और इस वजह से उनकी मौत हो जाती.

गिद्ध एक नायब जीव है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र को स्वस्थ रखने और बीमारी के प्रसार को रोकने में मदद मिलती है. वे प्राकृतिक स्कैवेंजर हैं. जब भारत में गिद्धों की आबादी कम हुई तो केवल 11 वर्षों में ही आवारा कुत्तों की आबादी 70 लाख से बढ़कर 2.9 करोड़ हो गयी तथा कुत्तों के काटने के मामले बढ़ गए. भारत में रेबीज से मरने वालों की संख्या 20,000 तक हो गई है. दुनिया में रेबीज से मरने वालों में एक-तिहाई लोग भारत के हैं. उक्त उदाहरण मैंने पर्यावरण से छेड़छाड़ के नतीजों को समझाने के लिए दिया है.

प्रकृति ने अगर कुछ बनाया है, मनुष्यों को दिया है तो उसको संभालकर, संजोकर रखना हमारी जिम्मेदारी है. फिर वो चाहे गिद्ध हो, गौरैया हो, शुद्ध वायु या पानी हो.

गंदी हवा से कैंसर

हाल ही में दिल्ली के सर गंगा राम हॉस्पिटल के डाक्टरों ने जहरीली हवा से 28 वर्षीय युवती में फेफड़ों का कैंसर होने का दावा किया है. यह देश का पहला ऐसा मामला है. डॉक्टरों का मानना है कि चूंकि युवती या उसके परिवार के किसी भी सदस्य के धूम्रपान करने का रिकॉर्ड नहीं मिला है. इसलिए यह मामला वायु प्रदूषण के कारण कैंसर का है.

हम लोगों को हैरान होने की जरूरत नहीं है. ये दिन तो आना ही था. विश्व स्वास्थ्य संगठन तो हमें बहुत पहले से सावधान करता आ रहा है. उसकी एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया की लगभग 90 प्रतिशत आबादी प्रदूषण के खतरनाक स्तर के बीच रह रही है. दुनिया के 15 सबसे प्रदूषित शहरों में से 14 भारत में हैं. बोस्टन (अमेरिका) स्थित स्वास्थ्य प्रभाव संस्थान द्वारा जारी स्टेट ऑफ ग्लोबल एयर रिपोर्ट 2019 के अनुसार, वायु प्रदूषण से उत्पन्न बीमारियों के कारण 2017 में भारत में 12 लाख भारतीयों की मृत्यु हुई.


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ऐसा भी नहीं है की हम नहीं जानते कि वायु प्रदूषण किन कारणों से है और उसे कैसे रोका जाए. वायु प्रदूषण के मुख्य स्रोतों की अच्छी तरह से पहचान की जा चुकी है और यह सूची सभी भारतीय शहरों के लिए आम है. वाहनों से निकलने वाला धुआं और गैस, बिजली उत्पादन सहित भारी उद्योग, ईंट भट्टों सहित कोयले का इस्तेमाल करने वाले लघु उद्योग, वाहनों की आवाजाही और निर्माण गतिविधियों के कारण सड़कों पर उड़ने वाली धूल, खुले में कचरा जलाना, खाना पकाने, प्रकाश व्यवस्था और हीटिंग के लिए विभिन्न ईंधनों का दहन, डीजल जनरेटर सेट, जंगल की आग इत्यादि. लेकिन हम अपने आर्थिक फायदे के लिए इतने अंधे हो चुके हैं कि प्रदूषण और प्रकारांतर में खुद को नुकसान पहुंचाने से बाज़ नहीं आते.

जीवन का संकट है पर्यावरण

पर्यावरण के प्रति उदासीन रवैया बहुत ही खतरनाक रूप ले चुका है. आज हमारे महानगरों की हवा और नदियों का पानी जहरीला हो चुका है. भारत की अधिकांश नदियां, विशेष रूप से छोटी नदियां आज जहरीली नालियों बन चुकी है. ज्यादातर नदियों का पानी पीने लायक नहीं रहा है. इसका जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि हम स्वयं और हमारी व्यवस्थाएं हैं. अधिक लाभ के लिए फसलों में हम इतना कीटनाशक डालते हैं कि खाद्य पदार्थ भी जहरीले हो गए हैं. भूजल पीने के पानी का एक अति महत्वपूर्ण स्रोत है, लेकिन वह बुरी तरह प्रदूषित हो चुका है. इसका अधिकांश हिस्सा बिना किसी उपचार के ही पीने के काम आ रहा है. प्रदूषित पानी पीने से हमारे देश में 2018 में प्रतिदिन 7 लोगों की जान गयी तथा करीब 36,000 लोग प्रतिदिन पानी से होने वाली बीमारियों से पीड़ित हुए.

भारत धीरे-धीरे ही सही, लेकिन पर्यावरणीय आपदा की ओर बढ़ रहा है. इसके मूल में है विनाशकारी मानवीय गतिविधियां. देश में होने वाली ज्यादातर प्राकृतिक आपदाओं की जड़ में आप मानव लोभ ही पाएंगे. उदाहरण के लिए जून 2013 में आई उत्तराखंड की बाढ़ को ले लीजिए, जहां करीब 5,000 लोगों की जान गयी थी. इसके बारे में कुछ लोग कहेंगे कि यह बादल फटने की प्राकृतिक आपदा थी, मनुष्य के वश से बाहर. परन्तु पर्यावरणवादी तथा वैज्ञानिक आपको बताएंगे कि अवैध उत्खनन, वनों की कटाई, पहाड़ियों को काटने और नदी के तल पर अवैध निर्माण- सभी ने मिलकर प्रकृति के रोष को बढ़ाया. इसकी वजह से जो तांडव हुआ वह सारी दुनिया ने देखा.

बाढ़: प्राकृतिक या मानवीय आपदा?

अनौपचारिक आंकड़ों के अनुसार, वर्तमान दशक में देश में बाढ़ से लगभग 8,000 लोग मारे जा चुके है. इन दिनों असम में बाढ़ का प्रकोप जारी है. सितम्बर 2014 में श्रीनगर में बाढ़ के कारण तक़रीबन 300 लोगो की जान गयी थी. दिसंबर 2015 में तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई में बाढ़ आयी थी, जिसमें 500 से ज्यादा लोगों की मौत हो गई तथा करीब 15 लाख लोग बाढ़ से प्रभावित हुए.


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रोज़गार और बेहतर जीवन के चाह में गांवों से शहरों की तरफ पलायन लगातार हो रहा है, शहरीकरण बढ़ता जा रहा है. शहरीकरण के कारण न सिर्फ खेत और जंगल की बलि चढ़ रही है बल्कि हम आर्द्रभूमि और झील-तालाब-दलदली जमीन आदि- जो बाढ़ के दौरान स्पंज के रूप में कार्य करते हैं और अतिरिक्त पानी को खपा लेते हैं- को भी खोते जा रहे है. चेन्नई ने 2016 के अंत तक शहरीकरण के लिए 50 प्रतिशत से अधिक जल निकायों को खो दिया था. इसी तरह, श्रीनगर और गुवाहाटी ने भी अपने 50 और 60 प्रतिशत जल निकायों को खो दिया है. अब क्या यह कहना ठीक होगा कि चेन्नई की बाढ़ प्राकृतिक कारणों से हुई? या वह मानव-निर्मित विनाश था? इस बाढ़ के लिए क्या वे नौकरशाह जिम्मेदार नहीं जिन्होंने भवन निर्माण के गलत नक़्शे पारित किए और जिन्होंने सरकारी जमीन को कौड़ियों के दाम बेचकर दलाली खायी? क्या वो नागरिक जिम्मेदार नहीं जिसने समाज के सामूहिक हित को दरकिनार करके अपने निजी फायदे के लिए सरकारी जमीन पर अतिक्रमण किया या जल निकाय को पाट लिया?

प्रकृति ने हमें बार-बार चेताया है कि आर्थिक लाभ के लिए उससे की गयी छेड़छाड़ का नतीजा गलत ही होगा, विनाशकारी ही होगा. यह महत्वपूर्ण है कि हम इससे सबक ले और अपने जंगलों, पहाड़ों, नदियों, नालों से छेड़छाड़ बंद करें. उनके रास्तो से हट कर चलें. अगर ये मान भी लिया जाए के बदलते पर्यावरण की समस्या केवल भारत की नहीं है, तो भी एक बात तो तय है इसका विकराल रूप भारत जैसे गरीब देश को ज्यादा झेलना पड़ेगा. इसलिए हमें ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

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