scorecardresearch
Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतक्या ‘हिन्दुत्व’ वास्तव में जीवन शैली है, शीर्ष अदालत को अपने निर्णय पर फिर से विचार करने की है जरूरत

क्या ‘हिन्दुत्व’ वास्तव में जीवन शैली है, शीर्ष अदालत को अपने निर्णय पर फिर से विचार करने की है जरूरत

अयोध्या मामले में भी इन न्यायाधीशों ने अपनी राय में कहा था कि समान्यतया, हिन्दुत्व को जीवन शैली या सोचने के तरीके के रूप में लिया जाता है और इसे धार्मिक हिन्दू कट्टरवाद के समकक्ष नहीं रखा जायेगा और न ही समझा जायेगा.

Text Size:

केरल स्थित सबरीमला मंदिर से लेकर मस्जिदों में महिलाओं के प्रवेश और उनके अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में धार्मिक आस्था और मौलिक अधिकारों से संबंधित प्रकरण पर शीर्ष अदालत की नौ सदस्यीय संविधान पीठ में अभी सुनवाई शुरू भी नहीं हुयी है कि अचानक ही ‘हिन्दुत्व’ का मुद्दा सुर्खियों में आ गया है.

शीर्ष अदालत से अनुरोध किया जा रहा है कि ‘हिन्दुत्व’ को जीवन शैली के रूप में परिभाषित करने वाले उसके 11 दिसंबर, 1995 के फैसले में ‘हिन्दुत्व’ के बारे में की गयी व्याख्या पर फिर से गौर करने के लिये शीघ्र सुनवाई की जाये.
वैसे तो प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबड़े की अध्यक्षता वाली पीठ ने संकेत दिया है कि ‘हिन्दुत्व’ के मसले पर लंबित याचिकाओं पर आस्था बनाम मौलिक अधिकार प्रकरण की सुनवाई के बाद विचार किया जायेगा. फिलहाल नौ सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष लंबित आस्था बनाम मौलिक अधिकार से संबंधित मामले में न्यायालय ने सात सवाल तैयार किये हैं और इनमें संविधान के अनुच्छेद 25 में प्रदत्त धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार के संबंध में न्यायिक समीक्षा का दायरा और अनुच्छेद 25 तथा 26 में प्रदत्त ‘सदाचार’ का दायरा और इसकी सीमा का मुद्दा भी शामिल है.

शीर्ष अदालत ने 11 दिसंबर, 1995 को चुनाव के दौरान भ्रष्ट आचरण के बारे में जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत चुनाव प्रचार के दौरान ‘हिन्दुत्व’ के नाम पर मतदाताओं से वोट मांगे जाने संबंधी प्रकरण में अपने फैसले में कहा था कि ‘हिन्दुत्व’ या ‘हिन्दूवाद’ तो मोटे तौर पर एक जीवन शैली है और हमें यह देखना होगा कि चुनावी भाषणों के दौरान इस शब्द का इस्तेमाल किस संदर्भ में किया गया है.


यह भी पढ़ें: क्या धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को संविधान प्रदत्त अनुसूचित जातियों में शामिल करना चाहिए


न्यायमूर्ति जगदीश शरण वर्मा, न्यायमूर्ति एन पी सिंह और न्यायमूर्ति के वेंकटस्वामी की पीठ ने ‘हिन्दू’, ‘हिन्दुत्व, और ‘हिन्दू धर्म’ जैसे शब्दों के इस्तेमाल के बारे में अपनी व्यवस्था में इन शब्दों के संदर्भ में संविधान पीठ के अनेक फैसलों को उद्धृत किया था. इनमें अयोध्या विवाद से संबंधित एक मामले में 1994 में न्यायमूर्ति एस पी भरूचा और न्यायमूर्ति ए एम अहमदी की राय भी शामिल थी. ये दोनों न्यायाधीश बाद में देश के प्रधान न्यायाधीश बने थे.

न्यायमूर्ति वर्मा की पीठ ने दिसंबर, 1995 में सुनाये गये अपने निर्णय में 14 जनवरी, 1966 को तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी बी गजेन्द्र गडकर की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ के फैसलेे सहित संविधान पीठ के कई फैसलों का हवाला देते हुये कहा गया था कि इनमें विस्तार से चर्चा के बाद यही संकेत मिलता है कि शब्द ‘हिन्दू’, ‘हिन्दुत्व’ और ‘हिन्दूवाद’ का कोई निश्चित अर्थ नहीं निकाला जा सकता है और भारतीय संस्कृति और विरासत को अलग रखते हुये इसके अर्थ को सिर्फ धर्म तक सीमित नहीं किया जा सकता है. इसमें यह भी संकेत दिया गया कि ‘हिन्दुत्व’ का संबंध इस उप महाद्वीप के लोगों की जीवन शैली से अधिक संबंधित है.

हिंदुत्व या हिंदू धर्म

इन फैसलों के मद्देनजर यह स्वीकार करना कठिन है कि ‘हिन्दुत्व, या ‘हिन्दू धर्म’ के मायने को अलग से कैसे कोई अर्थ दिया जा सकता है और इसे संकीर्ण कट्टरपंथी हिन्दू धर्मान्धता के समकक्ष रखा जा सकता है या फिर यह कैसे माना जा सकता है कि यह जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 की उपधारा 3 और 3ए के दायरे में आती है.

न्यायालय ने कहा था कि विशेषकर संविधान पीठ के फैसलों के मद्देनजर इसमें संदेह नहीं किया जा सकता कि ‘हिन्दू धर्म’ या ‘हिन्दुत्व’ शब्दों को भारत की संस्कृति से असंबद्ध सिर्फ हिन्दू धार्मिक रीतियों तक सीमित करना या ऐसा समझना जरूरी नहीं है. न्यायालय ने कहा था कि जब तक भाषण में इन शब्दों के प्रयोग का मतलब इसके विपरीत नजर नहीं आये, ये शब्द मोटे तौर पर भारतीय जनता की जीवन शैली का संकेत देते हैं और यह हिन्दू धर्म को अपनी आस्था के रूप में मानने वाले व्यक्तियों तक सीमित नहीं होता है.

शीर्ष अदालत ने कहा था कि सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के लिये इन शब्दों का इस्तेमाल इनके मायने नहीं बदल सकता है और अगर कोई व्यक्ति अपने भाषण में इन शब्दों का दुरूपयोग करके शरारत करता है तो इन शब्दों के उचित उपयोग करने पर नहीं बल्कि इस पर:शरारतः पर अंकुश लगाना होगा.

यही नहीं, शीर्ष अदालत के न्यायाधीश एस पी भरूचा ने अपनी और न्यायमूर्ति ए एम अहमदी की ओर से अयोध्या प्रकरण से संबंधित डा. एम इस्माइल फारूकी बनाम भारत संघ मामले में 1994 अपनी राय में कहा था, ‘हिन्दू धर्म एक सहिष्णु विश्वास है. यही सहिष्णुता है जिसने इस धरती पर इस्लाम, ईसाई धर्म, पारसी धर्म, यहूदी धर्म, बौध धर्म, जैन धर्म और सिख धर्म को प्रश्रय पाने और समर्थन प्राप्त करने का अवसर दिया.’

अयोध्या मामले में भी इन न्यायाधीशों ने अपनी राय में कहा था कि समान्यतया, हिन्दुत्व को जीवन शैली या सोचने के तरीके के रूप में लिया जाता है और इसे धार्मिक हिन्दू कट्टरवाद के समकक्ष नहीं रखा जायेगा और न ही समझा जायेगा.

न्यायालय ने यह भी कहा था कि यह मानकर आगे बढ़ना एक छलावा और कानूनन गलत है कि भाषणों में हिन्दुत्व या हिन्दूवाद का किसी भी प्रकार से जिक्र स्वतः ही हिन्दू धर्म पर आधारित भाषण है जो दूसरे धर्मो के खिलाफ है या फिर ‘हिन्दुत्व’ या ‘हिन्दू धर्म’ शब्दों का उपयोग हिन्दू धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म को मानने वाले व्यक्ति के प्रति बैरी दृष्टिकोण जाहिर करता है.

हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म जैसे शब्दों के प्रयोग को लेकर समय समय पर विवाद उठाने का प्रयास किया जाता रहा है.
गैर सरकारी संगठन सेन्टर फाॅर जस्टिस एंड पीस की तीस्ता सीतलवाड ने भी अक्टूबर, 2016 में इस मुद्दे को उठाने का असफल प्रयास किया था. सामाजिक कार्यकर्ता सीतलवाड चाहती थीं कि चुनावों में इस शब्द के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया जाये लेकिन न्यायालय ने इस संबंध में 1995 के फैसले पर पुनर्विचार करने से इंकार कर दिया था.

लेकिन, तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश तीरथ सिंह ठाकुर की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने इस बहस में जाने से इंकार कर दिया था कि ‘हिन्दुत्व’ क्या है. साथ ही संविधान पीठ ने स्पष्ट कर दिया था कि वह खुद को सिर्फ इस सवाल तक केन्द्रित कर रही है कि क्या चुनाव में किसी राजनीतिक दल विशेष के पक्ष में मत देने की धार्मिक नेताओं की अपील जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत चुनावी कदाचार माना जायेगा.

जन प्रतिनिधित्व कानून की धारा 123 के तहत इस तरह के शब्दों के प्रयोग को चुनावी कदाचार माने जाने से संबंधित एक मामला 1990 से न्यायालय में लंबित है. यह मामला भी संविधान पीठ के समक्ष लंबित है.

वरिष्ठ अधिवक्ता अरविन्द दातार ने पिछले दिनों इस मामले पर शीघ्र सुनवाई का अनुरोध किया तो प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि दूसरा पक्ष चाहता है कि न्यायालय ‘हिन्दुत्व’ के फैसलेे पर फिर से गौर करे. वे चाहते हैं कि न्यायालय हिन्दुत्व के फैसले को बदले. लेकिन इसमें वक्त लगेगा क्योकि सभी पक्ष इसमें लंबी बहस करेंगे.


यह भी पढ़ें: क्या वास्तव में निर्भया कांड के दोषियों के मामले में शीर्ष अदालत के 2014 निर्देशों का पालन नहीं हुआ?


बहरहाल, अभी तो यह मामला टल गया है, लेकिन जिस तरह से बार बार ‘हिन्दुत्व’ के बारे में शीर्ष अदालत के फैसले को बदलने का न्यायालय से अनुरोध किया जा रह है उसे देखते हुये ऐसा लगता है कि देर सवेर इस पर फिर से विचार की आवश्यकता होगी और देश की सर्वोच्च अदालत 1904 से लेकर 1994 के दौरान संविधान पीठ के कई फैसलों के आलोक में इस विवाद का हमेशा के लिये पटाक्षेप करने का प्रयास करेगी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

share & View comments