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Tuesday, 7 May, 2024
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क्या धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को संविधान प्रदत्त अनुसूचित जातियों में शामिल करना चाहिए

संविधान के 103वें संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये 10 फीसदी आरक्षण के दायरे में ऐसे लोग आयेंगे जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की योजना के दायरे में नहीं हैं.

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अक्सर इस तरह की खबरें सुनने और पढ़ने के लिये मिलती हैं कि समाज की उपेक्षा के कारण दलितों के एक वर्ग ने ईसाई या मुस्लिम धर्म अपना लिया या फिर इस तरह से धर्मांतरण करने वालों की हिन्दू धर्म में घर वापसी हो गयी है.

इस तरह की खबरों के बीच धर्म परिवर्तन करके ईसाई धर्म या इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले दलितों के अधिकारों का मसला लगातार चर्चा का केन्द्र बना हुआ है. धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को भी अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कर उन्हें भी सरकार की तमाम योजनाओं और आरक्षण सुविधा का लाभ देने की मांग लंबे समय से उठ रही है.

यह मुद्दा 15 साल से भी अधिक समय से उच्चतम न्यायालय में लंबित होने के बावजूद ‘किन्तु-परंतु’ के बीच उलझा हुआ है. न्यायालय में भी यह मसला तीन न्यायाधीशों और दो न्यायाधीशों की पीठ के बीच उलझा रहा लेकिन अब उम्मीद है कि तीन न्यायाधीशों की पीठ ही इस पर विचार करेगी.

हालांकि, इसी दौरान जनवरी, 2019 में संविधान में 103वें संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के उन सभी व्यक्तियों को 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला लिया जिन्हें अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण योजनाओं के तहत लाभ नहीं मिलता है.

धर्म परिवर्तन के बाद ईसाई या इस्लाम धर्म अपनाने वाले दलितों के लिये भी सरकारी नौकरियों, शिक्षण संस्थानों और कल्याणकारी योजनाओं में आरक्षण के लाभ का मुद्दा लंबे समय से विवाद का केन्द्र बना हुआ है. इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों में भी एक राय नहीं है. कुछ राजनीतिक दल इसे वोट की राजनीति से जोड़ रहे हैं तो कुछ का तर्क है कि अनुसूचित जातियों के लाभ धर्म परिवर्तन करने वाले दलितों को देने से देश में धर्मांतरण को बढ़ावा मिलेगा.

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यह मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है क्योंकि अब एक अन्य संगठन नेशनल काउन्सिल आफ दलित क्रिश्चियंस भी दलित ईसाईयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल कराने के अनुरोध के साथ न्यायालय पहुंचा है. न्यायालय ने इस याचिका पर भी केन्द्र से जवाब मांगा है और इसे पहले से ही लंबित मामलों के साथ संलग्न कर दिया है.


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न्यायालय में पहले से ही गैर सरकारी संगठन सेन्टर फार पब्लिक इंटरेस्ट लिटीगेशंस, और कुछ दलित ईसाईयों और उनके ईसाई संगठनों ने संविधान के अनुसूचित जाति आदेश 1950 के तीसरे पैराग्राफ की संवैधानिक वैधता को चुनौती दे रखी है. इन याचिकाओं में दलील दी गयी है कि संविधान के अनुसूचित जाति आदेश 1950 के तीसरे पैराग्राफ के प्रावधानों के दायरे से संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 25 में प्रदत्त अधिकारों का हनन होता है.

संविधान के अनुसूचित जाति आदेश, 1950 के तीसरे पैराग्राफ के प्रावधान के तहत हिन्दू धर्म, सिख धर्म और बौध धर्म के अलावा किसी अन्य धर्म का पालन करने अथवा धर्म परिवर्तन करने वाला अनुसूचित जाति का सदस्य आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाता है.

न्यायालय में पहली बार अप्रैल, 2004 में यह मामला सुनवाई के लिये आया और इसके कुछ महीने बाद ही 29 अक्टूबर, 2004 को तत्कालीन संपग्र सरकार ने धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों के विभिन्न मुद्दों पर विचार के लिये पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंगनाथ मिश्रा की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय आयोग गठित कर दिया था. इस आयोग ने 21 मई, 2007 को अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी.

इस रिपोर्ट के चर्चा में आते ही सरकार ने इसकी सिफारिशों को लेकर उठ रहे विरोध को देखते हुये इसे 2007 में ही राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के पास विचार के लिये भेज दिया था. अनुसूचित जाति आयोग कमोबेश इस आयोग की सिफारिशों से सहमत था.

मनमोहन सिंह सरकार ने हालांकि 18 दिसंबर, 2009 को यह रिपोर्ट संसद में पेश की लेकिन इससे पहले ही रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को लेकर विरोध शुरू हो गया था. इसकी वजह इस रिपोर्ट में दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने की सिफारिश थी.

रंगनाथ मिश्रा आयोग ने अपनी रिपोर्ट में भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को पिछड़े वर्ग के रूप में परिभाषित करते हुये सभी अल्पसंख्यकों के लिये नौकरियों, शिक्षा और कल्याणकारी योजनाओं में 15 प्रतिशत आरक्षण की भी सिफारिश की थी. आयोग की रिपोर्ट आने के साथ ही इस मुद्दे पर राजनीति तेज हो गयी थी.

कांग्रेस पार्टी जहां आयोग की रिपोर्ट में की गयी सिफारिशों के आधार पर दलित ईसाईयों और दलित मुस्लिम को आरक्षण और सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभ देने के पक्ष में थीं वहीं भाजपा के नेतृत्व वाली राजग सरकार इससे सहमत नहीं लगती. इसका संकेत नवंबर, 2014 में ही राजग सरकार के तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने दे दिया था. सरकार ने इशारों इशारों में ही साफ कर दिया था कि वह दलित ईसाईयों और दलित मुसलमानों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में रखने के पक्ष में नहीं है.

हालांकि, इसके बाद राजग सरकार ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान करके स्थिति को अधिक पेचीदा बना दिया है. संसद ने पिछले साल संविधान के 103वें संशोंधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान करते हुये संविधान के अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 16 में संशोधन किया था.

संविधान के 103वें संशोधन के माध्यम से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये 10 फीसदी आरक्षण के दायरे में ऐसे लोग आयेंगे जो अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिये आरक्षण की योजना के दायरे में नहीं हैं.


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राजग सरकार के इस फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गयी थी. इस प्रकरण में केन्द्र की ओर से अटार्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने साफ किया था कि इस फैसले का मकसद देश में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को आरक्षण का लाभ देने का मकसद गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले करीब बीस करोड़ लोगों के सामाजिक जीवन का उत्थान करना है.

इन्दिरा साहनी प्रकरण में नौ सदस्यीय संविधान पीठ पहले ही आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 प्रतिशत कर चुकी है. दलील दी जा रही थी कि आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिये आरक्षण का प्रावधान 50 फीसदी आरक्षण की सीमा को लांघता है.

सरकार इससे सहमत नहीं है और न्यायालय में उसका यही कहना था कि शीर्ष अदालत की इस व्यवस्था के बावजूद समाज में गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे परिवारों के उत्थान के लिये अपवाद स्वरूप अलग से आरक्षण की व्यवस्था की जाती है.

धर्मांतरण कर ईसाई बने दलितों को अनुसूचित जातियों में शामिल करने और उन्हें भी आरक्षण तथा कल्याणकारी योजनाओं के लाभ के लिये दायर याचिकायें 28 नवंबर 2019 को न्यायमूर्ति आर एफ नरिमन की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष सूचीबद्ध था परंतु उस दिन सुनवाई नहीं हो सकी.

न्यायालय ने नेशनल काउन्सिल आफ दलित क्रिश्चियंस की याचिका पहले से लंबित याचिकाओं के साथ संलग्न कर दी है और इन पर अब 22 फरवरी को सुनवाई होने की उम्मीद है.

मनमोहन सिंह सरकार के कार्यकाल के दौरान 2010 में दलित ईसाईयों के लिये अनुसूचित जातियों को मिलने वाले लाभों से संबंधित मामले में ऑल इंडिया क्रिश्चियन फेडरेशन की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के के वेणुगोपाल पेश हुये थे जो इस समय अटार्नी जनरल हैं.

वेणुगोपाल ने तर्क दिया था कि शोषण और अस्पृश्यता के दंश से बचने के लिये धर्मान्तरण के बाद ईसाई धर्म अपनाने वाले दलितों को भी आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए.

वेणुगोपाल की यह दलील आज दस साल बाद भी महत्वपूर्ण है और शायद आर्थिक रूप से कमजोर वर्गो के लिये दस फीसदी के आरक्षण की व्यवस्था इस विवाद के समाधान में उपयोगी हो सकेगी.

बहरहाल, दलित ईसाईयों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के सवाल पर न्यायालय में लंबित मामले में नजरें केन्द्र सरकार के रूख की ओर लगी हैं. देखना यह है कि क्या केन्द्र धर्मान्तरण करने वाले दलितों को अनुसूचित जातियों की सूची में शामिल करने के लिये तैयार होगा अथवा उन्हें भी आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के निमित्त 10 फीसदी आरक्षण के दायरे में रखने पर जोर देगा.

हालांकि, इस पेचीदे मुद्दे पर अंततः उच्चतम न्यायालय को ही अपनी सुविचारित व्यवस्था देनी है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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