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Thursday, 20 June, 2024
होममत-विमतलोकसभा में चंद्रशेखर आज़ाद की जीत क्या मायावती के बाद दलितों के नए नेता के उभार का संकेत है

लोकसभा में चंद्रशेखर आज़ाद की जीत क्या मायावती के बाद दलितों के नए नेता के उभार का संकेत है

भीम आर्मी के प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद का घर-घर जाकर प्रचार करना, संविधान को मुद्दा बनाना और दलितों और मुसलमानों को एकजुट करना, जिसने उन्हें नगीना निर्वाचन क्षेत्र में जीत दिलाई, मायावती खेमे में बेचैनी बढ़ा सकता है.

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नई दिल्ली: लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजों ने समाजवादी पार्टी (सपा) जैसी राजनीतिक पार्टियों में नई जान फूंक दी है, जबकि बहुजन समाज पार्टी (बसपा) जैसी अन्य पार्टियों को मुश्किलों में डाल दिया है. उत्तर प्रदेश ने इस चुनाव में कई चौंकाने वाले नतीजे दिए हैं, लेकिन चंद्रशेखर आज़ाद के उभरने को सिर्फ एक इत्तेफाक कहना गलत होगा.

भीम आर्मी के प्रमुख और आज़ाद समाज पार्टी के सह-संस्थापक की नगीना लोकसभा क्षेत्र से जीत, जो कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की वाराणसी में जीत के लगभग बराबर अंतर से है, दलित मतदाताओं की पसंद में बदलाव का संकेत देती है कि उनका भावी नेता कौन होगा. दशकों तक मायावती उस स्थान पर काबिज़ रहीं, लेकिन विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनावों में उनकी पार्टी का वोट शेयर कम होता गया.

उनका कुर्सी पर बैठकर काम करने का तरीका चंद्रशेखर से बिल्कुल अलग है, जिन्हें सड़क पर लड़ने वाला माना जाता है, यही वह गुण है जिसने उन्हें युवाओं के बीच लोकप्रिय बनाया है. हालांकि, आज़ाद ने अपने भाषणों या मीडिया इंटरव्यू के दौरान कभी भी मायावती पर निशाना नहीं साधा है, बल्कि डॉ. बीआर आंबेडकर, कांशीराम, संविधान और दलित समुदाय के लोगों के अधिकारों और सम्मान पर ध्यान केंद्रित किया.

गौरतलब है कि चंद्रशेखर को मायावती के लिए गंभीर चुनौती नहीं समझा गया. लोकसभा में उनका प्रवेश, जो कि बसपा की अनुपस्थिति से मेल खाता है, उन्हें इस स्थान पर पहुंचाता है.

और यही कारण है कि चंद्रशेखर आज़ाद दिप्रिंट के न्यूज़मेकर ऑफ द वीक हैं.

दमदार जीत

आज़ाद ने नगीना लोकसभा सीट पर 1.5 लाख से ज़्यादा वोटों से जीत दर्ज की. उनका वोट शेयर 51.18 प्रतिशत रहा, जबकि बीजेपी के ओम कुमार को 36 प्रतिशत वोट मिले. बसपा के उम्मीदवार सुरेंद्र पाल सिंह सिर्फ 1.33 प्रतिशत वोट पाकर चौथे स्थान पर रहे और उनकी ज़मानत भी जब्त हो गई.

लेकिन आज़ाद ने सिर्फ दलित वोटरों पर मायावती के गढ़ को ही नहीं तोड़ा बल्कि समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव का पीडीए — पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक — फॉर्मूला, जो यूपी की लगभग आधी लोकसभा सीटों पर सफल रहा, को भी नगीना में विफल साबित किया. आज़ाद ने दलित और मुस्लिम वोटरों को लामबंद किया, जिसके कारण समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार मनोज कुमार को सिर्फ 10.2 प्रतिशत वोट ही मिले. नगीना निर्वाचन क्षेत्र में 20 प्रतिशत दलित हैं, जिनमें बड़ी संख्या में जाटव शामिल हैं, जिन्हें मायावती का मुख्य वोट बैंक माना जाता है. निर्वाचन क्षेत्र की मुस्लिम आबादी लगभग 40 प्रतिशत है.

आज़ाद इंडिया ब्लॉक का हिस्सा नहीं थे, अखिलेश यादव के साथ गठबंधन की बातचीत विफल हो गई थी. इस चुनाव में वे अपनी पार्टी के इकलौते उम्मीदवार भी थे. इसके अलावा, आज़ाद को कई बार जेल भी जाना पड़ा, जिसमें हालिया वाकिया सीएए विरोधी प्रदर्शनों में भाग लेने के कारण भी शामिल है.

इन सबके बीच, उनकी जीत मायावती के बाद समाज के हाशिए पर पड़े तबके के बीच एक नए नेता के उभरने का संकेत है.

पहले आज़ाद को उनके सरनेम ‘रावण’ से जाना जाता था, लेकिन 2019 के चुनावों से पहले उन्होंने इसे यह कहते हुए छोड़ दिया कि वे नहीं चाहते कि चुनाव राम और रावण समर्थकों के बीच ध्रुवीकृत हो. आज़ाद ने 2014 में भीम आर्मी की स्थापना की और उनका संगठन पश्चिमी यूपी में हाशिए पर पड़े बच्चों के लिए कई स्कूल चलाता है. 2016 में दलितों ने उनके गांव घड़कौली के प्रवेश द्वार पर एक बोर्ड लगाया, जिसमें लिखा था: “दा ग्रेट चमार, डॉ भीमराव आंबेडकर गांव.”

यूपी के नए राजनीतिक नेता

नगीना में आज़ाद की जीत इसलिए भी खास है क्योंकि 2009 तक यह बिजनौर लोकसभा सीट का हिस्सा थी, जहां से मायावती ने चुनाव जीता और 1989 में लोकसभा में पहुंचीं. दिलचस्प बात यह है कि परिसीमन के बाद जब 2009 में नगीना को बिजनौर से अलग किया गया तो हर चुनाव में लोगों ने अलग-अलग पार्टियों को चुना.

लेकिन मायावती ने खुद को आम लोगों से दूर करके दलित समुदाय को एक नए चेहरे की ओर मुड़ने का मौका दिया. आज़ाद ने न सिर्फ इसका फायदा उठाया बल्कि कई सालों तक ज़मीनी स्तर पर मेहनत भी की. उन्होंने ज़मीनी स्तर पर दलितों के लिए लड़ाई लड़ी और पिछले एक साल से नगीना में ही हैं. अब वे मायावती के लिए नए चुनौती हैं.

सहारनपुर निवासी-37 वर्षीय आज़ाद ने नगीना को न सिर्फ अपनी कर्मभूमि बनाया बल्कि दलितों के बीच बेहद सम्मानित मायावती के राजनीतिक गुरु कांशीराम को अपनी पार्टी — आज़ाद समाज पार्टी—कांशीराम के नाम से जोड़कर एक नई तरह की प्रतीकात्मक राजनीति भी की.

वे 2017 में तब चर्चा में आए जब सहारनपुर में कथित तौर पर जाति आधारित हिंसा भड़काने के लिए उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA) के तहत आरोप लगाए गए, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें एक साल की जेल हुई. अपनी रिहाई के बाद वे दलितों के खिलाफ हिंसा के खिलाफ मुखर रहे और कई प्रदर्शनों में भाग लिया, जिसमें सीएए विरोधी प्रदर्शन और दिल्ली में रविदास मंदिर के विध्वंस के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शामिल थे. पिछले साल जून में यूपी के देवबंद में भी उन पर गोली चलाई गई थी. इस साल, केंद्र ने उन्हें ‘वाई प्लस’ सुरक्षा प्रदान की.

इन आयोजनों के ज़रिए उनकी लोकप्रियता और उनके चाहने वालों की संख्या में इज़ाफा हुआ, खासतौर पर युवाओं के बीच, जिन्होंने उनके राजनीतिक उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान दिया है. युवाओं के बीच उनका प्रभाव इस बात से स्पष्ट है कि कई लोगों ने अपने मोबाइल के वॉलपेपर में उनकी तस्वीर लगा रखी है.

नगीना में मेरे चुनावी दौरे के दौरान यह साफ तौर पर देखा गया कि किस तरह से आज़ाद ने एक बड़ी आबादी को अपने पक्ष में प्रभावित किया है. दलितों में मायावती के खिलाफ गुस्सा था क्योंकि वे उनके मुद्दों को उस तरह नहीं उठा रही थीं जिस तरह से आज़ाद उठा रहे थे.

यह चुनाव आज़ाद और उनकी पार्टी के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि 2022 के विधानसभा चुनाव में वे गोरखपुर से योगी आदित्यनाथ के खिलाफ हार गए थे, उन्हें सिर्फ 4,501 वोट मिले थे और उनकी ज़मानत भी जब्त हो गई थी, लेकिन इस बार आज़ाद ने ज़मीन पर जो समीकरण बनाए हैं, वे उनकी राजनीतिक सूझबूझ को भी दर्शाते हैं.

आज़ाद ने दलितों और मुसलमानों को मिलाकर एक ऐसा समीकरण बनाया, जिसका मुकाबला न तो भाजपा के पास था और न ही सपा के पास. हालांकि, समाजवादी पार्टी को यूपी में मुसलमानों का एकमत समर्थन हासिल था, लेकिन नगीना में मुसलमानों ने आज़ाद को पसंद किया.

अपनी जीत के बाद आज़ाद ने कहा, “मुस्लिम समुदाय ने भी उतने ही वोट दिए, जितने दलितों ने दिए. मैं इस अहसान को अपनी पूरी ज़िंदगी में नहीं चुका पाऊंगा.”

घर-घर जाकर प्रचार, संविधान, दलित-मुस्लिम एकता

आज़ाद की राजनीति कई मायनों में दूसरे नेताओं से अलग है. वे मुखर राजनीति करते हैं और अपने तेवर से जनता के बीच अपनी प्रभावी छाप छोड़ते हैं. हालांकि, उनका प्रभाव पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ खास इलाकों तक ही सीमित रहा है, जिससे उनका आधार नहीं बढ़ पाया.

उन्होंने बसपा में शामिल होने के कई प्रयास किए और मायावती की तारीफ भी की, लेकिन मायावती ने उनकी ज्यादा परवाह नहीं की. हालांकि, जिस तरह से आज़ाद ने घर-घर जाकर प्रचार करके, संविधान को मुद्दा बनाकर और दलितों-मुस्लिमों को लामबंद करके चुनाव जीता है, उससे मायावती के खेमे में बेचैनी ज़रूर बढ़ेगी.

मुस्लिमों को लुभाने के लिए उन्होंने नगीना की मुस्लिम बस्तियों में रोड शो और घर-घर जाकर प्रचार किया. साथ ही, चुनाव से पहले बसपा के कई नेता उनकी पार्टी में शामिल हुए, जिससे बसपा का ज़मीनी स्तर पर जनाधार कम हुआ.

उत्तर प्रदेश में कई सालों से यह कहा जाता रहा है कि दलित राजनीति में एक खालीपन है. आज़ाद की जीत को उस खालीपन को भरने की दिशा में एक कदम के तौर पर देखा जा सकता है.

उनके सामने चुनौती यह होगी कि वे दलितों की बड़ी आबादी वाले भारत के सबसे बड़े राज्य में कैसे अपनी पैठ बनाते हैं और भविष्य में व्यापक स्वीकार्यता के लिए किस तरह के नए समीकरण साधते हैं.

(लेखक के विचार निजी हैं)

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस न्यूज़मेकर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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