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Thursday, 2 May, 2024
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नगीना से चुनाव लड़ रहे चंद्रशेखर आज़ाद क्या UP की दलित राजनीति में मायावती की जगह ले पाएंगे

आज़ाद इस चुनाव में अपनी पार्टी के अकेले उम्मीदवार हैं, जो आरक्षित सीट नगीना से चुनाव लड़ रहे हैं. वे निर्वाचन क्षेत्र के युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं, लेकिन विश्लेषकों का कहना है कि पूरे यूपी में उपस्थिति के लिए उन्हें और अधिक कोशिश करने की ज़रूरत है.

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नगीना, उत्तर प्रदेश: भीम आर्मी समूह के लिए प्रसिद्ध दलित राजनीति के नए युवा चुनौतीकर्ता चंद्र शेखर आज़ाद, उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति के चेहरे के रूप में मायावती के नेतृत्व वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की जगह लेने की कोशिश कर रहे हैं.

वे अपनी राजनीतिक पार्टी, आज़ाद समाज पार्टी (एएसपी) के बैनर तले नगीना से लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं, जिसका चुनाव चिन्ह केतली है. दिलचस्प बात यह है कि वे इस चुनाव में अपनी पार्टी के एकमात्र उम्मीदवार हैं.

2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में आज़ाद ने गोरखपुर में योगी आदित्यनाथ के खिलाफ चुनाव लड़ा था. उन्हें केवल 4,501 वोट मिले और उनकी ज़मानत भी जब्त हो गई.

एससी-आरक्षित सीट नगीना पर शुक्रवार को पहले चरण में मतदान होगा. 2019 में इस सीट से बसपा के गिरीश चंद्र ने जीत हासिल की थी.

लेकिन इस बार लोग आज़ाद की ओर उम्मीद से देख रहे हैं. परिसीमन के बाद 2009 में यह सीट बिजनौर से अलग हो गई. अब तक जनता ने समाजवादी पार्टी (सपा), बसपा और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को एक-एक कर मौका दिया है.

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37-वर्षीय आज़ाद जहां युवाओं के बीच लोकप्रिय हैं, वहीं पुरानी पीढ़ी आज भी मायावती को दलितों का प्रमुख चेहरा मानती है. हालांकि, नगीना की जनता का मायावती से मोहभंग होता नज़र आ रहा है.

युवाओं में आज़ाद को लेकर दीवानगी इस कदर है कि उनके साथ खींची गई फोटो को वे अपने फोन का वॉलपेपर लगाते हैं. उनके समर्थक रोज़ाना जाना उनके दर्जनों भाषणों को अपने व्हाट्सएप स्टेटस पर पोस्ट करते हैं.

Chandra Shekhar Azad addresses a public meeting in UP’s Nagina| By special arrangement
यूपी के नगीना में एक रैली के दौरान चंद्र शेखर आज़ाद | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

चंद्र शेखर आज़ाद के समर्थकों में से एक अपना फोन वॉलपेपर दिखाते हुए जिसमें आज़ाद की तस्वीर है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

नगीना के निवासियों के मुताबिक, अगर आज़ाद ये चुनाव जीतते हैं तो समुदाय को नया नेता मिल जाएगा. शेरकोट चौक पर चाय की दुकान पर बैठे भीम सिंह ने कहा, एक समय था जब मायावती साइकिल से इन सड़कों पर घूमती थीं और वोट मांगती थीं, लेकिन अब चीज़ें बदल गई हैं.

हालांकि, राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि आज़ाद अकेले दलितों के सहारे नहीं जीत सकते.

डॉ. भीमराव आंबेडकर यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर शशिकांत पाण्डेय ने कहा, “आज़ाद अलग तरह की राजनीति करते हैं. वे जनता के बीच अपनी बात मजबूती से रखते हैं. उनके लहज़े और भाव के कारण दलित समुदाय के बड़ी संख्या में युवा उन्हें पसंद करते हैं.”

हालांकि, पाण्डेय का कहना है कि इतने सालों के बाद भी वे पूरे यूपी में अपनी उपस्थिति दर्ज नहीं करवा पाए हैं. उन्हें केवल पश्चिमी यूपी के कुछ हिस्सों में सफलता मिली है.

पिछले एक दशक में मायावती की बसपा के कमज़ोर होने से उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति में एक खालीपन पैदा हो गया है, जिसे आज़ाद भरने की कोशिश में लगे हुए हैं. वे अपनी रैलियों के दौरान दलित पहचान के बारे में बात करते हैं और अक्सर आंबेडकर और कांशी राम का ज़िक्र करते हैं, जिनकी तस्वीर उनकी पार्टी के झंडे पर भी है.

आज़ाद ने दिप्रिंट से कहा, “नगीना मेरी कर्मभूमि है, मैं इसे छोड़ने वाला नहीं हूं.” वे सहारनपुर के रहने वाले हैं.

नगीना में ‘बाहरी’ उम्मीदवार होने के आरोप पर उन्होंने कहा, “अगर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात से होने के बावजूद वाराणसी से चुनाव लड़ सकते हैं, तो नगीना तो मेरे जिले के बहुत करीब है.”

उक्त प्रोफेसर पाण्डेय ने कहा, आज़ाद में एक चिंगारी है और वे शायद भविष्य में दलित राजनीति के एक बड़े नेता बनेंगे. हालांकि, उन्होंने आगे कहा, “आज़ाद जिस तरह से उभरे, उनका विस्तार नहीं हुआ. सिर्फ दलित वोटों के आधार पर वे चुनाव नहीं जीत सकते. उन्हें इसमें कुछ जोड़ना होगा.”


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ज़मीनी समीकरण

इस बार नगीना में बीजेपी ने ओम कुमार, सपा ने मनोज कुमार और बसपा ने सुरेंद्र पाल सिंह को मैदान में उतारा है. यहां की 46 फीसदी आबादी वाले मुस्लिम इस सीट से विजेता का फैसला करने में अहम भूमिका निभाते हैं. हालांकि, इस बार नगीना में मुसलमान समाजवादी पार्टी से नाराज़ नज़र आ रहे हैं.

हालांकि, शनिवार को नगीना में एक रैली को संबोधित करते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने कहा कि यह चुनाव पीडीए (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यकों) पर लड़ा जा रहा है. आज़ाद का नाम लिए बिना पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा कि केंद्र की भाजपा सरकार जहां अन्य नेताओं की सुरक्षा छीन रही है, वहीं कुछ लोगों को सुरक्षा दे रही है और यह केवल उन लोगों को दी जा रही है जो (बीजेपी) उनके लिए पीछे से काम करते हैं.

29 मार्च को केंद्र ने आज़ाद को ‘वाई प्लस’ श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की थी.

हालांकि, आज़ाद ने दिप्रिंट से कहा, “मैं बीजेपी सरकार के साथ-साथ विपक्ष के भी सपनों में आता हूं. यह हमारे आंदोलन का बढ़ता कद है. इसका मतलब यह है कि पिछले कुछ साल में हमने जो संघर्ष किया है, उससे वे डरे हुए हैं. मैं विपक्ष को मजबूत करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उन्होंने मुझे स्वीकार नहीं किया.”

उन्होंने कहा, “हमारे लोगों ने मुझे सुरक्षा देने के लिए बहुत कोशिश की क्योंकि वे जानते हैं कि अगर मुझे कुछ भी हुआ, तो उनके पास कुछ भी नहीं बचेगा. जिस तरह से मेरी हत्या की कोशिश की जा रही है, सरकार ने सोच-समझकर ही सुरक्षा देने का फैसला किया होगा.” आज़ाद पर पिछले साल जून में यूपी के देवबंद में गोली से हमला किया गया था.

Azad Samaj Party chief Chandra Shekhar Azad waves towards his supporters | Krishan Murari | ThePrint
आज़ाद समाज पार्टी के प्रमुख चन्द्रशेखर आज़ाद अपने समर्थकों का अभिवादन जताते हुए | कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

हालांकि, नगीना सीट पर ठाकुर, जाट, ब्राह्मण, कश्यप, बनिया और त्यागी के अलावा सैनी जैसी ओबीसी जातियों की भी अच्छी खासी संख्या है, जिन्हें बीजेपी का वोटर माना जाता है.

6 लाख से अधिक मुस्लिम आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्र में आज़ाद लगातार नगीना की मुस्लिम बस्तियों में रोड शो और डोर-टू-डोर अभियान चला रहे हैं.

लेकिन स्थानीय बसपा नेताओं का कहना है कि भले ही पार्टी पिछले कुछ साल में कमज़ोर हुई है, लेकिन उसने अभी भी अपना समर्थन आधार नहीं खोया है. बसपा के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “मायावती आज भी हमारी पार्टी का बड़ा चेहरा हैं, जिनकी जनता के बीच अच्छी छवि है. आज़ाद भले ही दलितों का नाम लें, लेकिन पूरा दलित समुदाय उनके साथ नहीं जाने वाला है.”

आज़ाद 2017 में तब सुर्खियों में आए जब उस साल सहारनपुर में जाति आधारित हिंसा के सिलसिले में उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया. करीब एक साल तक जेल में रहने के बाद वे रिहा हुए और फिर दलित उत्पीड़न के मुद्दे पर विरोध प्रदर्शनों के जरिए सक्रिय रहे. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के आंकड़ों के मुताबिक, आज़ाद के खिलाफ 36 मामले हैं, जिनमें से तीन मामलों में आरोप तय हो चुके हैं.

दलित चेहरा बनकर जगह बनाना

अपनी रैलियों के दौरान, आज़ाद ने ‘अभी तो ली अंगडाई है, आगे और लड़ाई है’ और ‘जो सरकार निकम्मी है वो सरकार बदलनी है’ जैसे नारे लगाते हैं.

अपने शनिवार के रोड शो के दौरान उन्होंने शेरकोट कस्बे के रहने वाले 57-वर्षीय वाजिद खान से हाथ मिलाया. खान ने दिप्रिंट से कहा, “वे एक दबंग नेता हैं. वे हिंदू और मुसलमानों के बीच भेदभाव नहीं करते. वे सभी के मुद्दे उठाते हैं. वे किसी से नहीं डरते. उन्हें संसद में होना चाहिए. कब तक हम सपा या बसपा की जागीर बने रहेंगे. मुस्लिम नेतृत्व ने हमारा कुछ भला नहीं किया, इसलिए अब हम दलित हिंदुओं के साथ खड़े होकर खुद को बचा सकते हैं.”

Supporters waiting for Chandra Shekhar Azad at Sherkot Chowk | Krishan Murari | ThePrint
शेरकोट चौक पर चन्द्रशेखर आज़ाद का इंतज़ार करते समर्थक | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

हालांकि, आज़ाद की पार्टी के साथ गठबंधन की बात चल रही थी, लेकिन आखिरकार अखिलेश ने नगीना से सपा उम्मीदवार खड़ा कर दिया. पूर्व सीएम से गठबंधन की चर्चा पर आज़ाद ने कहा, “हम बीजेपी को रोकना चाहते थे लेकिन अखिलेश सिर्फ अपनी पार्टी के बारे में सोचते रहे. हमें सिर्फ बीजेपी से ही नहीं बल्कि उन विपक्षी पार्टियों से भी लड़ना है जो बीजेपी से लड़ने की बात करते हैं.”

आज़ाद ने बसपा में शामिल होने की काफी कोशिशें कीं और मायावती की प्रशंसा भी की, लेकिन बाद में उन्होंने इस ओर ध्यान नहीं दिया. 2019 में मायावती ने एक्स पर एक पोस्ट में आज़ाद पर निशाना साधते हुए कहा था, “दलितों का मानना ​​है कि भीम आर्मी का चन्द्रशेखर…बसपा के वोट शेयर को प्रभावित करने की साजिश रच रहा है…वे विरोध करता है और फिर जानबूझकर जेल जाता है.”

दलितों के बीच आज़ाद का बढ़ता कद ज़मीनी स्तर पर बसपा को परेशान कर रहा है. हालांकि, नगीना निर्वाचन क्षेत्र में ही कई स्थानीय बसपा नेता आज़ाद की पार्टी में शामिल हो गए हैं.

(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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