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Tuesday, 24 December, 2024
होममत-विमतक्या BSP का खेल ख़त्म हो गया है? मायावती की सियासत ने फीकी की कांशीराम की विरासत

क्या BSP का खेल ख़त्म हो गया है? मायावती की सियासत ने फीकी की कांशीराम की विरासत

मायावती के नेतृत्व में बीएसपी एक तीन आयामी- भौगोलिक, सामाजिक और राजनीतिक गिरावट के दौर से गुजर रही है.

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बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) का चुनावी प्रदर्शन, 2007 के बाद से निरंतर नीचे आ रहा है. पार्टी एक तीन-आयामी गिरावट के दौर से गुज़र रही है- भौगोलिक, सामाजिक, और राजनीतिक. भौगोलिक रूप से वो उत्तर प्रदेश से बाहर, और प्रदेश के अंदर भी बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में अपना समर्थन खो रही है. सामाजिक पतन का मतलब है कि उसे अपने पारंपरिक सामाजिक आधार का समर्थन भी नहीं मिल रहा है. राजनीतिक पतन से तात्पर्य ये है, कि पार्टी करिश्माई नेताओं को आगे बढ़ाने, या दूसरे संगठनों के दिग्गज नेताओं को अपने साथ जोड़ने में असमर्थ रही है. इसलिए इस पतन के नतीजे में न सिर्फ इसकी सीटों की संख्या कम हुई है, बल्कि आम तथा असेम्बली दोनों चुनावों में, इसके वोट शेयर में भी गिरावट आई है. कुछ राजनीतिक विशेषज्ञ इस मुग़ालते में रहे हैं, कि पार्टी की वापसी हो सकती है, लेकिन 2019 के आम चुनावों के बाद, इसके वरिष्ठ नेताओं का बड़ी संख्या में पार्टी छोड़ना, ऐसी सभी उम्मीदों को ठंडा कर देता है.

लेकिन पार्टी पतन की ओर क्यों जा रही है? मेरे तीन दौर के फील्ड वर्क और बीएसपी के पदाधिकारियों तथा समर्थकों से बातचीत के बाद, मुझे तीन मुख्य कारण नज़र आते हैं.


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नेतृत्व परिवर्तन

पिछले दशक में बीएसपी एक नेतृत्व परिवर्तन से होकर गुज़री है, लेकिन दूसरी पार्टियों के विपरीत ये परिवर्तन सुगम नहीं रहा है. ये बदलाव कभी ठीक से स्थापित ही नहीं हो पाया, जिसके नतीजे में बहुत से वरिष्ठ नेता पार्टी को छोड़कर चले गए. बल्कि ये नेताओं का ये कूच 1986 में ही शुरु हो गया था, जब कांशीराम ने पहली बार पार्टी के भीतर मायावती का दर्जा बढ़ाकर, उन्हें भविष्य की नेता के तौर पर पेश करने की कोशिश की थी. कांशीराम के इस फैसले के विरोध में, बैकवर्ड एंड माइनॉरिटी कम्युनिटीज एंप्लाईज़ फेडरेशन (बामसेफ) के उनके सहयोगियों ने उनका साथ छोड़ दिया था.

1995 के आसपास, पार्टी से दूसरी बार बड़ी संख्या में नेताओं ने पलायन किया, जब सोने लाल पटेल और राम लखन वर्मा जैसे ताकतवर नेताओं ने, जो समाजवादी पृष्ठभूमि से थे पार्टी को छोड़ दिया. यही वो समय था जब मायावती ने उत्तर प्रदेश की सियासत में ख़ुद को स्थापित किया. पार्टी से तीसरी बार नेताओं का पलायन तब हुआ, जब कांशीराम की मौत के बाद मायावती ने, पार्टी का नियंत्रण अपने हाथ में लिया. पार्टी के वित्तीय संसाधनों पर क़ब्ज़ा करने के लिए, कम निष्ठावान समझे जाने वाले नेताओं को पार्टी में किनारा किया जाने लगा था.

समाजवादी पाटी के साथ गठबंधन टूटने के बाद, पार्टी से नेताओं के पलायन का ताज़ा दौर शुरू हो गया है. इस बार मायावती की अपनी ही जाति के नेता पार्टी छोड़ रहे हैं. इसी बीच मायावती ने पार्टी की मशाल अपने भतीजे के हाथ में देने की कोशिश कर रही हैं. कांशीराम के समय में जब बड़ी संख्या में नेता पार्टी छोड़ते थे, तो नए चेहरों को आगे बढ़ाकर पार्टी उसकी भरपाई कर लेती थी. इसलिए नेताओं के इस तरह छोड़कर जाने से, उन्हें कुछ ख़ास नुक़सान नहीं होता था. लेकिन मायावती इस रणनीति को दोहराने में नाकाम रहीं. इसके नतीजे में जिन जातियों और समुदायों (मौर्य, कुशवाहा, निषाद, पासी आदि) के नेताओं ने पार्टी छोड़ी, उनके बीएसपी के प्रति समर्थन में कमी आती गई.


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काडर आधारित पार्टी से संरक्षण आधारित संगठन तक

‘हमारी पार्टी का काडर कैंप बंद कर दिया गया है, इसलिए हमारी पार्टी के पास अच्छे से प्रशिक्षित लोग नहीं हैं, जो नेतृत्व के संदेश सही ढंग से लोगों तक पहुंचा सकें’- चुनावी तौर पर बीएसपी के पतन के कारणों के बारे में, पार्टी पदाधिकारियों और समर्थकों का ये एक आम जवाब रहा है.

दरअसल पहले पार्टी निचले स्तर तक बैठे अपने पदाधिकारियों को प्रशिक्षण दिया करती थी. इसलिए जब कोई सांसद या विधायक पार्टी छोड़ता था, तो अच्छे से काम कर रहे संगठनात्मक ढांचे की बदौलत, पार्टी की संभावनाओं को ज़्यादा नुक़सान नहीं पहुंचता था

लेकिन, 2007 के बाद इस व्यवस्था में दिक़्क़तें आने लगीं, जब पार्टी में ख़ासी बड़ी संख्या में ऊंची जातियों के चुने हुए प्रतिनिधि आने लगे, जिनके अकसर स्थानीय नेतृत्व के साथ मतभेद रहने लगा था. इससे बचने के लिए, मायावती ने निर्देश दिया कि सभी ज़िला और विधान सभा अध्यक्षों की नियुक्ति, पार्टी सांसदों और विधायकों की सहमति की जाए. ये निर्णय घातक साबित हुआ है क्योंकि सांसदों तथा विधायकों ने अपने लोगों को पार्टी पदाधिकारी बनाना शुरू कर दिया. और जब उन नेताओं ने पाला बदला, तो पार्टी की पूरी स्थानीय मशीनरी उनके पीछे चली गई. इसका अंतिम निष्कर्ष आज ये है कि ज़मीनी स्तर पर, पार्टी के संगठनात्मक ढांचे की मौजूदगी बहुत कमज़ोर पड़ गई है.


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‘विपरीत सामाजिक समूहों का गठजोड़’ बनाने की रणनीति 

कांग्रेस पार्टी के सामाजिक आधार की व्याख्या करने के लिए, अमेरिकी राजनीतिक विज्ञानी पॉल आर ब्रास ने, 1980 के दशक में ‘विपरीत सामाजिक समूहों के गठजोड़’ शब्द गढ़े थे. उनका तर्क था कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ‘विपरीत सामाजिक समूहों के गठजोड़’ की वजह से ही बनी रही है. तीन सामाजिक वर्ग- दलित, मुसलमान और ब्राह्मण इस गठबंधन का हिस्सा थे.यह एक विपरीत सामाजिक समूहों का गठजोड़ था, क्योंकि दलित और ब्राह्मण उर्ध्वाधर रूप से, तो मुस्लिम और ब्रह्मण क्षैतिज रूप से दूसरे के विपरीत थे. नब्बे के दसक में इस गठजोड़ के बिखरने के कारण कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता से बाहर हो गयी थी.

2007 विधान सभा चुनावों में जीत के बाद से, मायावती लगातार इस सामाजिक गठबंधन को गले लगाने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन बीजेपी के उदय की वजह से नाकाम रही हैं. बीजेपी के उत्थान ने मुसलमानों के मतदान के व्यवहार को बदल दिया है, जिनके अपने धर्म के उम्मीदवार की बजाय, अब उनके ऐसे उम्मीदवार को चुनने की संभावना रहती है, जो बीजेपी को हराने की क्षमता रखता हो. इसके अलावा, बड़ी संख्या में मुसलमान नेताओं को नामांकित करके, मायावती अभी भी मुस्लिम मतदाताओं को लामबंद करने की कोशिश कर रही हैं.

(अरविंद कुमार यूके की लंदन यूनिवर्सिटी के राजनीति और अंतर्राष्ट्रीय संबंध विभाग, रॉयल हॉलोवे में राजनीति के पीएचडी स्कॉलर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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