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Sunday, 24 November, 2024
होममत-विमतक्या अब भी किसी को शक है कि गांव की अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी?

क्या अब भी किसी को शक है कि गांव की अर्थव्यवस्था नहीं सुधरी?

अरे भाई ! कुछ किसान आत्महत्या जरूर कर रहे हैं यही सही है. लेकिन, यह समझना चाहिए कि यह हत्या खेती के अलाभकारी होने मात्र से है या उसके कारण अन्य भी हैं.

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लोकसभा चुनाव की घोषणा होते ही आरोपों-प्रत्यारोपों का बाजार गर्म है. तरह-तरह के आकड़ें जनता के समक्ष पेश कर ज्यादातर मामलों में जितना कुछ भी बताया जा रहा है, उससे ज्यादा तथ्य छिपाया भी जा रहा है. रक्षा मंत्रालय के दस्तावेजों की चोरी कर के उनमें अपना मतलब साधने वाले तथ्यों को ही बताकर और सुप्रीम कोर्ट में आधी-अधूरी सूचना का गलत हलफनामा दायर कर जनता को गुमराह करने की भरपूर कोशिश की जा रही है. जबकि संचिका के मात्र एक भ्रामक टिप्पणी के ऊपर और नीचे की दूसरी टिप्पणियों को छुपा लिया गया है. यही रोजगार के मामले में हो रहा है.

रोजगार के मामले में एक डाटा पेश किया जा रहा है जो भविष्य निधि खाता के संबंध में है. यह आकड़ा स्थायी नहीं होता है. देश के भविष्य निधि खाता धारकों की संख्या का विभिन्न कारणों से घटते-बढ़ते रहना स्वाभाविक है. जैसे धान की बोआई, गेहूं की कटाई, शादी-ब्याह के लगन में लाखों श्रमिक एक से दो महीने छुट्टी ले कर जब अपने गांव चले जाते हैं और एक-दो महीने उनकी पी.एफ. की योगदान राशि यदि अनुपस्थिति के कारण जमा नहीं होती, तो आंकड़ों की संख्या में कमीवेशी होती रहती है. लेकिन, इन आलोचकों को यह समझ में नहीं आता कि मुद्रा बैंक की योजना से रोजगार के मामलें में कितने लाभार्थी पिछले वर्षों बढ़ गये.


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न केवल सबको रोजगार मिला बल्कि मुद्रा बैंक लाभार्थियों द्वारा ढाई करोड़ से ज्यादा लोगों को रोजगार दिया गया. ये दो-चार की संख्या वाले रोजगार हैं, अतः पी.एफ., ई.एस.आई. के आकड़ों में कहां से आयेंगे, जिनके लिए किसी भी बिज़नेस में कम से कम बीस कर्मचारी होना जरूरी है. इसी प्रकार, यदि प्रतिदिन 3 से 4 किलोमीटर सड़क बनने की जगह 22 से 24 किलोमीटर सड़क प्रतिदिन एनडीए सरकार के दौरान बनना शुरू हो गये तो यहां भी रोजगारों की संख्या की बढ़ोतरी लाखों में हुई है.

अगर लाखों की संख्या में पिछले चार-पांच वर्षों में कमर्शियल गाड़ियां बिकी तो उतनी ही संख्या में ड्राइवरों और खलासियों को रोजगार मिला होगा. बसों में कंडक्टर बहाल हुए होंगे. लेकिन, जब इन तथ्यों को माना नहीं जायेगा तो इसे तो भोजपुरी में ‘गलथेथरई’ ही कहा जायेगा है. अब आते हैं मुख्य विषय पर. मोदी सरकार के आलोचकों द्वारा यह धडल्ले से कहा जाता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि का बुरा हाल हो गया है. खेती से किसानों को लाभ नहीं मिल रहा है. किसान भूखों मर रहे हैं. किसान आत्महत्या कर रहे हैं.

अरे भाई ! कुछ किसान आत्महत्या जरूर कर रहे हैं यही सही है. लेकिन, यह समझना चाहिए कि यह हत्या खेती के अलाभकारी होने मात्र से है या उसके कारण अन्य भी हैं. जैसे कि ज्यादातर आत्महत्याएं पारिवारिक कलह, बच्चों की प्रेम प्रसंग के नापसंदगी के कारण, लोकलाज के डर से और जानलेवा बीमारियों से ग्रसित हो जाने के कारण डिप्रेशन से भी होती है.

अतः किसी ने फांसी लगा लिया तो उसको ‘किसान आत्महत्या’ घोषित कर देना इसी प्रकार गलत हो जायेगा जिस प्रकार देश के किसी भी आईआईटी का कोई मेधावी छात्र यदि अपने कमरे में पंखे से लटककर हत्या कर लेता है तो उसे ‘रैगिंग’ का शिकार ठहरा दिया जाता है. आत्महत्या अकेलेपन, माता-पिता की आर्थिक तंगी, नशे की लत पढ़ाई के बोझ के कारण, असफल प्रेम प्रसंग या रैगिंग के कारण भी होता है. इसकी जांच कराये बिना किसी निष्कर्ष पर पहुंचना तो गलत ही होगा.

किसी भी देश की ग्रामीण या शहरी व्यवस्था या किसी भी वर्ग विशेष की अर्थव्यवस्था का सटीक पैमाना होता कि वहां के समाज ने कितनी बचत की. शहरों में बचत का पैमाना बैंकों में जमा बचत से हो सकता है. लेकिन, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में ग्रामीण बचत का पैमाना मुख्य रूप से डाकघर के खाताओं में इनकी बचत से ही माना जाता रहा है। इसमें अब जनधन खाताओं में हुई बचत को भी जोड़ देना चाहिए. अब यदि हम 2014-2015 वित्तीय वर्ष से लेकर 2018-2019 के वित्तीय वर्ष तक के बचत के आकड़ों को लें तो कुल डाकघरों के बचत खातों में 31 जनवरी 2019 तक 8176.11 करोड़ रूपये जमा कराये गये.


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यह बैंक खातों और जनधन खातों में जमा राशियों से अलग है. वर्ष 2018-2019 के लिए वित्त मंत्रालय के अन्तर्गत कार्यरत आर्थिक मामलों के विभाग ने डाक विभाग को भारतीय डाक घरों में खोले गये बैंक खातों में 8176.11 करोड़ रूपये का लक्ष्य निर्धारित किया था. जब 31 जनवरी तक 10 महीने की समीक्षा की गई और पाया गया कि 10 महीनों में ही यानि दिसम्बर के अंत तक 99.28 प्रतिशत का लक्ष्य प्राप्त किया जा चुका है तब संशोधित प्राक्कलन में यह राशि बढाकर 8176.11 करोड से 9211.12 करोड कर दी गई. मेरी डाक विभाग के बैंकिंग पमुख से बात हुई. वे आश्वस्त हैं कि बचत की गति को देखते हुए डाक विभाग द्वारा 31 मार्च 2019 तक इस लक्ष्य को भी पूरा कर लिया जायेगा.

अब यदि मोदी सरकार के दौरान जीरो बैलेंस की आकर्षक शर्त पर शुरू की गई जनधन योजना के रिजल्ट देखें तो वह चमत्कारिक हैं. मजे के बात यह है कि इस जनधन योजना के तमाम खाताधारी गरीब किसान और भूमिहीन मजदूर और महिलाएं ही हैं. अब जरा मनमोहन सिंह सरकार के 10 साल के आकड़ों को भी देख लें. 10 साल तक दो बार प्रधानमंत्री रहने के बाद महान अर्थशास्त्री डॉ मनमोहन सिंह ने जब सत्ता की कुर्सी मोदी जी के हाथ सौपी थी, तब वित्तीय वर्ष 2013- 14 में 31 मार्च 2014 तक डाकघर के बचत खातों में सरकारी आकड़ों में मात्र 5915.27 करोड़ जमा था. उस समय जनधन खाते की कल्पना तक नहीं थी.

अतः महान अर्थशास्त्री डॉ. मनमोहन सिंह के समय की ग्रामीण अर्थव्यवस्था मात्र 5915.27 करोड़ रूपये थी, जो गरीब चायवाले के बेटे और ग्रामीण परिवेश में पले-बढ़े प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक लाख करोड़ के ऊपर लाकर खड़ी कर दी.
6 मार्च 2019 तक 34.87 करोड़ जनधन खाते खोले गए जिनमें 18.53 करोड़ मात्र महिलाएं हैं. इन जनधन खतों में 6 मार्च 2019 तक 93,567 करोड़ रूपये जमा थे. अब यदि इनमें डाक घरों में जमा होने वाले 9 करोड़ रूपये को भी जोड़ दिया जाये तो 31 मार्च तक यह लगभग एक लाख दो हजार करोड़ की राशि गरीब मजदूर वर्ष के अंत तक बचत कर चुके होंगें. क्या यह एक लाख दो हजार करोड़ से ज्यादा की बचत ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मजबूती का सबूत पेश नहीं कर रही है?

(लेखक राज्य सभा सांसद हैं )

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