ईरान-इजरायल युद्ध और इसमें अमेरिका के कूद पड़ने ने पश्चिम एशिया को बुरी तरह परेशानी में डाल दिया. बढ़ते तनाव के साथ दुनिया भर के बाज़ारों में गिरावट आने लगी, खासकर होर्मुज़ जलडमरूमध्य को अंतरराष्ट्रीय जहाजों के लिए बंद करने की ईरानी धमकी की वजह से. लेकिन ईरान और इजरायल ने अमेरिकी मध्यस्थता के बाद 24 जून को युद्धविराम को स्वीकार कर लिया. वे घरेलू जनता की शिथिलता, सेना की थकान और अंतरराष्ट्रीय दबाव के आगे झुक गए. ईरान के परमाणु केंद्रों पर अमेरिकी हमलों ने इस प्रक्रिया को बढ़ाने का काम भी किया और ये बातचीत का बहाना भी बने. इस तरह एक अस्थायी शांति बहाल हुई. अब देखना यह है कि यह युद्धविराम घरेलू मजबूरियों और दोनों पक्ष की थकान के मद्देनजर किया गया एक सुविधाजनक उपाय है या स्थायी शांति की ओर बढ़ाया गया एक कदम.
बमबारियों ने ईरान के महत्वपूर्ण इन्फ्रास्ट्रक्चर को नष्ट कर दिया, कई नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया, और पहले ही प्रतिबंधों से परेशान उसकी अर्थव्यवस्था पर बोझ और बढ़ा दिया. हालांकि ईरान ने चतुराई के साथ यह कबूल किया कि उसके परमाणु कार्यक्रम को भारी नुकसान पहुंचा है, जैसा कि अमेरिका का भी दावा है, लेकिन हमले के बाद किए गए विस्तृत आकलन यही संकेत देते हैं कि उसे थोड़ा ही नुकसान हुआ है जिसकी वजह से उसकी प्रगति की रफ्तार सिर्फ कुछ महीने पीछे चली गई है.
ईरान को घरेलू मोर्चे पर आर्थिक झटकों और बढ़ती गरीबी का सामना करना पड़ रहा है. मौजूदा हुकूमत ने अपनी गद्दी बचाने की कोशिश में जनता का दमन बढ़ा दिया है. ईरानी अधिकारी कथित बागियों के समर्थकों को जेल में बंद कर रहे हैं और असहमति की आवाज को दबा रहे हैं. इन उपायों से साफ है कि मौजूदा हुकूमत भारी दबाव के अंदर अपनी वैधता और अपना वर्चस्व बनाए रखने की जद्दोजहद में जुटी है.
ईरान-इजरायल पर प्रभाव
ईरानी आबादी का एक हिस्सा अमेरिका और इजरायल के इन साम्राज्यवादी कार्रवाइयों को अपनी संप्रभुता का अपमान मानता है, जिससे उसका राष्ट्रवादी जज्बा उभरता है. हुकूमत में बदलाव की आशंका ईरानी जनता को और ज्यादा डरावनी लगती है. वे देख चुके हैं कि लीबिया और इराक में सत्ता परिवर्तन के कारण कितनी अराजकता पैदा हुई और गृहयुद्ध तक की नौबत आ गई थी.
जहां तक इजरायल की बात है, शुरुआती हमलों के बाद वहां के लोगों की भावना बदलने लगी. प्रधानमंत्री नेतन्याहू और फौजी हुक्मरानों ने रणनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने का दावा करने के साथ सफलता की घोषणा तो की मगर खासकर गज़ा में लड़ाई बंद होने की कोई उम्मीद न नजर आने के कारण जनता और राजनीतिक हलक़ों में युद्ध को लेकर शिथिलता बढ़ रही है.
इजरायल को सैन्य कार्रवाइयों की सीमाओं का एहसास हो गया है. जून में जो हमले किए गए उनका मकसद ईरान की परमाणु एवं बैलिस्टिक क्षमताओं को नष्ट करना नहीं बल्कि कमजोर करना था. उसका आकलन है कि उसने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को दो से चार वर्ष तक पीछे धकेलकर अपने लिए समय हासिल कर लिया है. लगभग यही आकलन अमेरिका का भी है. इसके अलावा, अमेरिकी समर्थन पर निर्भरता इस तरह भी जाहिर हुई कि अमेरिका ने इजरायल के शुरुआती हमलों का समर्थन करने के बाद संयम बरतने पर ज़ोर देना शुरू कर दिया और रणनीतिक विकल्पों के बारे में इजरायल के फैसले को करना शुरू कर दिया.
ग़ाज़ा में लंबे खिंचते युद्ध को लेकर सुलगते असंतोष और घरेलू दबाव के कारण इजरायली नेतृत्व को ईरान के साथ टकराव को लंबा खींचने के राजनीतिक और आर्थिक जोखिमों का एहसास हुआ. फिलहाल जो हालात हैं उनके कारण ईरान इजरायल के वजूद के लिए खतरा बना हुआ है. इसलिए भविष्य में भी सैन्य कार्रवाई या टकराव की आशंका को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता.
दूसरे दावेदारों की भूमिका
अंतरराष्ट्रीय दबाव और जमीनी सियासत ने भी अपनी भूमिका अदा की है. अमेरिकी हमलों ने जबकि मजबूत खौफ किया, सैन्य कार्रवाई का इस्तेमाल शांति कायम करने, व्यापक और लंबे संघर्ष को टालने के लिए किया गया. अमेरिका ने जिन ‘मैसिव ऑर्ड्नांस पेनीट्रेटर्स’ (30,000 पाउंड के बंकर-तोड़ बमों) का इस्तेमाल किया उन्होंने ईरान के परमाणु ठिकानों को थोड़ा ही नुकसान पहुंचाया, उन्हें नेस्तनाबूद नहीं किया.
सऊदी अरब, यूएई, बहरीन जैसे क्षेत्रीय दावेदारों ने शुरू में तो ईरान के साथ मिलकर मुक़ाबला किया लेकिन इस संघर्ष के क्षेत्रीय प्रभावों और ऊर्जा की सप्लाई में खलल के डर से अंततः उन्होंने युद्धविराम का समर्थन कर दिया.
‘जी-7’ ने इन चिंताओं को जाहिर किया और युद्धविराम के साथ-साथ ईरान से परमाण्विक मुद्दे पर बातचीत करने की अपील की. दूसरे यूरोपीय देशों और संयुक्त राष्ट्रसंघ ने युद्ध को ज्यादा तेज न करने की चेतावनी दी और परमाणु ठिकानों पर बिना वैध कारण के बमबारी करने के एकतरफा फैसले की आलोचना की.
तेल के ग्लोबल बाजार में भारी उथलपुथल हुई और ऊर्जा सुरक्षा को लेकर चिंताएं युद्ध को कमजोर करने का बहाना बनीं. चीन और रूस तटस्थ बने रहे और युद्धविराम तथा कूटनीतिक पहल की मांगों के सुर में सुर मिलाने लगे. इस तरह, ईरान या इजरायल में से किसी के प्रति अंतरराष्ट्रीय समर्थन के अभाव ने दोनों देशों को युद्ध को विराम देकर अपने-अपने मजबूत पूर्वाग्रहों और वैकल्पिक उपायों पर पुनर्विचार करने का दबाव बढ़ाया.
अस्थायी शांति
इस तरह, ईरान और इजरायल के बीच युद्धविराम सैन्य थकान, घरेलू तनाव, और अंतरराष्ट्रीय दबाव के मिले-जुले असर के नतीजे के रूप में सामने आया. लेकिन यह युद्धविराम अस्थायी है. नुकसान का अभी अधूरा आकलन ही हुआ है, और ईरान अपने परमाणु इन्फ्रास्ट्रक्चर को निश्चित ही फिर से खड़ा करेगा.
ईरान की परमाणु व्यवस्थाओं पर हमलों ने परमाणु अप्रसार संधि (एनपीटी) की भेदभावपूर्ण स्वरूप को उजागर कर दिया है और इसने ईरान को अपनी परमाण्विक महत्वाकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के संकल्प को शायद और मजबूत ही किया है. इजरायल ने ईरान द्वारा किए गए हमलों के कारण हुए नुक़सानों को अपने यहां सख्त सेंसरशिप के बूते उजागर होने से रोक लिया है. लेकिन इजरायल के तेल अवीव और हाइफ़ा शहरों पर हुई बमबारियों के कारण ध्वस्त हुई इमारतों और जान-माल की क्षति के कुछ चित्र सामने आए हैं. ये तस्वीरें यही साबित करती हैं कि बहुचर्चित लौह गुंबद अजेय नहीं है, उसमें दरार भी पैदा किया जा सकता है. इजरायल जैसे छोटे-से देश के लिए एक चोट भी कई चोटों के बराबर हो सकती है और हमले झेलने की स्थिति ने उसे ईरान पर बमबारियां करने के फैसले तक पहुंचाया होगा.
बहरहाल, दोनों देशों के पास अभी भी इतनी सैन्य ताकत है कि उन्हें फौरी जरूरत पड़ने पर तुरंत आजमाया जा सकता है. इसलिए युद्धविराम के छोटे-छोटे उल्लंघनों की संभावनाओं को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता. इसलिए, इस अस्थायी शांति को स्थायी बनाने और दोनों के लिए जीत के दावे करने वाली स्थिति लाने के लिए बड़बोली अंधी राष्ट्रीयता की जगह समझदारी भरी राजनीति की जरूरत होगी. सत्ता परिवर्तन कोई समाधान नहीं है.
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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