ईरान और इराक के बीच ताज़ा मुकाबले की खासियत यह थी कि टक्कर दूर से से ही ली जा रही थी. गोला-बारूद के मामले में अपनी-अपनी ताकत की आजमाइश हवा में या ज़मीन पर बनाए अड्डों से ड्रोन और मिसाइलों से हमलों के जरिए की जा रही थी. इस बार फर्क यह था कि दोनों देशों ने अपनी-अपनी फौजी ताकत दुश्मन की सीमा के अंदर जाकर आज़माने की कोशिश की. टकराव का ताज़ा कारण दमिश्क में ईरान के वाणिज्य दूतावास पर एक अप्रैल को इज़रायली हमला बना. ईरान ने अंतर्राष्ट्रीय नियमों और समझौतों के मुताबिक इसे अपनी संप्रभुता पर हमला माना.
ईरान ने इसके जवाब में 13 अप्रैल को 300 ड्रोन, क्रूज़ और बैलिस्टिक मिसाइलों से हमला बोल दिया. इज़रायल का दावा है कि इनमें से 99 फीसदी हथियारों को पहले ही नाकाम कर दिया गया और उसे शायद ही कोई नुकसान पहुंचा.
इसके कुछ घंटे बाद, संयुक्त राहटर में ईरान के मिशन ने एक्स पर बयान जारी किया कि “मामले को समाप्त माना जा सकता है.” ज़ाहिर है, ईरान हमलों और जवाबी हमलों के इस सिलसिले को खत्म करना चाहता था.
19 अप्रैल को इस्फहान में विस्फोटों की खबर आई. कई लोगों का मानना है कि यह 13 अप्रैल को हुए ईरानी हमले का यह इज़रायल की ओर से जवाब था. इज़रायल ने इन हमलों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं ली, लेकिन इटली के विदेश मंत्री एंटोनिओ ताजानी ने कहा कि अमेरिका ने जी-7 के विदेश मंत्रियों को बताया है कि इज़रायल ने उसे “अंतिम क्षण में जानकारी दी” कि वो ईरान पर हमला करने जा रहा है.
यह भी पढ़ें: परमाणु हथियारों में ‘MIRV टेक’ का प्रवेश, लेकिन भारत परमाणु हमले की पहल न करने की नीति पर रहे कायम
कोई मनमानी नहीं चलेगी
ईरान के विदेश मंत्री हुसैन आमिर-अब्दुल्लाहियां के एक बयान ने इस्फहान में धमाकों को मामूली बताया. हुसैन ने कहा कि ड्रोन ईरान के अंदर से ही उड़े थे और कुछ सौ मीटर के बाद ही उन्हें मार गिराया गया, यह साबित नहीं किया गया है कि उनका इज़रायल से कोई संबंध था. ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हुसैन ने चेतावनी दी कि अगर “इज़रायल ने ईरान के हितों के खिलाफ कार्रवाई की या जवाबी हमला किया तो तेहरान फौरन जवाब देगा और सबसे जोरदार जवाब देगा. अगर नहीं, तो हमारा काम खत्म हुआ.”
इस्फहान में हमलों को लेकर इज़रायल की चुप्पी और ईरान के विदेश मंत्री के बयानों से साफ है कि कोई भी पक्ष हालात को बिगाड़ना नहीं चाहता. दोनों पक्षों के इस रुख का कारण शायद वैश्विक भू-राजनीतिक नक्शे में पश्चिम एशिया की रणनीतिक स्थिति के राजनीतिक तथा सामरिक संदर्भ में छिपा है. इन दोनों संदर्भों में इजरायल और ईरान दोनों को इस टकराव में मनमानी कार्रवाई करने की छूट नहीं है. पहले मैं यह बताने की कोशिश करूंगा कि इस ‘मनमानी’ का प्रुशिया के पुराने जनरल और सामरिक सिद्धांतकार कार्ल वोन क्लाउज़विज़ (1780-1831) के नजरिए से क्या मतलब हो सकता है.
क्लाउज़विज़ की किताब ‘ऑन वार’ को ऐसा ग्रंथ माना जाता है जिसकी मूल अवधारणाएं आज भी प्रासंगिक हैं. उन्होंने लिखा है : “युद्ध दुश्मन को हमारी मर्जी के मुताबिक चलने के लिए मजबूर करने का बल प्रयोग का एक तरीका है.” लेकिन, प्रायः उद्धृत किए जाने वाले इस बयान के साथ क्लाउज़विज़ ने यह भी जोड़ा है : “मर्जी संप्रभु नहीं हो सकती”. कोई भी पूरा नियंत्रण नहीं रख सकता, दुश्मन की मनमर्जी हो सकती है और वह भी दांव पर लगे मुद्दे तय कर सकता है. युद्ध में कोई भी पक्ष कार्रवाई या फैसला अपनी स्वायत्तता और ज़िम्मेदारी के हिसाब से करता है, जिन्हें उनके संभावित नतीजों को ध्यान में रखकर किया जाता है.
ईरान और इज़रायल, दोनों के मामले में मनमर्जी का फैसला करने की गुंजाइश राजनीतिक तथा सामरिक शक्तियों की दखल के कारण सीमित है.
राजनीतिक संदर्भ
गाज़ा में इज़रायल का युद्ध और उसे अमेरिकी समर्थन की जड़ें राजनीति में हैं, लेकिन इज़रायल की मनमर्जी अमेरिकी समर्थन पर निर्भरता के कारण सीमित हो जाती है. अमेरिका सऊदी अरब, यूएई और जॉर्डन को ईरान के खिलाफ संयुक्त मोर्चा बनाने के लिए तैयार कर रहा है, लेकिन ऐसा वो सिर्फ इज़रायल को अपना समर्थन देने के कारण नहीं कर रहा है. चीन और रूस के साथ ईरान के संबंधों के कारण अमेरिका वैश्विक भू-राजनीतिक क्षेत्र में ईरान को अपने लिए अहम खतरे के रूप में देखता है. ईरान को अलग-थलग करने के अमेरिकी प्रयासों के लिए गाज़ा युद्ध और ईरान-इज़रायल युद्ध, दोनों ही प्रतिकूलता पैदा कर सकते हैं.
अमेरिका-इज़रायल संबंध बेशक अमेरिका की घरेलू राजनीति पर यहूदी लॉबी के दबदबे से प्रभावित हैं. इस वजह से इज़रायल को अपनी मर्जी से कदम उठाने की हिम्मत हो जाती है, जैसा उसने गाज़ा में उठाया.
लेकिन ईरान के मामले में राजनीतिक और रणनीतिक स्थितियां भिन्न हैं और उनके शायद दूरगामी नतीजे हो सकते हैं जो इज़रायल को आगे चलकर बड़ा खतरा पहुंचा सकते हैं.
पश्चिमी देशों की ओर से लागू आर्थिक प्रतिबंधों को लंबे समय से झेल रहे ईरान के लिए खतरा यह है कि पश्चिम एशिया में युद्ध भड़कने से अमेरिका और उसके सहयोगी देश इज़रायल के पक्ष में सामने आ जाएंगे और उसने सीरिया और इराक में हमास, हिज्बुल्लाह, हाउदी, और ऐसे कई और जो अपने भाड़े के गुटों को खड़ा करके जो बढ़त हासिल की है वो कमज़ोर पड़ जाएगी. ईरान चाहेगा कि हमास युद्ध का इज़रायल ने जिस तरह निबटारा किया है उसके कारण अमेरिका-इज़रायल-अरब मुल्कों के बीच सुलह न होने पाए.
यूक्रेन युद्ध और पश्चिम एशिया में उथल-पुथल अमेरिका को चीन से, जिसे उसका प्रमुख दीर्घकालिक खतरा माना जाता है, निबटने के अपने प्रयासों से ध्यान हटा सकते हैं.
ये राजनीतिक संदर्भ विभिन्न पक्षों के रुख तय कर रहे हैं, लेकिन उनके रुख सामरिक संदर्भ से भी प्रभावित हो रहे हैं. ईरान ने दिखा दिया है कि वह इज़रायल के खिलाफ अपनी कितनी फौजी ताकत का इस्तेमाल कर सकता है. हालांकि, इज़रायल को सामान्यतः बेहतर फौजी ताकत वाला और बेहतर रूप से तैयार माना जाता है.
यह भी पढ़ें: मोदी और 600 वकील न्यायपालिका की ‘रक्षा’ के लिए एकजुट, लेकिन धमकी कौन दे रहा है? ज़रा गौर कीजिए
सैन्य संदर्भ
ईरान और इज़रायल आपस में सटे पड़ोसी देश नहीं हैं, लेकिन ईरान बाब अल-मंदेब जलडमरूमध्य और होर्मुज़ जलडमरूमध्य में अपने भाड़े के गुटों का इस्तेमाल करके इज़रायल के व्यापार को नुकसान पहुंचा सकता है. इस तरह की कार्रवाई लगभग सभी देशों को प्रभावित कर सकती है. वैश्विक व्यापार पर असर फौजी संघर्षों के प्रतिकूल आर्थिक परिणाम को दर्शाता है.
ईरान-इज़रायल सैन्य टक्कर के मुख्य स्वरूप अब उन रेखाओं से खींचे जा रह हैं जो 13 अप्रैल के हमले से उभरी हैं. हवाई रास्ते से रणनीतिक संचार की अपनी क्षमता का ईरान ने जो प्रदर्शन करनी चाहा वह स्पष्ट था. उसने हमले से पहले कुछ चेतावनी दी और जब हमला बेअसर रहा तो उसने तुरंत कह दिया कि “मामले को निबटा दिया गया” समझा जाए.
उसने अपनी जिस मुख्य क्षमता का प्रदर्शन किया, वह था हवाई मार्ग से इज़रायल तक अपनी पहुंच बनाने का. ज्यादा अहम बात यह है कि यह देसी क्षमता है जो पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों के बावजूद हासिल की गई है. प्रति ‘हथियार’ के असर का हिसाब लगाया जाए तो यह छोटा ही निकलेगा, लेकिन बड़ी संख्या में उन्हें एक साथ इस्तेमाल किया जाए तो उसका सामरिक असर हो सकता है और सामरिक मामलों में इस चलन को ज्यादा मान्यता मिल रही है. अगर इज़रायल को इस क्षमता का मुकाबला करना है, तो उसे अंततः ईरान में उस इन्फ्रास्ट्रक्चर पर हमला करना पड़ेगा जहां ऐसी क्षमता का विकास और उसकी तैनाती की जा रही है. तब यह एक बड़े युद्ध में बदल सकता है, जो कोई नहीं चाहता.
इज़रायल की घरेलू राजनीति की पेचीदगियों और नेतनयाहू के राजनीतिक अस्तित्व के मसले की अनदेखी न करते हुए ईरान के संकेत पर गौर किया जा सकता है. इसका असर गाज़ा में इज़रायल के भावी कदमों, ईरान के खिलाफ उसके कदमों और पश्चिम एशिया में तनावों से निबटने की उसकी कोशिशों में परिलक्षित हो सकता है.
जैसा कि क्लाउज़विज़ ने करीब 200 साल पहले लिख दिया था, आपस में जुड़े मुल्कों वाली दिनीय में युद्ध में मनमर्जी निश्चित रूप से संप्रभु नहीं हो सकती.
अपने यहां भी, उम्मीद की जानी चाहिए कि भारत और पाकिस्तान अपने ऐतिहासिक अनुभवों से विरासत में हासिल वास्तविकता को कबूल कर चुके होंगे.
(लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ.) प्रकाश मेनन (रिटायर) तक्षशिला संस्थान में सामरिक अध्ययन कार्यक्रम के निदेशक; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. उनका एक्स हैंडल @prakashmenon51 है. व्यक्त विचार निजी हैं.)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
यह भी पढ़ें: सेना से रिटायर होने के बाद किसी सियासी दल में शामिल होना सेना का राजनीतिकरण नहीं बल्कि गर्व की बात