कंपनियों के खाते या तो घाटा दिखा रहे हैं या लाभ. वे ‘ग्रीन’ हो रही हैं यानी पर्यावरण का ख्याल रखने लगी हैं ताकि उनकी गतिविधियों से पर्यावरण पर पड़ने वाले असर का पता लगाया जा सके. नेपथ्य की कहानी यह है कि वास्तविक निवेशकों के एक समूह ने इस सप्ताह चार बड़ी एकाउंटिंग फर्मों को, जो ग्लोबल कॉरपोरेट ऑडिट वर्क में छायी हुई हैं, चेतवानी दी कि या तो इस मामले में अपना कारोबार ठीक करो या निवेशकों की सक्रियता का सामना करो, जो आपको उन कंपनियों की ऑडिटिंग करने से रोकेंगे जिनमें वे निवेश करते हैं.
इस बीच, कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी के पार्थ दासगुप्ता सरीखे अर्थशास्त्री ने जीडीपी पर नज़र रखने वाले नेशनल एकाउंट्स को उस आर्थिक गतिविधि से जोड़ने में सफलता पाई है जिससे पृथ्वी की प्राकृतिक पूंजी को, जो टिकाऊपन के सवाल से जुड़ा है, नुकसान पहुंचता है. डॉ. दासगुप्ता ने ब्रिटेन के सरकारी खजाने के लिए जैव-विविधता की फरवरी में एक ‘समीक्षा’ की. उन्होंने कहा कि पृथ्वी की करीब 40 फीसदी प्राकृतिक पूंजी (जंगल, नदियां आदि) 1992 से 2014 के बीच मनुष्य की गतिविधियों के कारण नष्ट हुईं, और यह कि फिलहाल आर्थिक उपभोग का जो स्तर और स्वरूप है उसे जारी रखने के लिए 1.6 गुना पृथ्वी और चाहिए. भारत में रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर ऊर्जित पटेल ने पर्यावरण संबंधी मसलों और केंद्रीय बैंक के कदमों में तालमेल जरूरी है.
बड़े ग्लोबल निवेशक एकजुट होकर कह रहे हैं कि वे उन कंपनियों में निवेश करना बंद कर देंगे, जो कंपनियां ईएसजी (पर्यावरण, समाज और शासन) के मानदंडों का पालन नहीं करतीं पिछले सप्ताह संस्थागत निवेशकों ने जिनके पास दुनिया की पूंजी का 40 फीसदी हिस्सा (यानी 130 ट्रिलियन डॉलर है) है, उन्होंने ग्लासगों में हुए पर्यावरण सम्मेलन के दौरान संकल्प लिया कि वे जलवायु परिवर्तन को रोकने, जीवाश्म ईंधन को अलग करने के काम को अहमियत देंगे.
गंभीरता से ऐसे वादे करते हुए सावधानी बरतनी चाहिए. पर्यावरण का हिसाब रखना उर ईएसजी में निवेश की पहल कुछ समय से की जा रही है. लेकिन इसमें प्रगति थोड़ी ही हुई है. इसकी कुछ वजह तो यह है कि कंपनियों में इस तरह का हिसाब रखने का कोई एक समान मानक नहीं है, और क्योंकि मुख्यधारा के अर्थशास्त्रियों ने इस मसले की अनदेखी की है. लेकिन दोनों में परिवर्तन आ रहा है.
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इसलिए, इन प्रयासों को कार्बन उत्सर्जन के कारण औसत ग्लोबल तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि को रोकने की सार्थक पहल करने में सरकार की अब तक की विफलता के संदर्भ में देखा जा सकता है. तीन साल पहले अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार जीतने वाले विलियम नोरधौस ने अहम निष्कर्ष निकाला है कि पिछले 30 साल में पर्यावरण को लेकर हुए तमाम ग्लोबल सम्मेलनों के बावजूद जीडीपी के प्रति यूनिट पर कार्बन उत्सर्जन में गिरावट की दर 1.8 प्रतिशत पर ही स्थिर रही है. यानी वे सम्मेलन न भी की जाते तो कोई फर्क नहीं पड़ता.
दूसरे आंकड़े भी बताते हैं कि सरकारें विफल होती रहेंगी. उदाहरण के लिए, 2019 में विश्व बैंक ने कार्बन की औसत अनुमानित कीमत (कार्बन टैक्स) 2 डॉलर प्रति टन लगाई थी. डॉ। नोरधौस का अनुमान है कि अगर कीमात 50 डॉलर भी होती (इससे उनके मुताबिक कोयले से मिलने वाली बिजली दोगुनी महंगी हो जाएगी) तो कोई चमत्कार नहीं हो जाता. और अलबत्ता समान टैक्स से जलवायु के मामले में न्याय नहीं होता. सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकोनॉमिक प्रोग्रेस के लिए एक विस्तृत पर्चा तैयार करने वाले मोंटेक सिंह अहलूवालिया तथा उत्कर्ष पटेल आइएमएफ से अलग कीमत व्यवस्था का उल्लेख करते हैं—भारत के ऊपर 25 डॉलर की दर से कार्बन टैक्स, जो सबसे अमीर देशों के ऊपर इस टैक्स के एक तिहाई का बराबर होगा. इसका भी अर्थ यह होगा कि कोयले से मिलने वाली बिजली की लागत 27 से 43 फीसदी के बीच बढ़ जाएगी. चूंकि भारत में बिजली पर पहले से सबसीडी दी जा रही है, इसलिए इस तरह की कीमतों में वृद्धि का सवाल ही नहीं उठता.
इस चुनौतीपूर्ण परिस्थिति में सवाल यह उभरता है कि नयी वित्तीय तथा लेखा प्रक्रियाओं के समर्थन से क्या निवेशक की सक्रियता सरकारी प्रयासों के मुक़ाबले बेहतर नतीजे दे पाएगी? खासकर जलवायु परिवर्तन से मिले अनुभव, और इसके तीखे प्रभावों के बारे में जागरूकता खासकर अमीरों में बढ़ी है. अगर आपको दर है कि आपका घर जंगल में लगी आग में जल जाएगा, तब आप आप शायद ईएसजी फंड में अपना पैसा रखने को राजी होंगे. और अगर आपका ताप बिजली संयंत्र पर्याप्त पूंजी आकर्षित नहीं कर पाता, तो आप इसका विचार ही शायद छोड़ दें. इसलिए, निवेशकों के कदम, और ऑडिटर तथा अर्थशास्त्रियों द्वारा एकाउंटिंग के नये तरीके के बारे में हम जो कुछ जानते हैं वे मार्जिन के मामले में निर्णायक फल दे सकते हैं और इसे प्लान बी कह सकते हैं. कोई प्लान ‘सी’ नहीं है.
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