scorecardresearch
Friday, 20 December, 2024
होममत-विमतउसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़, हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा

उसी का शहर वही मुद्दई वही मुंसिफ़, हमें यक़ीं था हमारा क़ुसूर निकलेगा

शायर अमीर कजलबाश को ये लिखते समय अंदाजा नहीं रहा होगा की ये शेर आगे जाकर भारतीय न्यायपालिका की दास्तां बयां करेगा. सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस पर लगे विवादों को सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह हल किया, उसने एक बड़े विवाद को जन्म दिया है.

Text Size:

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पर सेक्सुअल हैरसमेंट के आरोप लगने से लेकर क्लीन चिट मिलने तक के घटनाक्रम ने मुल्क की सबसे बड़ी अदालत के अंदर दबी हुई परतों को खोलना शुरू कर दिया है. ये अच्छा भी है और बुरा भी कि न्यायपालिका के बारे में हम इनमें से ज्यादातर बातें इसलिए जान गए हैं क्योंकि जजों और न्यायिक संस्थाओं ने ही समय समय पर ये जानकारियां दी हैं.

थोड़ा पीछे चलते हैं, जब 12 जनवरी, 2018 को चार जजों ने लोकतंत्र की दुहाई देते हुए एक प्रेस कॉन्फ्रेंस की, जिसे मीडिया और समाज के कुछ अति उत्साही लोगों ने क्रान्तिकारी बताना शुरू कर दिया. हालांकि जो लोग इतिहास के विद्यार्थी रहे हैं और क्रान्ति का मतलब जानते हैं उन्हें शायद ऐसा न लगा हो. ऐसी संभवानाएं बेहद कम ही होती हैं जब न्यायपालिका का चरित्र राज्य के चरित्र से भिन्न हो. हां सत्ता के आंतरिक बंटवारे और खींचतान के लिये छटपटाहट जब बाहर आ जाती है तो लोग उसे क्रांतिकारिता समझने लगते हैं.


यह भी पढ़ेंः रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला सुनवाई से पीछे हटी


प्रतिनिधित्व का सवाल उठाने वाले भारत की उच्च न्यायपालिका को एक एलीट क्लब की संज्ञा देते हैं, ऐसा कहने के पीछे तर्क दिया जाता है कि मुल्क की बहुतायत और शोषित आबादी (दलित, पिछड़ा, आदिवासी, अल्पसंख्यक और महिलाओं) का यहां जज के तौर पर घुस पाना लगभग असंभव रहा है.

बहरहाल 12 जनवरी की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस से ज़्यादा कुछ तो नहीं पर सुप्रीम कोर्ट का आंतरिक विवाद बाहर ज़रूर आ गया था. इस कॉन्फ्रेंस का ज़िक्र यहां करना इसलिये ज़रूरी है क्योंकि कॉन्फ्रेंस करने वाले चार जजों में से ही एक जस्टिस रंजन गोगोई आज देश के मुख्य न्यायाधीश हैं. कॉन्फ्रेंस करने के तमाम कारणों में एक ये बताया गया कि तत्कालीन चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा अपने ऊपर लगे आरोपों की खुद सुनवाई करने लगे थे.

कानून पढ़ने वाले हर विद्यार्थी को दूसरा साल आते आते एक लैटिन मैक्सिम nemo judex in causa sua पढ़ा दिया जाता है, जिसका अर्थ है कि कोई अपने मामले में खुद जज नहीं हो सकता, और दूसरा audi alteram partem अर्थात किसी को भी बिना उसका पक्ष सुने दोषी नहीं ठहराया जा सकता. ये नेचुरल जस्टिस के दो अहम आयाम हैं, जो किसी भी जस्टिस डिलीवरी सिस्टम का आधार होता है, क्योंकि कहा जाता है ‘न्याय न सिर्फ होना चाहिये बल्कि होता हुआ दिखना भी चाहिए.’

मौजूदा सीजेआई पर यौन उत्पीड़न के आरोप वाला मामला सुप्रीम कोर्ट के अपने खुद के मामलों में काम करने के तरीके, नेचुरल जस्टिस और महिलाओं के प्रति हमारे समाज के नज़रिये को समझने के लिये एक बेहतरीन केस स्टडी हो सकती है.

जब 1997 में वर्कप्लेस पर सेक्सुअल हैरसमेंट से संबंधित विशाखा बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान केस आया तो इसके फैसले से एक उम्मीद जगी कि महिलाओं को एक ऑब्जेक्ट की तरह देखने वाले यौन कुंठित पुरुषों द्वारा अथॉरिटी का फायदा उठा कर महिलाओं का यौन शोषण करने पर कुछ लगाम लगेगी. इस केस के जरिये सुप्रीम कोर्ट ने तमाम गाइडलाइंस जारी की जिनमें निर्देश दिया गया कि हर संस्थान में एक इंटरनल कंप्लेंट कमिटी बनेगी जो कामकाजी जगहों पर महिलाओं के शोषण की प्राथमिक सुनवाई का काम करेगी. लेकिन खुद सुप्रीम कोर्ट अपने यहां वह कमिटी (GSICC) 1997 के फैसले के 16 वर्ष बाद 2013 में बनाती है.

आज उस कमिटी का/की चेयरपर्सन कौन है, यह कम से कम सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट से तो नहीं पता चलता जिसमें आखिरी चेयरपर्सन जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई तक का ज़िक्र है जो 2014 में रिटायर हो चुकी हैं.


यह भी पढे़ंः ऐडवोकेट का दावा सीजेआई रंजन गोगोई को फंसाने के लिए 1.5 करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी


क्या है ताजा विवाद: क्या हुआ और क्या होना चाहिए था

क़ायदे से जब सीजेआई के खिलाफ शिकायत आई थी तो उसे जेंडर सेंसिटाइजेशन इंटरनल कंप्लेंट्स कमिटी के पास भेजा जाना चाहिए था, जो कि एक रेगुलर स्‍टैचट्‌री बॉडी है. यदि मामला कमिटी के पास भेजा जाता तो वह जांच के लिए एक सब कमिटी बनाती और जेंडर सेंसिटाइजेशन एंड सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ़ विमन एट द सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रेड्रेस्सल) रेगुलेशंस, 2013 क्रमांक 9 के मुताबिक इंटरनल सब कमिटी में तीन सदस्य होते जिसमें कम से कम दो महिलाएं होतीं और एक बाहरी सदस्य होता.

लेकिन बजाय इसके एक इनहाउस कमिटी बना दी गई, जिसमें पहले दो पुरुष और एक महिला जज थीं, हालांकि बाद में विवाद होने पर इन हाउस कमिटी में से एक पुरुष जज हट गए और उनकी जगह जस्टिस इंदु मल्होत्रा को शामिल कर लिया गया किन्तु फिर भी कोई बाहरी सदस्य नहीं शामिल किया गया.

वहीं दूसरी तरफ इस मामले को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर खतरा बताकर अलग बेंच भी बना दी गई जिसकी पहली सुनवाई खुद सीजेआई ने की. यहां भी नेचुरल जस्टिस का सवाल लोग उठाते रहे. अब स्पेशल बेंच इस शक पर सुनवाई कर रही है कि ये आरोप कहीं सीजेआई के ऑफिस को प्रभावित करने के लिए प्रायोजित तो नहीं हैं, इस तरह से एक मामले को तय करने के लिए दो अलग अलग जगहें निर्धारित की गईं. सुप्रीम कोर्ट ने आधार और प्रिवेसी जजमेंट की तरह यहां भी सन्दर्भ को अलग कर दिया है. जबकि किसी केस का सन्दर्भ ही उस केस का मूल होता है सन्दर्भ और तथ्यों पर ही लॉ अप्लाई होता है.

यदि महिला द्वारा लगाये गये आरोप प्रायोजित या द्वेषपूर्ण साबित हो जाते हैं तो उसके लिए भी सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी गाइडलाइंस में प्रावधान हैं. जेंडर सेंसिटाइजेशन एंड सेक्सुअल हैरेसमेंट ऑफ़ विमन एट सुप्रीम कोर्ट (प्रिवेंशन, प्रोहिबिशन एंड रेड्रेस्सल) गाइडलाइंस, 2015 के निर्देश 10 के मुताबिक अगर कंप्लेंट फर्जी या द्वेषपूर्ण हो तो सब कमिटी शिकायतकर्ता के खिलाफ उचित कार्यवाही की अनुशंसा कर सकती है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट द्वारा जारी रेगुलशंस में एक पेच है कि कमिटी द्वारा कार्यवाही के लिये की जाने वाली सारी अनुशंसाएं खुद चीफ जस्टिस ऑफ़ इंडिया को की जाती हैं. शायद उस समय रेगुलेशंस बनाने वालों की इतनी दूरदर्शिता नहीं रही होगी कि खुद सीजेआई को इस तरह के आरोपों का सामना करना पड़ सकता है. खैर मौजूदा परिस्थिति में सीजेआई के बाद वरिष्ठतम जज इन अनुशंसाओं पर कार्यवाही के लिए अधिकृत हो सकते थे.


यह भी पढ़ेंः गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला की बेल की सुनवाई 23 मई को


कुल मिलाकर इस महिला के आरोप की बात है तो दो ही बातें हो सकती हैं. पहली कि वह सच कह रही हो और दूसरी कि उसके द्वारा लगाये आरोप बेबुनियाद हैं (जैसा की इन-हाउस कमिटी ने अपनी जांच के बाद कहा है), यदि उसकी बात सच होती तो यह भारतीय पुरुष समाज की यौन कुंठा का एक और उदाहरण होता. लेकिन यदि वह महिला झूठ बोल रही है तो मसला बेहद संगीन है कि आखिर इस देश में न्याय करने वाली सबसे बड़ी संस्था को हाईजैक करने की कोशिश करने वाले कौन लोग हैं.

दोनों ही परिस्थितियां गंभीर हैं. किसी भी स्थिति में स्वतंत्र जांच ही एक उपाय था, लेकिन जिस तरह से मामला हल किया गया, उसमें यही कहा जा सकता है कि मुमकिन है कि न्याय तो किया गया पर न्याय होता हुआ दिखा नहीं.

(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में कानून के विद्यार्थी हैं.यह लेखक ने निजी विचार हैं)

share & View comments

1 टिप्पणी

  1. इस लेख को लिखने से पहले आपको मनोज झा के विरोध में एक लेख लिखना चाहिए था, मायावती के मंत्रिमंडल में और उन सभी सवर्ण विधयकों की लंबी लिस्ट का विरोध करना था, दुमुहिया मत बनिये। कन्हैया से आपको दिक्कत ये है कि उसके इमेज से तेजस्वी को खतरा है। कन्हैया से आपको ये दिक्कत है कि उसका सामाजिक न्याय जाटव और यादव तक सीमित नहीं रहेगा।

Comments are closed.