इस बार अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर पाठकों को रुक्मिणी देवी अरुंडेल की याद दिलाना इसलिए जरूरी लग रहा है क्योंकि भरतनाट्यम की उद्धारक मानी जाने वाली भारत की इस अप्रतिम मानवतावादी महिला सांसद को अब इस कदर भुला दिया गया है कि उसकी जयंतियों व पुण्यतिथियों पर भी याद नहीं किया जाता. हालांकि ये दोनों {जयंती: 29 फरवरी और पुण्यतिथि: 24 फरवरी} हर साल अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस से थोड़ा ही पहले आती हैं.
तिस पर बात इतनी-सी ही नहीं है. देश की महिलाओं ओर मानवतावादियों के ज्यादातर संगठनों व आन्दोलनों को भी रुक्मिणी देवी को अपना आइकाॅन या रोलमाॅडल मानना गवारा नहीं होता. यह तब है जब कहते हैं कि 1977 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरार जी देसाई ने उन्हें राष्ट्रपति पद की पेशकश की थी, जिसे उन्होंने यह कहकर स्वीकार करने से मना कर दिया था कि उनका जीवन कई दूसरे उद्देश्यों के लिए समर्पित है.
उन्हें भुला दिये जाने का एक बड़ा कारण यह है कि महिला संगठनों ने मानवतावादियों के खाते में डालकर उनकी यादों को विस्मृति के गर्त से निकालने के अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर दी है और मानवता वादियों ने महिलाओं के संगठनों के. यह और बात है कि आज की तारीख में भी यह तय करना मुश्किल है कि किसी तरह की नारेबाजी के बिना वे अपने जीवन में मानवता के पक्ष में ज्यादा सक्रिय रहीं या महिलाओं के और मानवतावाद व महिलावाद के लक्ष्य इतने परस्परविरोधी नहीं हैं कि उन्हें सर्वथा अलग अलग खांचों में रखकर अलग कर दिया जाये.
रुक्मिणी देवी का जीवन-संघर्ष
रुक्मिणी देवी की यादों की यह उपेक्षा इस मायने में बहुत खलती है कि उन्होंने शुरुआती जीवन-संघर्ष में ही महिला के तौर पर अपनी मानवीय स्वतंत्रता के लिए धर्म, जाति व देश के बंधन तोड़ डाले थे. वह भी उस दौर में, जब किसी सामान्य महिला के लिए उन्हें तोड़ने की कल्पना करना भी दुष्कर था.
तब महिला आन्दोलन की नींव की ईंट की भूमिका निभाते हुए उन्होंने जिस तरह अपने सामने खड़े चुनौतियों के कई पहाड़ों को नीचा दिखाया और महिलाओं भविष्य के लिहाज से जागरूकता के कई मील के पत्थर कहें या प्रकाश-स्तम्भ गाड़े थे, उसके मद्देनजर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की विरासत में उन्हें उनका न्यायोचित हिस्सा न दिये जाने को उनके सामाजिक वारिसों की कृतघ्नता के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता.
रुक्मिणी राज्यसभा की सदस्य थीं, तो उन्होंने पशुओं के प्रति क्रूरता रोकने के उद्देश्य से एक विधेयक पेश किया था. इस विधेयक ने कानून का रूप लिया तो रुक्मिणी देवी के नाम एक अनूठा कीर्तिमान दर्ज हो गया था. वह था देश के इतिहास में पहली बार किसी संसद सदस्य द्वारा प्रस्तुत निजी विधेयक को इस मुकाम तक पहुंचाने में सफल होने का!
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रुक्मिणी का जानवरों से स्नेह
कहते हैं कि विधेयक पेश करते हुए उन्होंने पशुपक्षियों के प्रति करुणा से विगलित जो वक्तव्य दिया, उससे अनेक सांसद अभिभूत हो उठे थे. यहां यह भी गौरतलब है कि रुक्मिणी ने जीवन भर शाकाहारी रहकर मंदिरों में पशुबलि का विरोध किया और अपने दृष्टिकोण के पक्ष में माहौल बनाने के लिए 1957 में विश्व शाकाहार सम्मेलन आयोजित करके उसे सफल बनाया!
प्रसंगवश, 29 फरवरी, 1904 को मदुरै में एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में जन्मी रुक्मिणी इस मायने में खुशकिस्मत थीं कि उनके माता-पिता दोनों जाति व धर्म की संकीर्णताओं से मुक्त ओर प्रगतिशील विचारों के थे. थियोसोफिकल सोसाइटी व डाॅ. एनी बेसेंट के उत्साही अनुयायी उनके पिता पेशे से इंजीनियर थे और उनकी गिनती अपने समय के संस्कृत के अच्छे विद्वानों में की जाती थी. नौकरी ऐसी थी कि तबादलों के चक्कर में उनको बार-बार शहर-बदर होना पड़ता था. 1920 में उनकी मद्रास में तैनाती के समय 17 साल की रुक्मिणी ने धर्म, जाति व देश के बंधन तोड़कर 41 वर्षीय डाॅ. जीएस अरुंडेल से शादी करनी चाही तो माता-पिता की प्रगतिशीलता के बावजूद एक बड़े बवंडर का सामना करना पड़ा.
किसी को वर कन्या के बीच उम्र के बड़े फासले पर एतराज था तो कोई एक वेदांतिक ब्राह्मण कन्या का विधर्मी विदेशी अ्रंगरेज अधेड़ से गठबंधन बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था. लेकिन डाॅ. श्रीमती एनी बेसेंट के आशीर्वाद से अंततः यह विवाह संपन्न हो गया और इसने रुक्मिणी देवी के जीवन की दशा और दिशा बदल कर रख दी. 1925 में थियोसोफिकल सोसाइटी के काम से वे अपने पति के साथ आस्ट्रेलिया गईं तो महान बैले अन्ना पावलोवा का नृत्य देखा. बाद में दोनों में बातचीत हुई तो रुक्मिणी का रूप-लावण्य और भंगिमा देखकर पावलोवा ने उन्हें नृत्य से जुड़ने की सलाह देने में तनिक भी देर नहीं की.
रुक्मिणी ने उनकी सलाह मान तो ली लेकिन उस पर अमल करने चलीं तो पाया कि सामने चुनौतियों के कई पहाड़ खड़े है. सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि दक्षिण भारत की अत्यंत पुरानी व गौरवशाली नृत्यपरंपरा औपनिवेशिक शासन का कहर झेलती-झेलती देवदासियों के जीवनयापन का भोंड़ा व फूहड़ साधन भर रह गई थी. रुढ़िवादी समाज घृणा से भरकर तिरस्कारपूर्वक उसे सादिर कहता और रुक्मिणी जैसी विशिष्ट महिला के उससे जुड़ने को उसका पथभ्रष्ट होना मानता था.
लेकिन रुक्मिणी ने नृत्यांगना बनना तय किया तो बस कर ही लिया और पीछे मुड़कर देखना गवारा नहीं किया. साहस व विश्वास के साथ चुनौतियों को दरकिनार करके तमिलनाडु के एक प्रसिद्ध नृत्य स्कूल में नाट्रयशास्त्र का मर्म जानना शुरू किया और लय, ताल व सुंदरता की बारीकियों को समझती हुई भरतनाट्रयम में महारत की ओर बढ़ चलीं.
कई साल की कड़ी मेहनत के बाद उन्होंने मद्रास में भरतनाट्रयम की पहली सार्वजनिक प्रस्तुति दी. तब वे 30 बर्ष की र्थीं. सौभाग्य से उनकी पहली ही प्रस्तुति इतनी अच्छी बन पड़ी कि उनके आलोचक तक उसकी शास्त्रीयता व सुरुचिपूर्णता में खोट नहीं निकाल पाये.
फिर तो उन्होंने इस नृत्य में कई अद्भुत प्रयोग किये. न सिर्फ कलाकारों की वेशभूषा, बनाव-श्रृंगार व आभूषण आदि प्राचीन मूर्तियों व चित्रों के अनुरूप करवाये बल्कि चेहरे के हाव-भाव व अभिनय द्वारा मानवीय संवेदनाओं का प्रदर्शन शुरू किया. प्रस्तुतियों की पृष्ठभूमि में मंच पर पेड़-पौधों, पशुपक्षियों और प्राकृतिक दृश्यों को पेश करने की परम्परा भी डाली. भरतनाट्यम में परम्परा से चले आते श्रृंगार के प्रभुत्व को तोड़कर भक्ति को प्राथमिकता देना तो उनकी ऐसी सेवा थी जिसने इस नाट्य को तत्कालीन समाज में आदर व स्कीकृति दिलाने में मील के पत्थर जैसा काम किया. जो परम्परापूजक व संभ्रांत लोग पहले उसके नाम पर नाक भौं सिकोड़ते थे, वे भी उसके मुरीद हो गये!
आगे चलकर उनके और उनके पति के सम्मिलित प्रयासों से स्थापित अंतरराष्ट्रीय कला अकादमी ने, जिसका नाम 1938 में कलाक्षेत्र हो गया, भरतनाट्यम को सर्वश्रेष्ठ नृत्यकला के रूप में प्रतिष्ठित करने की जी तोड़ कोशिशें कीं. गुरुकुल परम्परा पर आधारित कलाक्षेत्र के शुरुआती दिनों में नृत्य के छात्र ढूंढ़े नहीं मिलते थे. लोग मुश्किल से ही अपने बच्चों को नृत्य सिखाने को तैयार होते थे. इसलिए रुक्मिणी देवी को छात्रों की तलाश में दूर-दूर तक दूत व संदेशवाहक भेजने पड़ते थे. लेकिन जैसे-जैसे उनके नृत्य की कलात्मकता व कला की शुद्धता की ख्याति फैली, उनका काम आसान होता गया.
रुक्मिणी को जिस एक और काम के लिए दुनिया भर में जाना जाता है, वह है रामायण की ‘भरतनाट्यम श्रृंखला’, जिसकी प्रस्तुति के लिए उन्होंने वाल्मीकि रामायण का विशद अध्ययन किया. अपनी विदेशयात्राओं के क्रम में उन्होंने इंडोनेशिया में रामायण का मंचन देखा था और शास्त्रीय नृत्य पर आधारित उनकी रामायण श्रृंखला पर उसका व्यापक प्रभाव है. उनसे पहले नृत्यनाटिका में रामायण पर कोई विधिवत प्रस्तुति देखने में नहीं आती. कहते हैं कि रुक्मिणी देवी का अनूठा सौन्दर्यबोध उनके हर काम में झलकता था. इसका प्रमाण कलाक्षेत्र के नये कैंपस का विन्यास भी है जो उन्हीं की कल्पना पर आधारित है.
सम्मान और पुरस्कार
भरतनाट्यम के लिए जरूरी साड़ियों के प्राचीनतम पैटर्न बुनने के लिए उन्होंने कलाक्षेत्र में करघे लगवाये थे और रासायनिक रंगों के कुप्रभावों से बचाव के लिए उनमें प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल कराती थीं. कहना होगा कि वे इस अर्थ में भी खुशकिस्मत थीं कि जीवनलक्ष्य के प्रति उनका समर्पण उनके जीते जी ही ऐसा रंग लाया था कि वे भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों की आंख की किरकिरी से भारतीय संस्कृति के उपासकों की आंखों का तारा बन गई थीं.
24 फरवरी, 1986 को चेन्नई में अंतिम सांस लेने तक उनकी झोली में प्रतिष्ठित पद्मभूषण, संगीतनाटक अकादमी के अवार्ड और फेलोशिप जैसे ढेरों सम्मान आ चुके थे.
(कृष्ण प्रताप सिंह फैज़ाबाद स्थित जनमोर्चा अखबार के संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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