बहुराष्ट्रीय सैन्य अभ्यास में भारत की भागीदारी अक्सर उसके वैश्विक भू-राजनैतिक तनातनी में तलवार की धार पर चलने जैसी होती है. हालांकि वैश्विक तनातनी के गहराने और टकराव के बिंदुओं के विस्तार से भारत के लिए अपने रणनीतिक रवैए को कायम रखने की क्षमता के आगे गंभीर चुनौतियां हैं, जो संदर्भ और मुद्दा आधारित सहयोग की मांग करती हैं. दो दशक से ज्यादा तक भारत ने अमेरिका, चीन, रूस और खासकर यूरोप और एशिया के कई देशों के साथ द्विपक्षीय और बहुपक्षीय सैन्य अभ्यास किया है.
आश्चर्य नहीं कि हिमाचल प्रदेश में तीन हफ्ते के भारत-अमेरिका के विशेष बलों के साझा अभ्यास वज्र प्रहार 2022 जारी है, ऐसे में अपुष्ट खबरें हैं कि भारत 30 अगस्त से 5 सितंबर तक तय रूस की मेजबानी में वोस्तोक 2022 में शिरकत करेगा.
रूस 2009 से वोस्तोक 2022 जैसा बहुपक्षीय अभ्यास करता रहा है. इस आयोजन का नाम उसकी भौगोलिक स्थिति से तय होता है. 2021 में यह जापाद था, जिसका अर्थ ‘पश्चिम’ है और इस साल यह वोस्तोक (पूर्व) है और रूस के पूर्वी मिलिट्री जिले के 13 प्रशिक्षण मैदानों में होगा. इसमें रूस की लड़ाकू क्षमता के प्रदर्शन के अलावा, हिस्सेदारी करने वाले देशों की पारस्पारिकता पर भी फोकस होता है.
मिलिट्री हिस्सेदारी का लंबा इतिहास
चीन ने पहले 2018 में वोस्तोक में हिस्सा लिया था. भारत ने पहली बार 2019 में त्सेंत्र (केंद्र) में पाकिस्तान और शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) के सदस्य देशों के साथ रूसी चतुर्वर्षीय अभ्यास में हिस्सेदारी की थी. 2020 से भारत के रिश्ते चीन और पाकिस्तान से बदल गए और इसलिए कावकाज (कॉकसस) 2020 में कोविड से जुड़े मसलों का हवाला देकर हिस्सा नहीं लिया. फिर, भारत ने जापाद 2021 में हिस्सा लिया, जिस पर बेलारूस के अपनी घरेलू वजहों से रूस की तरफ झुकने और उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) देशों की प्रतिकूल प्रक्रिया का साया हावी रहा. उसमें भारत, अर्मेनिया, ताजिकिस्तान क्रिग्जिस्तान, मंगोलिया, सर्गिया और श्रीलंका नूरी तरह हिस्सेदारी लेने वाले देश थे. चीन और पाकिस्तान ने विएतनाम, म्यांमार और उज्बेकिस्तान के साथ ‘पर्यवेक्षक’ के तौर पर शामिल थे.
उसके पहले भारत और चीन आठ द्विपक्षीय अभ्यास कर चुके हैं, जिसे ‘हाथ में हाथ’ कहा गया. हालांकि 2017 में डोकलाम संकट की वजह से नहीं हुआ, लेकिन 2018 और 2019 में हुआ. लद्दाख में 2020 के टकराव से ऐसे तमाम सहयोग के उपक्रम बंद हो गए, जिसका मकसद आपसी समझ और भरोसे में सुधार करना था.
हालांकि भारत की ओर से चुप्पी है, मगर चीन के रक्षा मंत्रालय ने अब पुष्ट कर दिया है कि चीनी सैन्य टुकडिय़ां वोस्तोक 2022 में हिस्सा लेंगी, जिसमें भारत और दूसरे देश शामिल होंगे. मंत्रालय ने यह भी कहा कि ये अभ्यास मौजूदा अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय हालात से पूरी तरह असंबद्ध होंगे और ये रूस के सालाना द्विपक्षीय सहयोग का हिस्सा हैं. रूस के मुताबिक, उसका घोषित मकसद हिस्सेदारी करने वाले देशों की सेना के साथ व्यावहारिक तथा दोस्ताना सहयोग को मजबूत करना, रणनीतिक साझेदारी को बढ़ाना और विभिन्न सुरक्षा खतरों को जवाब देने की क्षमता को धरदार बनाना है. भारत ऐसे रणनीतिक ढांचे में फिट नहीं बैठता है और लगता है कि वह उन साझा हितों के प्रति अनुकूल रुख नहीं रखता, जो इस साझा मिलिट्री अभ्यास की राजनीतिक आधार-भूमि तैयार करता है.
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भारत के द्विपक्षीय रिश्तों की पेचदगियां
जाहिर है कि चीन-अमेरिकी प्रतिद्वंंद्विता बढ़ रही है, इसलिए भारत के अमेरिका, रूस और चीन के साथ रिश्ते अवसर और चुनौतियां दोनों ही पेश करते हैं. मुख्य अवसर उस राह पर जाने से बचने का है जिसे कुल मिलाकार चीन-अमेरिका सत्ता संघर्ष कहा जाता है. साथ ही, दोनों पक्षों के रुख और वेश्विक सैन्य टकराव विंदुबों के उभरने तथा आर्थिक और टेक्नोलॉजिकल टकराव में इजाफे के मद्देनजर सुखद अंत की संभावनाएं धूमिल हैं. भारतीय राजनय के लिए चुनौती यही है कि अपनी वृद्धि और विकास को बनाए रखकर वैश्विक भू-राजनैतिक उथल-पुथल से बचकर निकल आए.
चीन और रूस का गठजोड़ अमेरिका की अगुआई वाले पश्चिम के खिलाफ बन रहा है, जबकि भारत दोनों खेमों में आवाजाही बरकरार रखना चाहता है. यह एससीओ, ब्राजील-रूस-भररत-चीन-दक्षिण अफ्रीका (ब्रिक्स), रूस-भारत-चीन (आरआइसी), और क्वाडिलेटरल सेक्युरिटी डायलॉग (क्वाड) जैसे समूहों की उसकी सदस्यता से जाहिर है. यह बहुपक्षीय मिलिट्री अभ्यासों में भारत की शिरकत से भी जाहिर है. लद्दाख में 2020 के संकट के बाद बहुपक्षीय मंचों पर भारत के रणनीतिक रुझान का पलड़ा अमेरिका और उसके सहयोगियों की ओर झुक गया. हालांकि वह उन समूहों में भी जुड़ा हुआ है, जिसमें रूस और चीन शामिल हैं.
भारत को बहुध्रवीय रास्ते पर चलना चाहिए
भारत ने यह साफ-साफ कह दिया है कि चीन रिश्ते ‘सामान्य’ तब तक नहीं हो सकते, जब तक बीजिंग लद्दाख में यथास्थिति बहाल नहीं करता. पिछले हफ्ते विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने बैंकाक में कहा कि रिश्ते काफी मुश्किल दौर से गुजर रहे हैं और बताया कि ‘एशियाई सदी’ तब तक संभव नहीं हो पाएगी, जब तक दोनों पड़ोसी हाथ नहीं मिला लेते. मुश्किलें चाहे जो भी हों, भारत का यही मानना है कि उसके हित बेहतर तभी हो सकते हैं जब दुनिया में दोनों तरफ के पक्ष बराबरी की स्थिति में हों.
क्षेत्रीय और राजनैतिक मसलों के समाधान के विवाद पैदा करने वाले चीनी रवैए के मद्देनजर यह अवधारणा अव्यावहारिक-सी लगती है. फिर भी एशियाई सदी का सपना भारत को बहुपक्षीय समूहों में शामिल होने के लिए प्रेरणा बना रहना चाहिए. लगता है कि अमेरिका ने मोटे तौर पर भारत के रूस से रिश्ते को स्वीकार कर लिया है, भले कुछ गुरेज के साथ. अमेरिका के आधिकारिक प्रवक्ता नेड प्राइस का हाल का बयान बहुत कुछ बताता है. भारतीय नजरिए से हमें यह भी आश्वस्त करना चाहिए कि चीन हमारे अमेरिका और उसके सहयोगियों से रिश्ते को भी स्वीकार करे, ताकि बहुध्रवीय नजरिए पर जोर डाला जा सके.
भारत का पसंदीदा रास्ता बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का ही होना चाहिए. इसलिए चीन की टुकडिय़ों की हिस्सेदारी और मिलिट्री अभ्यास का मकसद के मद्देनजर वोस्तोक 2022 में भारत की शिरकत का मामला चाहे जितना असहज लगे, भारत को पर्यवेक्षक की तरह हिस्सेदारी की एक जगह है. पर्यवेक्षक के नाते हमारी शिरकत भी हो जाएगी और दूरी भी बनी रहेगी. मौजूूदा वैश्विक भू-राजनैतिक माहौल में पर्यवेक्षक की हैसियत ऐसे रणनीतिक संदेश का वाहक होगा, जो भारत के बहुपक्षीय विश्व व्यवस्था के दीर्घावधिक नजरिए को पुष्ट कर सकता है.