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Thursday, 19 December, 2024
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संस्थानों की साख और शिक्षा व्यवस्था दोनों को प्रभावित करेगा UGC का ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’

सभी कॉलेज, छात्रों को आकर्षित करने के लिए प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस योजना के माध्यम से लोकप्रिय नामों को जोड़ने का प्रयास करेंगे, ऐसे नाम जो भले ही शिक्षण के लिए समर्थ ना हो लेकिन भीड़ जुटाने के लिए सक्षम हों.

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शिक्षा जगत में लगातार जारी उठापटक के क्रम में, हाल ही में सरकार के निर्देश पर विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने अपनी एक बैठक में यह निर्णय लिया है कि विभिन्न विषयों के विशेषज्ञों को, अब तक चली आ रही स्थापित परंपरा और तमाम औपचारिक अनिवार्यताओं (गंभीर अध्ययन, शोध, अकादमिक दृष्टि, विभिन्न मंचों पर प्रकाशन) से छूट देकर सीधे नियुक्ति दी जाएगी. ऐसे शिक्षक ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ कहलाएंगे.

यूजीसी ने अपनी 560वीं बैठक में, विश्वविद्यालयों समेत अन्य उच्च शिक्षा संस्थानों में उद्योग जगत के विशेषज्ञों को ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ के तौर पर अस्थायी संविदा भर्ती की ड्राफ्ट गाइडलाइंस को अपनी मंजूरी दी. यह ड्राफ्ट 23 अगस्त 2022 को पब्लिक डोमेन में जारी कर दिया गया.

इंजीनियरिंग, विज्ञान, तकनीकी, उद्यमिता, वाणिज्य, सामाजिक विज्ञान, मीडिया, साहित्य, फाइन आर्ट्स, सिविल सेवा, सशस्त्र बल, लोक प्रशासन, लीगल, आदि में कम से कम 15 वर्ष का अनुभव रखने वाले विशेषज्ञों को ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ के रूप में नियुक्त किया जाएगा. इसके लिए किसी भी प्रकार की औपचारिक शैक्षिक योग्यता अनिवार्य नहीं होगी. हालांकि, इन विशेषज्ञों में संबंधित क्षेत्र के लिए जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए जरूरी योग्यता होनी चाहिए.

अब यहां एक बड़ा सवाल यह उभरकर सामने आता है कि ऐसे समय में जब हजारों योग्य शिक्षार्थी हमारे बीच पहले से मौजूद हैं जिन्होंने अपना सारा जीवन अध्ययन करने में लगा दिया और जिनका एकमात्र लक्ष्य अध्यापक बनने का ही रहा है और इसी उद्देश्य से वह पूरी निष्ठा से एम.फिल. और पीएचडी के साथ नेट-जेआरएफ जैसी तमाम डिग्रियां हासिल करने के लिए अपनी हड्डियां गला रहे हैं. इस स्थिति में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस जैसी नई व्यवस्था को लाने का क्या अर्थ रह जाता है, यह अपने आप में विचारणीय है.

प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस नियम के माध्यम से शिक्षकों के 10% रोजगार की अप्रत्यक्ष कटौती कर रही है. इसके अंर्तगत भर्ती निश्चित अवधि के लिए होगी. यह शुरू में एक वर्ष के लिए होगी और संस्थान अपनी आवश्यकता और उम्मीदवार के प्रदर्शन और उसकी उपलब्धता के आधार पर आगे बढ़ा सकेंगे. सेवा की कुल अवधि अधिकतम तीन वर्ष होगी, जिसे बाद में अपवाद स्थिति में एक वर्ष के लिए और बढ़ाया जा सकेगा लेकिन कुल अवधि किसी भी स्थिति में चार वर्ष से अधिक नहीं होगी.


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विश्वविद्यालयों में शिक्षकों के बीच बढ़ती असुरक्षा की भावना

देश पर लगातार विषम और चुनौतीपूर्ण नीतियां आरोपित करती यह व्यवस्था और अधिक पीड़ादाई तब प्रतीत होती है जब हम इस पर विचार करते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में अतिथि शिक्षकों की अपनी एक परंपरा रही है. अर्थात, समाज के विभिन्न क्षेत्रों से समर्थ, योग्य और अनुभवी लोगों को अपने अनुभव व जीवन यात्रा को साझा करने के लिए पहले भी आमंत्रित किया जाता रहा है. जिसके लिए उनका मानदेय भी पहले से निर्धारित है. फिर भी लाखों शिक्षार्थियों के भविष्य को अंधेरे में रखते हुए, यह नया विधान लाया गया है.

असल में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस विधान, सरकार द्वारा हड़बड़ी में लाई गई योजना प्रतीत होती है. यह जैसे-तैसे विकास पथ पर अपनी नाम पट्टिका स्थापित करने का उपक्रम भर प्रतीत होता है. असल में यह योजना अपने आप में व्यापक विमर्श की मांग करता है क्योंकि इससे हजारों शिक्षकों, छात्रों और उनके परिवारों पर गहरा प्रभाव पड़ेगा. इस योजना से एक शिक्षक बन देश के निर्माण में अपना योगदान देने की उम्मीद संजोए हजारों सपनों पर ग्रहण लगेगा.

प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस ने विश्वविद्यालयों के शिक्षकों के मन में असुरक्षा की भावना भरने का काम किया है, क्योंकि उन्हें ऐसा लगने लगा है कि आने वाले समय में सत्ता इस विधान का इस्तेमाल अपने हित में करेगी और विश्वविद्यालय एजेंडा पूर्ति का अड्डा बन जाएगा. शिक्षा की संभावित उपेक्षा से भी कुछ विश्वविद्यालयी शिक्षक भयाक्रांत हैं.

यूजीसी द्वारा जारी किए गए ‘प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस’ ड्राफ्ट गाइडलाइंस में भर्ती के लिए योग्यता, कार्य और जिम्मेदारियां, सेवा की शर्तें, चयन प्रक्रिया, अवधि, आदि को लेकर प्रस्तावित नियम/प्रावधान शामिल किए गए हैं. संभावना है कि यह विधान नए शैक्षणिक सत्र से लागू कर दिया जाए.


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शिक्षा का उद्देश्य चेतना की मुक्ति है

अध्यापन की अपनी एक प्रक्रिया और संरचना होती है. शिक्षण के औपचारिक सिद्धांत होते हैं जिन्हें पर्याप्त अभ्यास तथा अध्ययन के द्वारा ही विकसित किया जा सकता है. यही कारण है कि तमाम प्रकार के शिक्षण संबंधी पाठ्यक्रम सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि भारत से बाहर के भी विश्वविद्यालयों में पढ़ाए जाते रहे हैं. जरूरी नहीं कि एक सफल व्यक्ति, एक सफल शिक्षक हो सके. सफल शिक्षक होने के लिए कुछ एक मूलभूत सिद्धांतों, शिक्षण प्रक्रियाओं का ज्ञान और उसकी समझ होना जरूरी है.

शिक्षा का उद्देश्य है चेतना का लिबरेशन यानि कि मुक्ति. जबकि सरकार के इस प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस विधान को देखा जाए तो प्रतीत होता है कि सरकार शिक्षा व्यवस्था के प्रति उपेक्षा भाव को प्रदर्शित करते हुए अनुभव साझा करना और सिखाना दोनों महत्वपूर्ण और छात्रोपयोगी उपक्रमों को बहुत ही असंतुलित तरीके से मिलाने का काम कर रही है.

इसका नतीजा यह होगा कि न तो छात्र ठीक से अनुभवों को ग्रहण कर पाएंगे और ना ही वह सीख पाएंगे. जिस कारण एक अगंभीर अकादमिक माहौल का निर्माण होगा जिसमें कोई भी अपनी भूमिका का सार्थक तरीके से निर्वहन नहीं कर पा रहा होगा.

प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस विधान को यदि व्यापक फलक पर रखकर सोचें तो सरकार की इस नीति के पीछे का एजेंडा क्या है, इसका सहज रूप से भान होता है. पहले भी, प्रशासन में लेटरल एंट्री, फिर जबरन वीआरएस की स्कीम और हाल कि 4 वर्षीय अग्निवीर योजना के बाद अब प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस विधान दरअसल शिक्षकों को असुरक्षित करने का प्रपंच मात्र है. यह पहले से व्यवस्था में मौजूद शिक्षकों को विंटेज मॉडल बनाने का भी उपक्रम प्रतीत होता है. ऐसी स्थिति में शिक्षक अपना सारा समय अपने आप को बचाने में लगाएगा और शिक्षण की स्वाभाविक उपेक्षा होगी.

शिक्षा का बुनियादी सिद्धांत होता है आलोचनात्मक विचार दृष्टि का निर्माण करना. लगातार बदल रही व्यवस्था से भयभीत शिक्षक, आलोचनात्मक दृष्टि का निर्माण करना तो दूर अपने कार्यों में पूरे तरीके से फोकस भी नहीं कर पाएंगे. बजट में शिक्षा की उपेक्षा करने के बाद अब शिक्षकों के भविष्य पर ही संकट पैदा कर सरकार दरअसल न सिर्फ समर्पित छात्र (जो कि भविष्य में शिक्षण करना चाहते हैं) बल्कि वह शिक्षक जो ईमानदारी से पढ़ा रहे हैं- दोनों के मन में नकारात्मक भाव पैदा कर रही है. ऐसी स्थिति में शिक्षा व्यवस्था का लगातार कमजोर होते हुए नष्ट होना तय है.

शिक्षा व्यवस्था में लगातार हो रहे अगंभीर परिवर्तन और हो रही उपेक्षा इस ओर संकेत कर रहे हैं कि सरकार असल में इस क्षेत्र को प्राइवेट प्लेयर्स (पूंजीवादी घराने) के लिए सुगम बना रही है. अब तक जो शिक्षा जनकल्याण, व्यक्तित्व निर्माण और देश निर्माण के लिए होती थी, अब वही शिक्षा पूंजी निर्माण के लिए उपयोग में लाई जाएगी.


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प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस को लेकर आशंकाएं

आज यह बात किसी से छुपी नहीं है कि तमाम दावों के बीच सरकार प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से, सभी कॉलेजों को अपना खर्च खुद निकालने के लिए दबाव बना रही है. ऐसी स्थिति में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस योजना कॉलेजों को मजबूर करेगी कि वह इसका इस्तेमाल अपने अस्तित्व को बचाने के लिए करें.

सभी कॉलेज, छात्रों को आकर्षित करने के लिए प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस योजना के माध्यम से लोकप्रिय नामों को जोड़ने का प्रयास करेंगे, ऐसे नाम जो भले ही शिक्षण के लिए समर्थ ना हो लेकिन भीड़ जुटाने के लिए सक्षम हों. निश्चित है कि ऐसे नामों को जोड़ने के लिए कॉलेज को अतिरिक्त धन भी खर्च करना पड़ेगा, जिसकी भरपाई करने के लिए कॉलेजों को फीस और जरूरी मदों में वृद्धि करनी होगी और जिसकी उगाही दाखिला लेने वाले छात्रों से की जाएगी.

एक ओर इससे गरीब छात्रों की उच्च शिक्षा तक पहुंच मुश्किल होती जाएगी. ऐसी स्थिति में सहज रूप से स्पष्ट है कि सरकार की शिक्षा नीति, शिक्षा के प्रति उसके गंभीर उपेक्षा भाव को उजागर कर रहा है क्योंकि सरकार का सारा फोकस बाहरी ज्ञान पर ही है. यह लगातार बौद्धिकता पर प्रहार कर उसको भोथरा बनाने की नीति है या कहे साजिश है. इस तरह एक अर्धविक्षिप्त या अर्धशिक्षित युवाओं की भीड़ तैयार की जा रही है जिसका उद्देश्य बस पैकेज है और सांप्रदायिक उन्मादी भीड़ के रूप में बदलना है.

प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के नाम पर कॉलेज से जुड़ने वाले बड़े नाम जिनमें भीड़ जुटाने की या कॉलेज की इमेज बनाने की क्षमता होगी, वे निश्चित रूप से वर्षों से अपने क्षेत्र में बहुत सारा काम कर रहे होंगे. इसलिए व्यावहारिक रूप से उनके पास समय का गहरा अभाव होगा और वे नितांत पार्टटाइम शिक्षक सिद्ध होंगे, जिनमें समर्पण और गंभीरता का अभाव होगा.

आज जब बेरोजगारी अपने चरम स्तर पर है और लाखों योग्य युवा तमाम डिग्रियां लेकर अपनी बारी का इंतजार कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के नाम पर दस प्रतिशत वास्तविक समर्थ विद्वानों का नुकसान शिक्षा व्यवस्था और छात्र क्यों उठाएं? इस प्रश्न का उत्तर सरकार को जरूर देना चाहिए.

ऊपर बताए गए सभी नुकसान, प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस के माध्यम से होने वाले प्रत्यक्ष नुकसान है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इस विधान को लाने का उद्देश्य कुछ और ही है. असल में यह विधान अपने लोगों को व्यवस्था में शामिल करने का एक माध्यम है. ऐसे लोग जिनकी निष्ठा शुरू से ही वर्तमान की सत्ता-व्यवस्था और दल में रही है, ऐसे लोग जो उच्च शिक्षा के लिए डिग्री या अध्ययन की दृष्टि से अयोग्य सिद्ध हुए हैं, उन सभी लोगों को शिक्षण संस्थानों से संबद्ध करने का यह एक माध्यम है.

सत्ता इसका इस्तेमाल शिक्षण संस्थानों में नए सिरे से अपने हित के समीकरण बनाने में करेगी. कहने का अर्थ है कि नए सिरे से गुटबाजी और राजनीति का आरंभ होगा, जिससे न सिर्फ संस्थानों की साख पर असर पड़ेगा बल्कि पूरी शिक्षा व्यवस्था भी प्रभावित होगी.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (डूटा) के पूर्व अध्यक्ष और आम आदमी पार्टी शिक्षक संगठन के राष्ट्रीय प्रभारी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)


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