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Friday, 7 November, 2025
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भारत के थिंक टैंक लॉबिस्ट की तरह है खुलासा नहीं करते, इससे पॉलिसी खराब होती है

कई ‘स्वतंत्र’ बताई जाने वाली रिपोर्टें, जिनका मकसद नीतियों को दिशा देना होता है, असल में बड़े उद्योग समूहों या पैसे वाले हितधारकों द्वारा कराई जाती हैं. इस प्रक्रिया में पारदर्शिता ज़रूरी है.

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भारत को विकसित भारत 2047 का सपना पूरा करना है—एक ऐसा विकसित देश जो आर्थिक ताकत, सामाजिक समानता और स्थायित्व पर आधारित हो. इसके लिए सबसे पहला कदम है अच्छी पॉलिसी बनाना और आज के समय में, जब इन्फ्लुएंस को आसानी से ज्ञान के रूप में दिखाया जा सकता है, तो उन रिसर्च की विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है जो नीतियों को दिशा देती हैं.

2020 तक, भारत में 600 से ज्यादा थिंक टैंक हैं, जिनमें से कई आर्थिक नीति पर काम करते हैं. ये थिंक टैंक समय-समय पर बड़ी आर्थिक और डिजिटल सुधारों पर रिपोर्ट, नोट्स और “इम्पैक्ट स्टडीज़” जारी करते हैं ताकि नीति निर्माण में मदद हो सके.

यह क्षेत्र महत्वपूर्ण है, लेकिन ज्यादातर अनियंत्रित है. विदेशी फंडिंग की जानकारी देना तो ज़रूरी है, लेकिन निष्पक्षता और पारदर्शिता दिखाने के नियम नहीं हैं.

इसका नतीजा यह होता है कि कुछ रिसर्च में पारदर्शिता, सही तरीका और अकादमिक ईमानदारी की कमी होती है. ऐसी कमज़ोर और अधूरी रिसर्च से जन चर्चा और नीतियां गलत दिशा में जा सकती हैं और जब नीतियां गलत प्रमाणों पर आधारित हों, तो अंत में वही लोग नुकसान झेलते हैं, जिनके हितों की रक्षा करना था.

दिक्कत क्या है

लोकतांत्रिक व्यवस्था में नीति बनना एक संतुलन बनाने की प्रक्रिया है. माना जाता है कि सभी हितधारकों की आवाज़ बराबरी से सुनी जाती है। लेकिन सच यह नहीं है.

उदाहरण के लिए टेक कंपनियां EU की संस्थाओं में लॉबिंग पर हर साल लगभग €151 मिलियन खर्च करती हैं.

कई “स्वतंत्र” दिखाई देने वाली रिपोर्टें, जिनका उद्देश्य नीतियों को प्रभावित करना होता है, असल में बड़े उद्योग समूहों या बड़े आर्थिक हित वाले लोगों द्वारा प्रायोजित होती हैं. कई बार, इन प्रायोजित रिपोर्टों में:

छोटे और गलत चुने गए सैंप्लस, खराब तरीके से बनाए सर्वे या अंतरराष्ट्रीय उदाहरणों का गलत उपयोग किया जाता है.

और सबसे चिंताजनक बात—फंडिंग किसने दी है, यह जानकारी अक्सर छुपी रहती है या बहुत छोटे अक्षरों में लिखी होती है.

कई बार नीति से जुड़े कार्यक्रमों में लॉबिंग को बहस या संवाद का नाम दे दिया जाता है और यह नहीं बताया जाता कि हिस्सा लेने वाले लोग किन कंपनियों या हित समूहों से जुड़े हैं.

इस तरह का छुपा हुआ लॉबिंग नीति प्रक्रिया को विकृत करता है और उपभोक्ताओं जैसे कमजोर पक्षों को नुकसान पहुंचाता है. एक और मुख्य समस्या यह है कि कई नीति रिपोर्टों में गंभीरता और गहराई का अभाव होता है.

उदाहरण के तौर पर

ड्राफ्ट डिजिटल कॉम्पिटिशन बिल पर चल रही बहस इन समस्याओं को साफ दिखाती है. डिजिटल कॉम्पिटिशन लॉ कमेटी को इसलिए बनाया गया था कि यह देखा जा सके कि भारत के डिजिटल बाज़ारों के लिए पहले से रोक लगाने वाला (ex-ante) कॉम्पिटिशन नियमों का ढांचा ज़रूरी है या नहीं.

कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मौजूदा कॉम्पिटिशन लॉ की सीमाएं हैं. इसके बाद कमेटी ने 12 मार्च 2024 को ड्राफ्ट बिल जारी किया, जिसका उद्देश्य डिजिटल बाज़ारों में प्रतिस्पर्धा, निष्पक्षता और पारदर्शिता को बढ़ावा देना है. यह कानून बड़ी डिजिटल कंपनियों के बिज़नेस मॉडल में बड़े बदलाव लाएगा — और इससे उनकी बड़ी कमाई प्रभावित होगी.

पिछले एक साल में कई रिपोर्टों ने यह बताने की कोशिश की कि यह बिल उपभोक्ताओं, MSMEs और पूरी अर्थव्यवस्था पर कैसे असर डाल सकता है, लेकिन इन रिपोर्टों में बार-बार एक जैसी बड़ी गलतियां दिखती हैं:

पहला, ज़्यादातर रिपोर्टें गलत या बहुत छोटी सैम्पलिंग पर आधारित हैं — जैसे केवल यूनिवर्सिटी के छात्रों से राय लेना, या बहुत सीमित MSMEs को शामिल करना और फिर दावा करना कि यह पूरे भारतीय बाज़ार का नतीजा है. इससे नतीजे विश्वसनीय नहीं रह जाते.

दूसरा, कई रिपोर्टों में यह साफ नहीं बताया गया कि सर्वे कैसे बनाया गया, किस आधार पर लोग चुने गए, या डेटा कैसे क्लीन किया गया.

तीसरा, कई सर्वे में ऐसे सवाल पूछे गए, जिनसे जवाब पहले से एक दिशा में झुक जाते हैं.

चौथा, कई रिपोर्टों में लेखकों और फंड देने वालों के बारे में जानकारी बहुत कम या बिल्कुल नहीं होती.

कुछ थिंक टैंक तो एक-दूसरे की रिपोर्टों को ही उद्धृत करते रहते हैं —ताकि ऐसा लगे कि कई विशेषज्ञ एक ही नतीजे पर पहुंचे हैं — जबकि डेटा और तरीका एक ही और गलत होता है. EU या US के उदाहरणों को भी कई बार चुन-चुनकर ऐसे तरीके से दिखाया जाता है, जिससे पहले से बनाई राय सही लगे और उनके विपरीत सबूतों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है.

इन कमज़ोरियों के बावजूद, कुछ रिपोर्टें बहुत बड़े दावे कर देती हैं — जैसे कि यह बिल वापस ले लिया जाए, या एक छोटे से क्षेत्र के नतीजों को पूरी अर्थव्यवस्था पर लागू कर दिया जाए. नीति निर्माता और मीडिया अक्सर इन्हीं रिपोर्टों पर भरोसा करके जटिल नियमों को समझते हैं. जब गलत या अधूरी जानकारी नीति चर्चाओं का आधार बन जाती है, तो इससे लोकतांत्रिक बहस प्रभावित हो जाती है. इसलिए, डिजिटल कॉम्पिटिशन जैसे बड़े मुद्दों में, कमज़ोर रिसर्च और पारदर्शिता की कमी मौजूद ताकतवर समूहों की शक्ति को और मजबूत कर देती है.

सबूतों पर भरोसा वापस लाना

पक्षपाती नीति संबंधी काम और उससे होने वाले बड़े नुकसान दुनियाभर में चिंता का कारण हैं. कुछ संस्थाओं ने इस समस्या को रोकने के लिए कदम उठाए हैं.

अमेरिका की फेडरल ट्रेड कमीशन (एफटीसी) के ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक्स में यह नियम है कि उनके किसी भी कार्यक्रम में बोलने वाले व्यक्ति को यह बताना ज़रूरी होता है कि कहीं उसका कोई व्यक्तिगत या आर्थिक हित तो नहीं जुड़ा है.

Academic Society for Competition Law (ASCOLA) ने भी 2025 में अपनी नीति अपडेट की. अब उसके सदस्य अगर कोई बाहरी फंडिंग ले रहे हैं या उनका कोई व्यक्तिगत/आर्थिक हित जुड़ा है, तो यह खुलकर बताना अनिवार्य है. कानून और नीति के सभी बड़े जर्नल भी यह खुलासा मांगते हैं.

फ्री मार्केट की सोच उपभोक्ता के भरोसे और निष्पक्षता पर टिकी होती है. जब लॉबिंग (दबाव/प्रभाव) अपने स्वार्थ में इस्तेमाल की जाती है, तो यह फ्री मार्केट की असल भावना को तोड़ देती है. इसलिए, भारत को ज़रूरत है ऐसी मजबूत और भरोसेमंद रिसर्च की, जो नीतियां बनाने में सही मार्गदर्शन दे सके — खासकर डिजिटल मार्केट जैसे तेजी से बदलते क्षेत्रों में. भारत के थिंक टैंकों के लिए यह ज़रूरी किया जाना चाहिए कि: वे अपनी फंडिंग और किन संस्थाओं से जुड़े हैं, यह साफ बताएं. उनकी रिपोर्टों में रिसर्च का तरीका पूरी तरह स्पष्ट हो.

जैसे: सर्वे में किसे शामिल किया गया, सवाल कैसे पूछे गए, डेटा कैसे साफ और चुना गया — यह सब लिखना चाहिए, रिपोर्टों में सभी पक्षों की राय को शामिल करना चाहिए, न कि सिर्फ एक पक्ष को सही दिखाना.

अखबारों को भी लेख लिखने वालों से यह खुलासा करवाना चाहिए कि उनका कहीं कोई हित टकराव तो नहीं है. इन कदमों से यह सुनिश्चित होगा कि नीतियाँ सही सबूत और जनता के हित पर आधारित हों — सिर्फ कॉर्पोरेट स्पॉन्सर्स के फायदे पर नहीं.

(विकास कथूरिया बीएमएल मुंजाल स्कूल ऑफ लॉ में प्रोफेसर हैं और एकेडमिक सोसाइटी फॉर कॉम्पिटिशन लॉ (ASCOLA) के इंडिया चैप्टर के निदेशक हैं. शिल्पी भट्टाचार्य जिन्दल ग्लोबल लॉ स्कूल में प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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