लद्दाख, चीन, गलवान, भारतपूर्वी लद्दाख में भारतीय सेना और चीनी सेना (पीएलए) के बीच तनाव के केंद्रों– पैंगोंग त्सो, हॉट स्प्रिंग्स और गलवान नदी– में स्थिति अब भी वैसी ही है जैसा कि मैंने दिप्रिंट में अपने पिछले कॉलम में ज़िक्र किया था. तनाव बढ़ने की आशंका और अपनी ऑपरेशनल रणनीतियों के अनुरूप भावी गतिविधियों के लिए दोनों ही पक्षों द्वारा तैनात अतिरिक्त टुकड़ियां अब तक ऊंचाई वाले इन इलाकों के माहौल के अनुरूप खुद को पूरी तरह ढाल चुकी होंगी.
आधिकारिक तौर पर, दोनों ही पक्ष अपने बयानों को संयमित रख रहे हैं और कूटनीति पर भरोसे की बात कर रहे हैं. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने दोनों देशों के बीच सीमा प्रबंधन संबंधी मौजूदा व्यवस्थाओं के तहत राजनयिक और सैन्य स्तर पर वार्ताएं चलने की बात की है. वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को लेकर ‘भिन्न धारणाओं’ पर ज़ोर देते हुए सिंह ने कहा कि एलएसी पर चीन की उपस्थिति ‘अच्छी खासी संख्या’ में है. मेजर जनरल स्तर की बातचीत 2 जून को समाप्त हुई और लेफ्टिनेंट जनरल यानि कोर कमांडर स्तर की बातचीत 6 जून को निर्धारित है.
वार्ताओं में चीन की मज़बूत स्थिति
तीन अलग-अलग इलाकों में भारतीय क्षेत्र के कुल 40-60 वर्ग किलोमीटर हिस्से पर कब्ज़ा जमाने के कारण चीन वार्ताओं में मज़बूत स्थिति में होगा और वह यथास्थिति कायम रखने के लिए एकतरफा और अस्वीकार्य शर्तें थोपने की कोशिश करेगा कि भारत सीमा से लगे अपने इलाके में आधारभूत सुविधाओं के विकास के कार्य रोक दे. यदि कूटनीतिक प्रयास विफल रहे, तो चीन सीमा पर संघर्ष या सीमित युद्ध की तैयारी कर चुका है.
भारत के सामने बहुत कठिन लक्ष्य है. उसे ये सुनिश्चित करना है कि ‘असीमांकित’ एलएसी की आभासी पवित्रता को बरकरार रखने के लिए 1 अप्रैल 2020 से पूर्व की स्थिति कायम हो, ताकि चीन अपने रणनीतिक फायदे और भारत को शर्मिंदा/अपमानित करने के लिए भविष्य में मनमर्ज़ी ऐसे दावे नहीं कर सके. यदि ये कूटनीतिक तरीकों से नहीं हो पाता है, तो फिर बलपूर्वक करना होगा. लेकिन एक स्पष्ट रणनीति बनाने और उसे राष्ट्र के साथ साझा करने के बजाय मोदी सरकार और सेना, मौजूदा स्थिति के लिए एलएसी संबंधी धारणाओं में अंतर को दोष देते हुए, अपनी ज़मीन गंवाने की बात को ‘नकारने’ में जुट गई है.
कुछेक पत्रकार और एक्टिविस्ट भी चीन द्वारा भारतीय इलाकों पर चीनी कब्ज़े की बात को गलत सिद्ध करने के उद्देश्य से एलएसी की अवस्थिति की अपने हिसाब से व्याख्याएं करने में व्यस्त हैं. कूटनीतिक सहमति संबंधी माहौल निर्मित किया जा रहा है. चीन को भला और क्या चाहिए? हम उसके हाथों में खेल रहे हैं.
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मैं उन तीनों इलाकों, जहां हमने अपनी ज़मीन गंवाई है, की वास्तविक स्थिति के आकलन और इस नुकसान को ‘एलएसी संबंधी भिन्न धारणाओं’ के नाम पर नज़रअंदाज़ करने के खतरों के विश्लेषण का प्रयास करता हूं.
लद्दाख में रक्षा तैनाती का पैटर्न
एलएसी का किसी औपचारिक समझौते के साथ सीमांकन नहीं हुआ है और दोनों ही पक्ष इसको लेकर अपनी अलग धारणा बना सकता है. और, दोनों पक्षों के बीच 1993 के बाद विश्वास बढ़ाने के अनेक समझौते और दो अनौपचारिक शिखर बैठक हो चुकने के बावजूद अब भी यही स्थिति है. लद्दाख में कुल 857 किलोमीटर लंबी सीमा में से केवल 368 किलोमीटर अंतरराष्ट्रीय सीमा है और शेष 489 किलोमीटर एलएसी. चीन 1962 में इसी सीमा रेखा तक आया था, जोकि उसकी 1960 की क्लेम लाइन भी है.
यह ऊंचाई वाला मुश्किल इलाका है जहां घाटियां समुद्र की सतह से 14,000– 15,000 और पहाड़ियां 16,000– 18,000 फीट ऊंची हैं. रणनीतिक रूप से उपयुक्त नहीं होने के कारण यहां मुख्य रक्षा तैनातियों को एलएसी के पास नहीं रखा जा सकता है. उन्हें लद्दाख रेंज, पैंगोंग रेंज, श्योक नदी के पास और देपसांग के मैदानों में केंद्रित किया गया है. जहां से एलएसी की दूरी, भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप, 10 से 80 किलोमीटर तक है. मुख्य रक्षा तैनातियां सेना के नियंत्रण में हैं और एलएसी की सुरक्षा भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) के हाथों में है. मुख्य रक्षा केंद्रों और एलएसी के बीच के व्यापक इलाके की सुरक्षा चुनिंदा स्थलों पर की गई तैनातियों, मेकेनाइज़्ड टुकडियों और भौतिक/इलेक्ट्रॉनिक निगरानी व्यवस्था के ज़रिए सुनिश्चित की जाती है. पहुंच वाले मार्गों पर और विवादित क्षेत्रों में आईटीबीपी की चौकियां मौजूद हैं, लेकिन उनमें अंतरराष्ट्रीय सीमा के सपाट इलाकों जैसी निरंतरता नहीं है.
एलएसी पर आईटीबीपी की चौकियों के बीच काफी खाली जगह है. कई इलाकों में आधारभूत ढांचे के अभाव में एलएसी पर आईटीबीपी की बहुत कम चौकियां हैं. संपूर्ण एलएसी की पूरी ताकत से सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सेना को कम-से-कम 4-5 डिवीजनों की स्थाई तैनाती की ज़रूरत पड़ेगी, जबकि अभी इस काम के लिए सिर्फ एक डिवीजन लगाई गई है. इसी तरह मौजूदा पैटर्न के तहत ही संपूर्ण एलएसी की प्रभावी निगरानी सुनिश्चित करने के लिए आईटीबीपी की क्षमता में दस गुना वृद्धि करनी होगी.
पैंगोंग सेक्टर
उपरोक्त चित्र मेरे पिछले कॉलम में प्रयुक्त चित्र से भिन्न है क्योंकि इसमें नवीनतम इनपुट के अनुसार जानकारियां दी गई हैं.
कुछ पत्रकार भारत की भूमि गंवाए जाने से इनकार को सही ठहराने के लिए पैंगोंग त्सो से उत्तर के ‘फिंगर्स’ की गलत व्याख्या कर रह रहे हैं. गूगल अर्थ के उपरोक्त चित्र में फिंगर्स की सही अवस्थिति और गंवाए गए इलाके को चिह्नित किया गया है. 1962 में, सिरिजाप तक का इलाका हमारे नियंत्रण में था. पीएलए ने 1962 में इस पर कब्ज़ा कर लिया और परिणामस्वरूप एलएसी इसके पश्चिम में फिंगर 8 के पास एने ला दर्रे तक आ गई. उपरोक्त चित्र में सिरिजाप के पूर्व में पीएलए की चौकी और संलग्न जेटी देखी जा सकती है. 2011 तक, आईटीबीपी की हमारी चौकी फोबरांग के पीछे हुआ करती थी. चीनी क्लेम लाइन फिंगर 4 तक है. यहां आईटीबीपी फिंगर 8 तक और पीएलए फिंगर 4 तक पेट्रोलिंग करते थे.
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भारत ने 2013-14 में फिंगर 3 और एने ला दर्रे तक एक सड़क बना ली. आईटीबीपी ने 2013 में फिंगर 3 के पास एक नई चौकी स्थापित की. पीएलए के गश्ती बल ने फिंगर 4 और 8 के बीच हमारे पेट्रोलिंग दल की रोकटोक शुरू कर दी. चीन ने फिंगर 3 पर सुरक्षा चौकी बनाए जाने को सीमा प्रबंधन समझौते का उल्लंघन माना. दोनों पक्षों द्वारा एक-दूसरे के गश्ती दल को रोके जाने का सिलसिला 15 अगस्त 2017 को दोनों पक्षों के बीच हिंसक संघर्ष में बदल गया और उसके बाद से गश्ती दलों में तनातनी आम बात हो गई. सिरिजाप के पास पीएलए की चौकी कायम रही तथा फिंगर 4 और 8 के बीच कोई चौकी निर्मित नहीं की गई. हमारे गश्ती दल फिंगर 8 तक पेट्रोलिंग करते रहे.
इस साल अप्रैल के अंत और मई के आरंभ में, पीएलए ने इलाके में अपनी नियमित सेना उतारते हुए फिंगर 4 और फिंगर 8 के बीच के इलाके को अपने कब्जे में ले लिया और अब फिंगर 4 के ऊपर चीनी दस्ता मौजूद है. अपने अनुभवों और मीडिया रिपोर्टों के आधार पर मेरा आकलन ये है कि पीएलए ने फिंगर 8 और फिंगर 4 के बीच के 8 किलोमीटर के पूरे इलाके पर कब्ज़ा जमा लिया है और अब फिंगर 4 और फिंगर 3 के बीच स्थित आईटीबीपी की हमारी चौकी पर उसकी सीधी नज़र है. उसने फिंगर 4, 5, 6, 7 और 8 से लगी चोटियों पर भी 4,500– 5,000 मीटर की ऊंचाई तक, यानि उत्तर में 4-5 किलोमीटर तक कब्ज़ा कर लिया है. पीएलए के नियंत्रण में गया इलाका 35-40 वर्ग किलोमीटर के बराबर है. पीएलए ने इस इलाके (चित्र 1 में प्रदर्शित) की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अपनी एक या दो बटालियनों को सिरिजाप में रिज़र्व क्षमता में तैनात कर दिया है.
गलवान सेक्टर
गलवान सेक्टर में पीएलए ने गलवान नदी के उत्तर और दक्षिण में स्थित चोटियों पर नियंत्रण कर लिया है. इसके लिए लगता है कि पीएलए के सैनिक एलएसी के इस पार घाटी में 2-3 किलोमीटर तक आए और फिर चोटियों पर गए. ये भी संभव है कि वे घाटी के चीन वाले हिस्से से होकर चोटियों पर पहुंचे हों और फिर पश्चिम दिशा में 3-4 किलोमीटर तक फैल गए हों. याद रहे कि पहाड़ों या ऊंचाई वाले इलाकों में चोटियों पर नियंत्रण महत्वपूर्ण होता है. यदि आसपास की चोटियों पर दुश्मन मौजूद हों, तो ऐसे में घाटियों पर नियंत्रण रखना मुश्किल हो जाता है.
संभव है कि पीएलए ने दो बटालियनों के सहारे चोटियों पर अपना नियंत्रण सुनिश्चित किया हो और एक बटालियन एलएसी पर रिजर्व रखी गई हो.
अपनी ज़मीन गंवाने की बात को खारिज करने के लिए ‘भिन्न धारणाओं’ की बात करने वालों को बताया जाना चाहिए कि गलवान नदी के साथ लगती एलएसी को लेकर कोई भिन्न धारणा नहीं रही है. यहां जानबूझ कर दरबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी (डीएस-डीबीओ) रोड के लिए ख़तरा पैदा करने और इसकी सुरक्षा सुनिश्चित करने से रोकने के लिए हमें गलवान घाटी और उसके उत्तर एवं दक्षिण की चोटियों पर नियंत्रण नहीं करने देने के उद्देश्य से अतिक्रमण किया गया है.
हॉट स्प्रिंग्स
मेरे आकलन के अनुसार, हॉट स्प्रिंग्स/गोगरा में, करीब एक बटालियन की ताकत के साथ पीएलए ने चौकी को लगभग घेर लिया है और कोंगका ला दर्रे तक हमारी पहुंच को प्रभावी रूप से बंद कर दिया है. यह दर्रा एलएसी पर है, लेकिन हमारे नियंत्रण में नहीं है. यहां पीएलए का उद्देश्य भारत को कोंगका ला दर्रे तक सड़क निर्माण करने से रोकना है. हॉट स्प्रिंग्स और उससे 4-5 किलोमीटर दूर कोंगका ला में एलएसी को लेकर कोई ‘भिन्न धारणा’ नहीं है.
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चीन के हाथों में खेलना
‘भिन्न धारणाओं’ का औचित्य सिर्फ चीनियों के हित में है. हम एलएसी की अवस्थिति को लेकर बहुत स्पष्ट हैं क्योंकि हमने 1962 में लड़ते हुए जान गंवाने वाले अपने साथियों का अंतिम संस्कार किया है, उन्हें दफनाया है. चीन 1960 की अपनी क्लेम लाइन पर आकर रुक गया था और 1962 के युद्ध में पीछे की हमारी चौकियां इस लाइन पर स्थित थीं. बदलाव, 1950 से ही, केवल चीनी क्लेम लाइन में हो रहा है.
सुविज्ञ पाठकों को स्पष्ट होना चाहिए कि अपनी ज़मीन गंवाने की बात से इनकार करने और उसे सही ठहराने के लिए ‘भिन्न धारणाओं’ की बात करने से भानुमति का पिटारा खुल सकता है और भविष्य में और भी इलाके हाथ से निकल सकते हैं, संभवतः चुमार, डेमचोक, फुकचे, कैलाश रेंज, हॉट स्प्रिंग्स, श्योक नदी से लगे इलाके और डेपसांग मैदान. किसे पता चीन शायद निकट भविष्य में तवांग में भी यही दलील दे?
चीन को भारत की ज़मीन को हड़पने के बाद यों ही छोड़ा नहीं जा सकता, जैसा कि अब तक होता आया है. यह तनाव 1 अप्रैल 2020 से पूर्व की यथास्थिति को लागू करने तथा मानचित्रों के औपचारिक आदान-प्रदान के साथ एलएसी की मान्यता स्थापित किए जाने के साथ समाप्त हो. 1962 में रेज़ांग ला और सिरिजाप की रक्षा करने वाले मेजर शैतान सिंह, पीवीसी और मेजर (बाद में लेफ्टिनेंट कर्नल) धान सिंह थापा, पीवीसी और दुश्मन से लड़ते हुए अपनी जान न्योछावर करने वाले हमारे 3,000 सैनिक स्वर्ग में आज बहुत नाखुश होंगे. उन्होंने मौजूदा एलएसी के साथ लगे इलाकों में लड़ते हुए अपनी जान दी थी. ये शर्मनाक बात होगी यदि हम बिना एक भी गोली चलाए, महज ‘भिन्न धारणाओं’ का बहाना बनाते हुए इन इलाकों को गंवाना स्वीकार करते हैं.
आश्चर्य नहीं कि कोई 2,500 वर्ष पहले चीनी सैन्य रणनीतिकार और दार्शनिक सन त्ज़ू ने कहा था: ‘सौ लड़ाइयां लड़कर सौ जीत हासिल करना कुशलता की पराकाष्ठा नहीं है. कुशलता का चरम बिंदु है बिना लड़े दुश्मन को वश में करना.’
(ले. जनरल एच.एस. पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (से.नि.) ने भारतीय सेना की 40 साल तक सेवा की. वे उत्तरी कमान और सेंट्रल कमान के जीओसी-इन-सी रहे. सेवानिवृत्ति के बाद वे आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. ये उनके निजी विचार हैं)
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We are giving too much benefit to China in the economic front, 60 billion trade deficit per year is not a small amount, and why Modi is entertaining China’s leader XI JINPING? My calculation is that Modi understands the actual position of India, on both economic and military front, due to negligence by previous UPA government, infrastructure in the Himalayan region, the Indian army movement was not easy while China has developed entire Tibet region giving an edge to its armed forces. Internally Modi is facing tough criticism over the removal of articles 370 & 35A, while Pakistan in Gilgit & Baltistan and China in Tibet have no such opposition. Indian electrical, electronics, and chemical industries depend upon Chinese imports, about 70 to 80 percent of raw material for the pharma sector is imported. Actually Modi is buying time when India will ready to face any challenge from China and Pakistan.
Yes, yes yes
This news is nothing but a challenge to the capability of Indian Army. don’t worry sir our army is much much better than Chinese army. we will fight and we will win.