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Wednesday, 29 October, 2025
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लद्दाख से मिजोरम तक भारत की सीमाएं अस्थिर हैं. अब एक नई आंतरिक सुरक्षा नीति की जरूरत है

कई सीमावर्ती राज्य अशांति की चपेट में हैं, चीन और पाकिस्तान इसका लाभ उठाते रहे हैं. बांग्लादेश पुराने जख्मों को कुरेद रहा है. मानो मैकबेथ’ की चुड़ैलें लड़ाई और अशांति के कढ़ाही में उबाल लाने के लिए नाच-गा रही हैं.

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किसी देश की महानता का उसकी सीमाओं की स्थिति से आंकलन किया जा सकता है. देश के आंतरिक इलाकों की तो हमेशा देखभाल की जा सकती है. राजधानी वाले शहरों को संवारा जा सकता है. लेकिन देश के सीमावर्ती इलाकों और  सीमाओं पर रहने वाले लोग जब सुखी और सुरक्षित होते हैं, तब कहा जा सकता है कि वहां सुशासन है, और देश बाहरी खतरों का मुक़ाबला करने में सक्षम है.

भारत की 15,106.7 किलोमीटर लंबी जमीनी सीमारेखा सात देशों (चीन, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, भूटान, और अफगानिस्तान) से जुड़ी है और इसकी तटीय सीमारेखा 7,516.6 किमी लंबी है जिसमें केंद्रशासित द्वीप भी शामिल हैं. सीमावर्ती राज्यों में हमें जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनके लिए कुछ हद तक हम पड़ोसी देशों को धन्यवाद दे सकते हैं. फिर भी, हकीकत यह है कि सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के प्रति हमारी असंवेदनशीलता ने या तो इन समस्याओं को गंभीर बना दिया है या नयी समस्याएं पैदा कर दी है.

लद्दाख में अव्यवस्था

भारत सरकार की अदूरदर्शिता और स्थिति से निबटने में अकुशलता ने सीमा से जुड़ी हमारी समस्याओं में लद्दाख को जोड़ दिया है. एक रमणीक और शांत वातावरण वाले प्रदेश, जहां के निवासी सरल स्वभाव के और देशभक्त हैं, वहां एक अशुभ दिन (24 सितंबर) पुलिस गोलीबारी कर देती है, जिसमें चार लोग मारे जाते हैं और करीब 80 व्यक्ति घायल हो जाते हैं. वजह? एक अलग राज्य की मांग और लद्दाख को छठी अनुसूची वाली सुरक्षा प्रदान कर रहे प्रदर्शनकारी अचानक हिंसक हो गए थे. इन मांगों के समर्थन में 35 दिनों से अनशन पर बैठे सोनम वांगचुक पर आरोप लगाया गया कि उन्होंने ने भड़काऊ भाषण दिया था. फलस्वरुप उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के अंतर्गत गिरफ्तार करके जेल में डाल दिया गया. एक शांत केंद्र शासित क्षेत्र अचानक अशांत हो गया.

लद्दाख के बौद्धों ने 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 को रद्द करने के फैसले का शुरू में स्वागत किया था. लेकिन समय बीतने के साथ, लद्दाख में स्वायत्तता और सुरक्षा के अभाव का एहसास पनपने लगा. लोगों के मन में संदेह गहराने लगा कि लद्दाख की नाजुक परिस्थिति का शोषण किया जाएगा और बाहरी लोग उनकी जमीन और रोजगार पर कब्जा कर लेंगे.

वांगचुक ने उद्योग और पर्यटन की बड़ी-बड़ी परियोजनाओं पर चिंता जाहिर की थी. लेह की ‘एपेक्स बॉडी’ के सह-अध्यक्ष चेरिंग दोरजय लक्रुक का कहना है कि इस केंद्र शासित क्षेत्र में जो आंदोलन हुआ उसकी मुख्य वजह बेरोजगारी में बढ़ोतरी और स्थानीय परिषदों का ‘लगभग निष्क्रिय’ हो जाना है. आंदोलन का विरोध करने वालों की दलील है कि महज तीन लाख की आबादी को अलग राज्य नहीं दिया जा सकता, लेकिन नागालैंड को 1963 में जब अलग राज्य बनाया गया था तब उसकी आबादी लगभग इतनी ही थी.

वांगचुक के कुछ कथित बयानों के लिए उन्हें राष्ट्र विरोधी बताया जा रहा है. उनके बयान भले आपत्तिजनक रहे हो, परंतु हम दोरंगा मापदंड नहीं अपनाना चाहिए. नगा नेता थुइंगलेंग मुइवा ने अभी हाल में बयान दिया है कि “आज या कल, कभी भी नगा नेशनल झंडे और नगा नेशनल संविधान पर कोई समझौता नहीं होगा.” इसके पहले 2020 में उन्होंने कहा था, “नगा लोग भारत के साथ रह सकते हैं, वह अपनी संप्रभुता साझा कर सकते हैं… लेकिन भारत में विलय नहीं करेंगे.” मुइवा के खिलाफ कभी कोई कानूनी कार्रवाई नहीं की गई. ध्यान रहे कि वांगचुक के आंदोलन का स्वरूप मुख्यतः गांधीवादी रहा है चाहे वह 2023 का ‘दिल्ली चलो’ हो या 2024 का आमरण अनशन, या 2025 की 35 दिनों की भूख हड़ताल.

भारत सरकार को लद्दाख के जख्मों पर मरहम लगाना चाहिए. यह अच्छी बात है कि हिंसात्मक घटनाओं की न्यायिक जांच का आदेश दे दिया गया है, लेह की ‘एपेक्स बॉडी’ और करगिल डेमोक्रेटिक एलायंस से बातचीत भी शुरू की जा रही है. बेहतर होगा कि केंद्र सरकार वांगचुक के प्रति अपने व्यवहार पर पुनर्विचार करे, निष्क्रिय की गई हिल काउंसिलों को सक्रिय करे, लोक सेवा आयोग का गठन करे, और पारिस्थितिकी का एक चार्टर तैयार करे.

मणिपुर की आग बुझी नहीं

मणिपुर की हालत बद से बदतर होती गई है. 3 मई 2022 को शुरू हुई जातीय हिंसा ने मैतेई और कुकी-जो समुदायों के बीच ऐसा लगता है स्थायी खाई बना दी है. खूनी संघर्षों में अब तक 258 लोग मारे गए हैं, 60 हजार से ज्यादा लोग बेघर हुए हैं.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्तमान घटनाक्रम के दो साल बाद 13 सितंबर 2025 को वहां का दौरा किया. प्रदेश के लिए उन्होंने लिए 8,500 करोड़ रुपये मूल्य के विकास पैकेज की घोषणा की,लेकिन ऐसा लगता है कि इसने वहां के लोगों को उत्साहित नहीं किया. मैतेई समुदाय राज्य की अखंडता बनाए रखने पर अडिग है; लेकिन कुकी-ज़ो समुदाय विधानसभा समेत अलग केंद्रशासित क्षेत्र की मांग कर रहा है. केंद्र सरकार को ऐसी दीर्घकालिक योजना बनानी पड़ेगी जो सभी समुदायों की पहचान, क्षेत्रीय अखंडता, स्वायत्तता, और अवैध प्रवासियों से संबंधित सरोकारों को संतुष्ट करे.

जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा

जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने में देरी से वहां भी असंतोष फैल रहा है. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला केंद्र सरकार के सामने अपनी मांगें बड़ी शालीनता से पेश करते रहे हैं. बीजेपी सरकार के लिए लिए बेहतर होगा कि वह उन पर भरोसा करें. संकेत यह भी बताते हैं कि पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद की अपनी पुरानी चाल चलने की तैयारी कर रहा है. क्या हम निकट भविष्य में दूसरे ऑपरेशन सिंदूर के लिए तैयार हैं?

नागालैंड: बिना तस्वीर का फ्रेम

नागालैंड में 2015 के ‘फ्रेमवर्क’ समझौते ने बड़ी उम्मीदें जगाई थी. लेकिन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालैंड (आईसाक-मुइवा) ने अलग झंडे और अलग संविधान की मांग पर अड़कर स्थिति बिगाड़ दी है. 2019 में राज्य के राज्यपाल का पद संभालने के बाद आर.एन. रवि मसले के समाधान की ओर बढ़ रहे थे लेकिन उनके व्यावहारिक मगर सख्त रवैये से जो विरोध हुआ उसके उसको देखते दुर्भाग्य से उन्हें 2021 में तमिलनाडु भेज दिया गया.

मिज़ोरम: शरणार्थियों का ठिकाना

गृह मंत्रालय के निर्देशों के बावजूद मिजोरम सरकार ने 2021 से म्यांमार के लगभग 30,000 चिन शरणार्थियों को शरण दी है. इसके पीछे जातीय संबंध और मानवीय कारण बताए गए हैं. भारत सरकार के म्यांमार सीमा पर बाड़ लगाने के फैसले का नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम के कुछ जनजातीय समूह विरोध कर रहे हैं. इन समूहों के सीमा पार जातीय संबंध हैं, परंतु विरोध के पीछे कुछ ऐसे लोग भी हैं जो नशीले पदार्थों की तस्करी से जुड़े हैं.

कई सीमावर्ती राज्य इस समय अशांत स्थिति में हैं. चीन और पाकिस्तान पहले से ही इस स्थिति का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं. बांग्लादेश पुराने घावों को फिर से कुरेद रहा है. ऐसा लगता है जैसे मैकबेथ की चुड़ैलें क्षेत्र में अपनी अपनी कड़ाही हिला रही हैं ताकि संघर्ष और अव्यवस्था फैले.

हमें अपनी आंतरिक सुरक्षा नीति को, राज्यों की नई समस्याओं को देखते हुए, संशोधित करने की जरूरत है.

लेखक रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी हैं. पुलिस सुधार के लिए वह करीब तीन दशक से अभियान चला रहे हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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