scorecardresearch
Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतभारत के बॉर्डर एरिया को खोलने की जरूरत है, इसे दुनिया का टूरिस्ट कैपिटल बनाना होगा

भारत के बॉर्डर एरिया को खोलने की जरूरत है, इसे दुनिया का टूरिस्ट कैपिटल बनाना होगा

क्षेत्रीय अखंडता को विकास, नागरिक बुनियादी ढांचे, बस्तियों और पर्यटकों के आने से सबसे अच्छी तरह से सुरक्षित किया जा सकता है. चीन एक दशक से इस नीति का पालन कर रहा है.

Text Size:

निकट भविष्य में पर्यटकों को लद्दाख के “निषिद्ध क्षेत्रों” में जाने की अनुमति दी जा सकती है. लद्दाख को 1970 के दशक में वापस पर्यटकों के लिए खोल दिया गया था, लेकिन आज भी उन्हें पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग त्सो और त्सो मोरीरी झीलों तक ही जाने की अनुमति है. वे जिन सड़कों का उपयोग कर सकते हैं, उनकी संख्या भी प्रतिबंधित है. टाइम्स ऑफ इंडिया की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पहले कदम के तौर पर चांग चेनमो सेक्टर को धीरे-धीरे पर्यटन के लिए खोले जाने की संभावना है. शुरुआत में, आगंतुकों को लेह से 214 किमी दूर मार्सिमिक ला (दर्रा/pass) से सोग्त्सलु तक जाने की अनुमति दी जाएगी. फेज 2 में पर्यटकों को हॉट स्प्रिंग्स और करम सिंह मेमोरियल तक जाने की इजाजत होगी.

माना जा रहा है कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश के सीमावर्ती क्षेत्रों को भी पर्यटन के लिए खोले जाने की संभावना है. लद्दाख की तरह, इन राज्यों में भी पर्यटन ज्यादातर रिहायशी इलाकों और वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर तीन से चार दर्रों तक ही सीमित है. हिमाचल प्रदेश में, बॉर्डर पर्यटकों के लिए प्रतिबंधित है. मानसरोवर यात्रा के लिए पर्यटक सरकार-नियंत्रित यात्रा के रूप में उत्तराखंड में एलएसी पर लिपुलेख दर्रे के जरिए जाते हैं. सिक्किम में, भारतीय पर्यटकों को नाथू ला दर्रा जाने की अनुमति है. अरुणाचल प्रदेश में एलएसी पर केवल बुम ला दर्रा भारतीय पर्यटकों के लिए खुला है. स्थानीय लोगों को चुमी ग्यात्से की धार्मिक यात्राओं की अनुमति है, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘पवित्र जलप्रपात’ कहा जाता है.

अब मैं इन बातों का विश्लेषण कर रहा हूं कि क्यों पर्यटकों को सीमावर्ती क्षेत्रों में जाने की अनुमति क्यों नहीं दी जाती और बॉर्डर के डेवलेपमेंट और सिक्युरिटी के लिए उन्हें खोलने की तत्काल आवश्यकता क्यों है.

कारण, कि क्यों?

सीमावर्ती क्षेत्रों में जनता और पर्यटकों की पहुंच को प्रतिबंधित करने के तीन कारण हैं. एक दशक पहले तक तो सड़कों और बुनियादी ढांचे की कमी निश्चित रूप से एक कारण रही है. एक तो, यह एक सोची-समझी नीति थी कि सड़कें न बनाई जाएं ताकि किसी बड़ी दुश्मन को इसकी पहुंच न हो सके. 2007 में, चाइना स्टडी ग्रुप की सिफारिशों पर, कुछ संवेदनशील क्षेत्रों को छोड़कर एलएसी तक सड़कों को विकसित करने का निर्णय लिया गया. धीमी शुरुआत के बाद, 2014 से भाजपा सरकार द्वारा सीमावर्ती सड़कों के विकास को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई. मई 2020 में चीनी घुसपैठ का यह एक बड़ा कारण था. तब से, सीमावर्ती सड़कों का युद्ध स्तर पर विकास किया जा रहा है.


यह भी पढ़ेंः सेना के अधिकारियों के लिए कॉमन ड्रेस कोड महज दिखावटी बदलाव है, समस्या इससे कहीं गहरी है


अगले दो वर्षों में ज़ोज़ी ला दर्रा और शिंकू ला दर्रा टनल लेह को हर मौसम में कनेक्टिविटी (all-weather connectivity) प्रदान करेंगी. लेह के पूर्व में डीबीओ, गलवान वैली चांग चेनमो सेक्टर, पैंगोंग त्सो के उत्तर में फिंगर 4, अने ला, कैलाश रेंज, डेमचोक, उमलिंग ला, इमिस ला और चुमार तक बारहमासी सड़कों का निर्माण किया गया है. ये सभी सड़कें अब कई अन्य सड़कों (lateral roads) द्वारा आपस में जुड़ी हुई (interlinked) हैं. मनाली से दारचा तक की 100 किमी की दूरी को छोड़कर मनाली से पूर्वी लद्दाख तक सड़क मार्ग से अत्यधिक ऊंचाई वाले इलाके में 2,000 किमी तक जाने व वापस आने की यात्रा उसी सड़क पर दोबारा आए बिना पूरी की जा सकती है. यदि उस क्षेत्र के बारे में और ज्यादा जानने के लिए लैटरल रोड्स का प्रयोग किया जाता है तो यह पूरी यात्रा 3 हजार किलोमीटर की हो जाएगी, जो कि इसे दुनिया के सबसे साहसिक सर्किटों में से एक बनाती है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

इसी तरह हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश की पूरी सीमा को सड़कों से जोड़ दिया गया है. निर्माणाधीन सेला दर्रा टनल तवांग तक सभी मौसम में पहुंच प्रदान करेगी. लद्दाख और अरुणाचल प्रदेश के लिए रणनीतिक रेल संपर्क की भी योजना है. पर्यटन इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलेपमेंट सरकार की नीति और सार्वजनिक व निजी निवेश पर निर्भर है. निजी निवेश कॉमर्स द्वारा संचालित है. मुझे कोई कारण नजर नहीं आता कि एक बार सीमाएं खुल जाने के बाद कुछ वर्षों में विश्व स्तरीय टूरिज़म इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास और व्यावसायीकरण क्यों नहीं किया जा सकता है.

वर्षों से दूसरा कारण चीन की बढ़ती संवेदनशीलता रही है. यह लद्दाख में उचित नहीं है क्योंकि चीनी दावा 1959 की दावा रेखा तक ही सीमित है, जो अब वे सिंधु घाटी को छोड़कर सभी क्षेत्रों में रखते हैं. बाराहोती क्षेत्र को छोड़कर हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सीमाएं अच्छी तरह से बसी हुई हैं और चीन द्वारा मान्यता प्राप्त हैं. चीनी अरुणाचल प्रदेश के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं लेकिन 2020 के बाद से यह प्रासंगिक नहीं रह गया है. दोनों देश मजबूती के साथ सीमा की रक्षा कर रहे हैं. परमाणु हथियारों और अनिश्चित परिणामों के कारण युद्ध की संभावना कम है. चीन अब तक जो कर चुका है, उससे बुरा कुछ और नहीं कर सकता.

तीसरा कारण सुरक्षा के प्रति जुनून और “इनर लाइन परमिट” की  कोलोनियल (Colonial) परंपरा है. अपनी ही जनता से क्या छुपाना है? सैन्य क्षेत्रों को हमेशा प्रतिबंधित किया जा सकता है. पुलिस और ITBP द्वारा सीमा पार आवाजाही की जांच की जा सकती है. किसी भी मामले में, जानकारों को ओपन-सोर्स सैटेलाइट इमेजरी के माध्यम से सशस्त्र बलों की तैनाती दिखाई देती है. अगर हम देश के बाकी हिस्सों में जनता के समर्थन से युद्ध लड़ सकते हैं तो चीन के साथ उत्तरी सीमाओं पर क्यों नहीं?

सीमाएं खोलो

क्षेत्रीय अखंडता विकास, नागरिक बुनियादी ढांचे, बस्तियों और पर्यटकों के आने से सबसे अच्छी तरह से सुरक्षित है. चीन एक दशक से इस नीति का पालन कर रहा है. 2015 में, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा था, “किसी देश पर शासन करने और तिब्बत को स्थिर करने के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों को नियंत्रित करना महत्वपूर्ण है.” 2017 में अपने सीमा क्षेत्र को पुनर्जीवित करने के लिए $4.6 बिलियन का आवंटन किया गया था, जिसमें 624 ‘शियाओकांग’ सीमावर्ती गांवों का निर्माण शामिल था. ऐसे और गांव निर्माणाधीन हैं. 2021 में, चीन ने भूमि सीमा कानून पारित किया, जो विवादित क्षेत्र पर संप्रभुता के आश्वासन के अलावा, यह निर्धारित करता है कि राज्य “सीमा रक्षा और सीमावर्ती क्षेत्रों में सामाजिक, आर्थिक विकास के बीच समन्वय को बढ़ावा देगा.”

गृह मंत्रालय के तहत भारत का सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (बीएडीपी) 1986-87 से अपनी सीमावर्ती आबादी की सुरक्षा और भलाई के लिए चालू है. हालांकि, अपर्याप्त बजट आवंटन और सुस्त निष्पादन से विकास प्रभावित हुआ है. उदाहरण के लिए, बीएडीपी बजट वित्त वर्ष 2018 में 1,100 करोड़ रुपये से घटाकर वित्त वर्ष 23 में 565.72 करोड़ रुपये कर दिया गया था – और उस वर्ष बाद में घटाकर 221.61 करोड़ रुपये तक कर दिया गया. बजट 2022-2023 में वाइब्रेंट विलेज प्रोग्राम (वीवीपी) की घोषणा विशेष रूप से उत्तरी सीमाओं के लिए की गई थी.

बीएडीपी और इसकी उप-परियोजना, वीवीपी, की अवधारणा दोषपूर्ण नहीं हो सकती. प्रत्येक गांव को सभी नागरिक सुविधाओं के साथ सड़क मार्ग से जोड़ा जाएगा. यह स्थानीय संस्कृति को प्रदर्शित करेगा और उन्हें आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाएगा. पर्यटन गांव और क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था का एक आंतरिक हिस्सा होगा. हिमालय की सीमाओं को ऐसे 500-600 गांवों की आवश्यकता होगी.

एक अनूठा अवसर भारत को आमंत्रित कर रहा है. चीन के साथ 3,888 किलोमीटर लंबी सीमा के साथ 100-150 किलोमीटर की बेल्ट में अद्वितीय प्राकृतिक भव्यता है और यह पर्यटकों के लिए एक नया क्षेत्र है. यह एक ऐसे क्षेत्र में 10 स्विट्जरलैंड के बराबर है जो अपनी सुंदरता से पर्यटकों को आकर्षित कर सकता है. पर्यटन पर विशेष ध्यान देने के साथ विकास के लिए केंद्र सरकार और चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश की सरकारों द्वारा एक मास्टर प्लान बनाया जाना चाहिए. अत्याधुनिक पर्यटन अवसंरचना बनाने के लिए सार्वजनिक और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी को आमंत्रित करें. मुझे कोई कारण नजर नहीं आता कि यह क्षेत्र विश्व की पर्यटन राजधानी क्यों न बन जाए. सरकार को सीमा क्षेत्र को पर्यटन के लिए खुला घोषित करके गेंद को आगे बढ़ाना चाहिए.

(लेफ्टिनेंट जनरल एच एस पनाग पीवीएसएम, एवीएसएम (आर) ने 40 वर्षों तक भारतीय सेना में सेवा की. वह सी उत्तरी कमान और मध्य कमान में जीओसी थे. सेवानिवृत्ति के बाद, वह सशस्त्र बल न्यायाधिकरण के सदस्य थे. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः चीन एलएसी पर बफर जोन बढ़ाने की बात कर रहा है, भारत के लिए क्या हो सकता है बेहतर कदम 


 

share & View comments