लद्दाख में पांच महीने से जारी गतिरोध सुलझाने के लिए भारत और चीन के बीच 12 अक्टूबर को होने वाली सातवें दौर की सैन्य-स्तरीय वार्ता निर्णायक साबित हो सकती है, लेकिन सिर्फ आठवें दौर के विचार-विमर्श की तारीख को अंतिम रूप देने के लिए. मुद्दा सुलझाने को लेकर चीन के रुख और गंभीरता, बल्कि इसकी कमी, को देखते हुए नई दिल्ली को बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं बांधनी चाहिए.
रिपोर्टों के अनुसार, चीनी पक्ष की अपेक्षा है कि भारत पैंगोंग त्सो के दक्षिणी तट को खाली कर दे और रेजांग ला रिजलाइन के पास अपने ठिकानों से भी पीछे हट जाए. भारत इस पर जोर दे रहा है कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी या पीएलए को पैंगोंग त्सो के उत्तरी तट पर फिंगर फोर से हटाया जाना चाहिए. दरअसल, भारत अपने इस रुख पर कायम है कि पीएलए को फिंगर आठ तक वापस जाना चाहिए, जो कि अप्रैल 2020 में उसके आगे बढ़ने से पहले इन क्षेत्रों में चीन की स्थिति हुआ करती थी. भारत वास्तविक नियंत्रण रेखा या एलएसी की अपनी धारणा के अनुसार इसे भारतीय क्षेत्र में अतिक्रमण मानता है. इस सबके बीच इसमें कोई दो राय नहीं है कि उत्तरी सीमा पर स्थिति बेहद जटिल बनी हुई है.
सर्दियां हों या नहीं, चीन कार्रवाई करेगा
चीन ने 1959 क्लेम लाइन का मुद्दा उठाकर वार्ता प्रक्रिया में नई जटिलता जोड़ दी है. भारत ने यह तर्क खारिज कर दिया है और बीजिंग से कहा है कि वह वास्तविक सीमा को लेकर ‘असमर्थनीय एकतरफा व्याख्या को आगे बढ़ाने से बचे.’ टकराव वाले कुछ क्षेत्रों में दोनों सेनाओं के पीछे हटने की जानकारी के विपरीत मौजूदा स्थिति यह है कि आधा दर्जन से ज्यादा जगहों पर दोनों सेनाएं एकदम आमने-सामने हैं. कुछ टिप्पणीकारों के अनुसार, बर्फबारी शुरू होने के साथ चीन की किसी तरह की सैन्य कार्रवाई या सेना का और आगे बढ़ना रुक सकता है, और वह इसे मौजूदा स्थिति में बनाए रख सकता है. वहीं, भारतीय सेना भी अपने ठिकानों पर जमी रहेगी.
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लेकिन पिछले अनुभवों को देखते हुए कि अपने दुश्मनों को हैरत में डालकर अचानक कार्रवाई करना चीन की फितरत है और पीएलए के कमांडर-इन-चीफ शी जिनपिंग की घरेलू बाध्यताओं के मद्देनजर नई दिल्ली को चीन की तरफ से कभी भी सीमित सैन्य कार्रवाई का सामना करने को तैयार रहना चाहिए. पीएलए भारत के साथ एक बेहतर सौदेबाजी और बीजिंग के रणनीतिक उद्देश्य आगे बढ़ाने के लिए अपनी स्थिति मजबूत करने का प्रयास करेगी.
भारत के पास विकल्प
चीन का कोई भी रणनीतिक लाभ क्षेत्र में भारत की सुरक्षा स्थिति कमजोर होने और शक्ति संतुलन बिगड़ने में ही निहित है. ऐसे में यह बेहद जरूरी है कि हम संघर्ष क्षेत्र में अपनी सैन्य क्षमताओं को मजबूत करने के साथ चीन को इस तरह पटखनी दें जिससे बीजिंग के हितों को सबसे ज्यादा चोट पहुंचे. भारत में चीन के दूतावास के प्रेस सेक्शन का एक पत्र काफी तेजी से सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहा है जिसमें भारतीय मीडिया को ‘सलाह’ दी गई है कि ताइवान के संदर्भ में ‘देश’ या ‘रिपब्लिक ऑफ चाइना’ न लिखें.
नई दिल्ली को जाहिर तौर पर और स्पष्ट शब्दों में बीजिंग को यह बता देना चाहिए कि एक चीन की हमारी नीति स्थायी नहीं है और भारत अपने ‘दीर्घकालिक आधिकारिक रुख’ पर अपनी तरफ से कभी भी और किसी भी तरीके से समीक्षा करने का अधिकार रखता है. शिनजियांग और तिब्बत में मानवाधिकार का मसला, उइगरों और तिब्बतियों खासकर भिक्षुओं के साथ अमानवीय व्यवहार को ज्यादा से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाया जाना चाहिए. परी कथाओं की तरह ड्रैगन का जीवन भी सिर्फ जलाकर रख देने वाली उसकी अग्नि शक्ति नहीं है. उसकी भी कुछ कमजोरियां हो सकती हैं या वह भी बाकी सब की तरह ही हो सकता है.
शिनजियांग, तिब्बत और ताइवान आदि में चीन का सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव बढ़ने के बावजूद ये क्षेत्र बीजिंग के लिए चिंता का विषय बने हुए हैं. इन क्षेत्रों में मजबूत बहुस्तरीय सैन्य और सुरक्षा व्यवस्था के साथ बीजिंग का कमांड स्ट्रक्चर अभेद्य है. इन विवादग्रस्त क्षेत्रों में चीन के दखल और शिनजियांग और तिब्बत को जबरन जोड़े जाने से उसे नेपाल और भारत जैसे मध्य एशियाई देशों के साथ सीमाएं स्थापित करने में बड़ा फायदा मिला है. 1959 में क्रूर सैन्य बल के बूते विद्रोह दबाने और तिब्बत को जबरन अपने साथ जोड़े जाने तक चीन की कोई भी सीमा भारत के साथ नहीं लगती थी.
चीन-रूस धुरी बने
यूएसएसआर के विघटन ने चीन को नवगठित स्वतंत्र राष्ट्रों के राष्ट्रमंडल (सीआईएस) और मध्य एशियाई देशों, जो कभी सोवियत संघ के अधीन आते थे, तक अपने आर्थिक विस्तार एक बड़ा अवसर प्रदान किया. 1999 में उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के कोसोवो अभियान के दौरान बेलग्राद में चीनी दूतावास पर अमेरिकी बमबारी ने अमेरिका-चीन संबंधों पर प्रतिकूल असर डाला और बीजिंग को वाशिंगटन से खतरे की अवधारणा को बढ़ाया. मास्को भी सुरक्षा और रणनीतिक कारणों से उन देशों में पैर जमाने की कोशिश में था, जो कभी उसके अधीन थे. नई भौगोलिक परिस्थिति में बढ़ती रणनीतिक और आर्थिक प्रासंगिकता ने चीन और रूस को साझा हित में प्रभाव और आर्थिक और तकनीकी-सैन्य ताकत बढ़ाने के एक मंच पर ला दिया.
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लेकिन हालिया घटनाएं इंगित करती हैं कि दोनों भागीदारों की रणनीतिक स्थिति में बदलाव नई दिल्ली के हित में हैं. मॉस्को में हाल में हुई शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक और टोक्यो में क्वाड बैठक के दूसरे दौर को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए.
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो पिछले कुछ समय से चीन के आधिपत्यवादी एजेंडे की निंदा करने में मुखर रहे हैं. टोक्यो में क्वाड बैठक की शुरुआत में, जहां ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और अमेरिका के विदेश मंत्रियों ने समूह की एकजुटता मजबूत करने के विचार को आगे बढ़ाया, पोम्पियो ने फिर एक स्वतंत्र और मुक्त भारत-प्रशांत की जरूरत बताई. लेकिन इससे भी अहम यह है कि उन्होंने ‘दमन, दादागिरी और भ्रष्टाचार’ को लेकर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के खिलाफ इन सहयोगियों के एकजुट होने की विशेष जरूरत पर बल दिया.
मॉस्को में एससीओ की बैठक के बाद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और विदेश मंत्री एस. जयशंकर दोनों तेहरान होते हुए लौटे और वहां उन्होंने अपने ईरानी समकक्षों के साथ महत्वपूर्ण बैठकें कीं. तथ्य यह है कि अमेरिका की वह चेतावनी भी भारत को इन दोनों देशों के साथ संपर्क से नहीं रोक पाई जिसमें कहा गया है कि काउंटरिंग अमेरिका’स एडवर्सरीज थ्रू सैंक्शन्स एक्ट (सीएएटीएसए) के तहत ऐसे किसी भी देश को कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा जो ईरान और रूस अथवा इस कानून के तहत चिह्नित अन्य देशों के साथ रणनीतिक और/या सैन्य संबंध रखते हैं. चीन के साथ टकराव के मौजूदा दौर में भारत को अपनी पसंद समझदारी से तय करनी है लेकिन वह किसी अन्य ताकत को अपने कंधे का इस्तेमाल करने की अनुमति नहीं दे सकता है.
(लेखक ‘ऑर्गनाइजर’ के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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