आज गणतंत्र दिवस है. इसे हम हमेशा की तरह नयी दिल्ली में भव्य फौजी परेड और सरकारी दफ्तरों, शिक्षण संस्थाओं, अपार्टमेंट परिसरों और मुहल्लों में राष्ट्रध्वज फहरा कर मनाएंगे. हम देशभक्ति के गीत-गाने गाएंगे, अपने सैनिकों को सम्मानित करेंगे, अपने समारोह के मुख्य अतिथि का भाषण सुनेंगे और इसके बाद छुट्टी का लुत्फ उठाएंगे.
कुछ आयोजनों में संविधान की प्रस्तावना का ऊंचे स्वर में पाठ किया जाएगा. हाल के वर्षों में यह एक बहुत अच्छी प्रथा शुरू हुई है, जो आगे और ज्यादा लोकप्रिय हो सकती है. इन सबके अलावा, इस साल कुछ असामान्य बातें भी हुई हैं. जिन सम्मानित हस्ती को निमंत्रित किया गया वे नयी दिल्ली नहीं आ सके, जबकि हजारों की संख्या में अनामंत्रित किसान अपनी गणतंत्र दिवस परेड करने यहां आ पहुंचे.
हमने भारतीय गणतंत्र को ऊंचे आसन पर बैठा दिया है, जबकि हिफाजत की कमी के कारण वह कमजोर पड़ने लगा है. खुले तौर पर तो हम गणतंत्र के प्रति सम्मान प्रकट करते हैं, संविधान की पूजा तक करते हैं मगर उसे व्यवहार में लाने की परवाह नहीं करते. ट्रैफिक के नियमों की जानबूझकर अवहेलना करने वाले आम नागरिक से लेकर टैक्स की चोरी करने वाले मझोले व्यवसायियों तक, अपने जेबें भारी करने वाले सरकारी अधिकारियों से लेकर सत्ता का दुरुपयोग करने वाले राजनीतिक नेताओं तक, हवा का रुख देखकर अपनी दिशा बदलने वाले जजों और दूसरे संवैधानिक अधिकारियों तक हर कोई संविधान की दुहाई देता रहता है. ऐसे हम सब मिलकर 26 जनवरी मनाते हैं.
इसके बावजूद हम सबके कर्मों का कुल नतीजा यही निकलता है कि गणतंत्र दिन-ब-दिन कमजोर पड़ता जाता है. कमजोर पड़ने की यह प्रक्रिया दो पीढ़ी पहले शुरू हुई. शुरू में इसकी गति धीमी थी. लेकिन अब जैसे जमीन ही खिसक रही है. पिछले महीने इस स्तंभ में मैंने लिखा था— ‘हमें इस कमजोरी का एहसास तक नहीं है… गणतंत्र के निरंतर, व्यापक रूप से कमजोर पड़ते जाने पर कहीं से शायद ही कोई उफ तक कर रहा हो.’
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एक झटके में
यह बेहद निराशाजनक और विषादपूर्ण लगता है. आज कोई भी ईमानदारी से यह नहीं कह सकता कि वह किसी भी स्तर के सरकारी कर्मचारियों से यह अपेक्षा रखता है कि वे तमाम लोकप्रिय पूर्वाग्रहों, राजनीतिक भेदभाव या पैसे के प्रलोभन के बावजूद अपने संवैधानिक कर्तव्य का निर्वाह करेंगे. अगर हमें ऐसे भरोसेमंद सरकारी अधिकारियों और संस्थाओं का नाम लेने को कहा जाए जो किसी भी चुनौती के बावजूद अपने कर्तव्य का निर्वाह करने से पीछे न हटते हों, तो ऐसे गिनती के ही मिलेंगे.
इसके विपरीत दिशा में उंगली उठाकर अगर हम यह सवाल करें कि क्या हम खुद सरकारी अधिकारियों से यह ‘अपेक्षा’ रखते हैं कि वे वही करें जो उन्हें संवैधानिक तौर पर करना चाहिए या हम तो यही चाहते हैं कि वे वही करें जो हम चाहते हैं? अगर दोनों में हमें कोई फर्क नहीं नज़र आता तो हम उनके मुकाबले ज्यादा दोषी हैं जिन पर हम आरोप लगा रहे हैं.
भारतीय गणतंत्र क्यों दबाव में है, यह समझ पाना मुश्किल नहीं है. इसने उन मूल्यों और मानकों को प्रतिष्ठापित किया— जो आज भी दुर्भाग्य से— उस समाज से बहुत आगे हैं जिस समाज को वह शासित करना चाहता था.
एक झटके में उसने सदियों से स्थापित समाज व्यवस्था को उलट दिया था. उसने उस देश में व्यक्ति की प्रमुखता को मान्यता दे दी, जिसके सामाजिक जीवन पर अंतर्विवाही समुदायों का वर्चस्व था, जहां श्रेणीबद्ध वर्गीकरण की जड़ें गहरी थीं. उसने नागरिक राष्ट्रवाद पर आधारित आधुनिक राज्यतंत्र को आकार देने और साथ में जाति, नस्ल और धर्म पर आधारित भेदभावों को खत्म करने की कोशिश की.
इसने ऐसा अनूठा संविधान अपनाया, जिसका लक्ष्य प्रगतिशील सामाजिक क्रांति थी मगर जैसे ही इसे लागू किया गया, पहले दिन से ही इसका विरोध शुरू हो गया. नये गणतंत्र के नेताओं ने इसके महत्व के बारे में जनता को शिक्षित करने में रुचि लेना छोड़ दिया और यह काम हाई स्कूलों के समाज अध्ययन के बेतरतीब पाठ्यक्रम के भरोसे छोड़ दिया जिसमें किताब के पन्नों पर छपे पाठ को समझे बिना रटना भर होता था. इससे बात बनी नहीं.
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व्यवहार में गणतंत्र
बाबा साहब आंबेडकर की महानता जितनी उनकी मेधा के कारण है, उतनी उनकी दूरदर्शिता के कारण भी है. उन्होंने बिलकुल ठीक कहा था कि ‘संविधान चाहे जितना भी अच्छा क्यों न हो, उसे लागू करने वाले अगर अच्छे नहीं हैं तो यह खराब ही साबित होगा.’ इसलिए उनकी सबसे अहम चेतावनी को ध्यान में रखना जरूरी है.
उन्होंने कहा था कि अगर हम ये तीन चीजें नहीं करते तो भारत अपनी आज़ादी फिर गंवा सकता है. पहली यह कि ‘हम अपने सामाजिक तथा आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीकों का ही इस्तेमाल करें’. दूसरी, हम ‘अपनी स्वाधीनताएं किसी महान व्यक्ति के भी चरणों में समर्पित न करें, उसे इतनी ताकत न दे दें जो उसे हमारी संस्थाओं को नाकाम करने की छूट दे’ और तीसरी, ‘हम अपने राजनीतिक लोकतंत्र को सामाजिक लोकतंत्र में भी तब्दील करें.’
आंबेडकर की प्रतिमाओं में प्रायः हम उनके एक हाथ में संविधान की प्रति देखते हैं जबकि आगे फैले दूसरे हाथ की उंगली आगे बढ़ने का संकेत कर रही होती है. यह शानदार प्रतीक है. लेकिन हमने उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उन्हें ऊंचे आसान पर चढ़ा दिया है जबकि हम उनके संदेश के उलट काम करते रहते हैं. वे जिस दिशा की ओर इशारा कर रहे हैं उस पर आगे बढ़ने का वक्त बिलकुल आ गया है.
भारतीय गणतंत्र को सुरक्षा, संरक्षण और शक्ति प्रदान करने के लिए आंबेडकर के इन तीन दिशानिर्देशों के सिवा और कुछ देखने की जरूरत नहीं है— संवैधानिक तरीकों पर अटल रहें, चापलूसी से दूर रहें और ‘स्वाधीनता, समानता और भाईचारा को जीवन का सिद्धांत’ बनाएं.
भारत जैसा विशाल और विविधता वाला देश इस दिशा में बिना कष्ट उठाए अचानक परिवर्तन नहीं ला सकता. नागरिक, सरकारी कर्मचारी और नेता रातोरात नहीं बदल सकते. लेकिन हम धीरे-धीरे छोटे-छोटे परिवर्तन करते आगे बढ़ सकते हैं.
हर कोई थोड़ा और कानून का पालन करने वाला बने, अपने नेताओं, दलों और विचारधाराओं के प्रति थोड़ा और सावधान बने, अपने विशेषाधिकारों और पूर्वाग्रहों के लिए थोड़ा और सजग बने तो एक ऐसा भारत बन सकता है जो एक जीवंत गणतंत्र हो, जिसका गणतंत्र ऊंचे आसन पर नहीं बल्कि लोगों के व्यवहार में हो.
(लेखक तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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