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Monday, 6 May, 2024
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भारतीयों ने सरदार पटेल को बस 1947 के एकीकरण तक सीमित कर दिया है, वो और भी बहुत कुछ थे

1937 के प्रांतीय चुनावों तक पटेल कांग्रेस में एक बड़ी ताक़त बन चुके थे. वो पार्टी फंड्स एकत्र करते थे, उम्मीदवारों का चयन कर थे और नेहरू की अपील के पीछे एक ठोस पार्टी मशीन साबित हुए.

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अधिकतर लोगों के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के बारे में, 562 रियासतों को भारतीय संघ में एकीकृत करने की उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि से आगे सोच पाना बहुत मुश्किल है. उनके इस भगीरथ प्रयास की अहमियत को कम किए बिना, ये याद रखना बेहद ज़रूरी है कि एकीकरण के इस काम ने, उनके 75 वर्ष लंबे जीवन के सिर्फ आख़िर के कुछ वर्ष लिए. उससे पहले के सात दशकों में उन्होंने क्या किया, ये ज़्यादातर लोगों की साझा याददाश्त से बाहर ही रहता है.

लंदन से एक बैरिस्टर और एक ज़बर्दस्त क्रिमिनल वकील, जिनकी अहमदाबाद में एक फलती-फूलती प्रैक्टिस थी, वल्लभ भाई पटेल को गांधी के सरल लेकिन नए तरीक़े ने राजनीति की ओर खींच लिया. 1918 में सत्याग्रह आंदोलन के बाद से, जो अन्यायपूर्ण भूमि कराधान के खिलाफ एक अभियान था, वो गांधी के क़रीबी सहयोगी बन गए. उस समय तक पटेल को विधुर हुए 43 वर्ष हो चुके थे. खेड़ा अभियान के बाद गांधी ने टिप्पणी की, ‘मुझे मानना होगा कि जब मैं वल्लभ भाई से पहली बार मिला, तो मैं सोचने लगा कि ये कठोर दिखने वाला व्यक्ति कौन है, और क्या वो उस काम को कर पाएगा जो मैं चाहता हूं. लेकिन जितना ज़्यादा मैं उनको जानता गया, उतना ही मुझे लगने लगा कि मुझे उनकी सहायता ज़रूर लेनी चाहिए…मुझे स्वीकार करना होगा कि अगर उनकी सहायता न होती, तो ये अभियान इतनी कामयाबी के साथ न चल पाता’. (सरदार वल्लभभाई पटेल वॉल-1, नरहरि पारिख, नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद. पेज 89)

पटेल को गांधी में एक आदर्श नायक नज़र आया, जो साहसी, प्रतिबद्ध, और उन्नतिशील थे. पटेल की दार्शनिक चर्चाओं में ज़्यादा रुचि नहीं थी. लेकिन उन्होंने गांधी से कताई, खादी, अहिंसक रणनीतियां, सांप्रदायिक सौहार्द्र और अस्पृश्यता उन्मूलन जैसी चीज़ें, ख़ामोशी के साथ अपनाकर अपनी समझ के हिसाब से आत्मसात कर लीं. बाद के सत्याग्रह आंदोलनों ने साबित कर दिया, कि पटेल एक शानदार आयोजक, प्रतिबद्ध सैनिक, और एक योग्य कमांडर थे, जिनके पांव मज़बूती से ज़मीन पर जमे थे.


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जहां उन्होंने अपनी दिलेरी साबित की

1923 के नागपुर ध्वज सत्याग्रह में, गुजरात से बाहर पटेल के नेतृत्व का विस्तार नज़र आया, जब उसी साल दंडात्मक कर के खिलाफ बोरसद सत्याग्रह ने, उन्हें गांधी के अहिंसक बल के एक योग्य कमांडर के तौर पर स्थापित कर दिया. नागपुर ध्वज सत्याग्रह के बाद सी राजगोपालाचारी ने पटेल का ज़िक्र करते हुए लिखा, ‘श्री वल्लभभाई को एक ऐसा काम अंजाम देने के लिए नागपुर भेजा गया, उसे मुश्किल से ही आसान या उत्साहजनक कहा जा सकता था. उन्होंने उसे बहुत भलमनसाहत और शूरवीरता के साथ अंजाम दिया. जो लोग संघर्ष जारी रहने के दौरान लड़ रहे थे, उन्होंने लड़ाई के अपने तरीक़े से दिखा दिया, कि कोई भी लड़ाई साफ-सुथरे ढंग से नहीं लड़ी जा सकती. अब ये श्री वल्लभभाई को दिखाना था, कि साफ-सुथरे ढंग से कोई लड़ाई जीती भी नहीं जा सकती’. (यंग इंडिया, सितंबर 6, 1923, पेज 295)

लगान की संशोधित दरों के खिलाफ 1928 के बारदोली सत्याग्रह की सफलता ने, पटेल को राष्ट्रीय शोहरत दिला दी. गांधी की योजना के हिसाब से, बोरसद और बारदोली दोनों सत्याग्रहों की अगुवाई पटेल ने की. बारदोली सत्याग्रह की गूंज पूरे देश में सुनाई दी. मुंशी प्रेमचंद ने अपनी पत्रिका हंस के नवंबर 1930 संस्करण में एक लेख लिखा, जिसका शीर्षक था वीरभूमि बारदोली. ये बारदोली आंदोनल ही था जिससे पटेल को सरदार का उपनाम मिला. वो एक बार 1931 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने, लेकिन दो बार उन्होंने गांधी के सुझाव पर अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली. (आमे बाप-दिकारी, मणिबेन पटेल, सरदार शताब्दी स्मारक ग्रंथ, 1976, सरदार पटेल विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर, पेज 94)

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पटेल को जेलों में भी समय बिताना पड़ा- वो छह बार में कुल मिलाकर क़रीब छह साल जेलों में रहे. 1932 में अपने एक जेल कार्यकाल के दौरान, वो क़रीब 16 महीने तक गांधी और महादेव देसाई के साथ यरवदा जेल में बंद रहे. पटेल शायद अकेले ऐसे नेता थे, जिन्होंने गांधी की सीधी निगरानी में कई सत्याग्रह आंदोलन चलाए, और इतने लंबे समय तक उनके साथ जेल में रहे.

प्रसिद्ध दांडी मार्च से कुछ पहले ही जब पटेल पहली बार जेल गए, तो गांधी ने एक लेख में लोगों के प्रति उनकी सेवा का उल्लेख किया. ‘सरदार गुजरात से अपेक्षा क्यों नहीं रखेंगे? क्या उन्होंने श्रमिकों की सेवा नहीं की? क्या डाक और रेल विभाग कर्मचारियों ने उनसे स्वराज की सीख नहीं ली? अहमदाबाद का कौन सा निवासी है, जो शहर के प्रति उनकी सेवा और बलिदान की उत्सुकता से वाक़िफ नहीं है? वल्लभ भाई, वो इंसान जिसने प्लेग के दौरान बीमारों के इलाज का बंदोबस्त कराया, सूखे के दौरान लोगों की सहायता की, भारी बाढ़ के दौरान गुजरात की सेवा की, राहत कार्यों के लिए सरकार से करोड़ों रुपए हासिल कराए, लोगों को पूर्ण स्वराज की अंतिम लड़ाई के लिए तैयार किया, और अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए जेल में पहुंच गया…’(नवजीवन, वॉल.11, संस्करण 28, मार्च 9, 1930, पेज 237)

पटेल कांग्रेस में

पटेल ने कांग्रेस में एक अहमदाबाद-स्थित नेता के तौर पर शुरुआत की थी, लेकिन जल्द ही तरक़्क़ी करके 1021 में, गुजरात प्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बन गए. ऐसे समय में भी, जब कांग्रेस के पास कोई राजनीतिक शक्ति नहीं थी, वो फंड जुटाने के मामले में बेहद कामयाब साबित हुए. उन्होंने तिलक स्वराज फंड, गुजरात विद्यापीठ, और राहत जैसे विविध प्रकार के कार्यों के लिए, लाखों रुपए के फंड्स एकत्र किए. 1937 में जब ब्रिटिश भारत में पहली बार प्रांतीय चुनाव कराए गए, तब तक पटेल पार्टी में एक बड़ी ताक़त बन गए थे. वो पार्टी फंड्स एकत्र करते थे, उम्मीदवारों का चयन कर थे, और नेहरू की लोकप्रिय अपील के पीछे, एक ठोस पार्टी मशीन साबित हुए. आपसी मतभेद और कभी कभी उनकी भड़ास निकालने के बावजूद, दोनों एक सामान्य हित के लिए साथ मिलकर काम करते रहे. भावुक आदर्शवादी जवाहरलाल नेहरू, और उनसे उम्र में 14 साल बड़े यथार्थवादी तथा ज़मीन से जुड़े प्रशासक पटेल, गांधी की नैतिक शक्ति के नीचे एक दूसरे के पूरक थे. गांधी के साथ मिलकर वो स्वराज तिकड़ी के एक अभिन्न अंग बन गए. अगस्त 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन का वो मशहूर फोटो याद है, जिसमें गांधी के साथ पटेल और नेहरू खड़े हैं?

1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान, पटेल समेत कांग्रेस के पूरे शीर्ष नेतृत्व को गिरफ्तार कर लिया गया, और अहमदनगर फोर्ट जेल में भेज दिया गया. 1 जुलाई 1943 को अपनी बहू भानुबेन को एक पत्र में पटेल ने लिखा, ‘…मैं तब तक ज़िंदा हूं, जब तक भगवान चाहेगा. अगर वो मुझे बुलाना चाहता है तो मैं तैयार हूं. अगर मेरे जीवन का कार्य पूरा हो गया है तो मुझे जाना होगा, और अगर मेरा काम बाक़ी है तो मैं रहूंगा. कौन जानता है?…मैं 69 का हो गया हूं. मुझे जीवन में जो कुछ करना चाहिए था, वो मैंने कर लिया है. इससे अच्छा क्या होगा कि मैं वो काम करते हुए जाऊं, जिसे मैंने अपना धर्म समझा है?…’ (सरदारश्रीना पात्रो वॉल.3, तीसरा संस्करण, सरदार वल्लभभाई पटेल स्मारक भवन, अहमदाबाद, पेज 271)

पटेल को क्या मालूम था कि जो काम उनके जीवन का पर्याय बनने वाला था, वो अभी जेल के बाहर उनका इंतज़ार कर रहा था.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित एक वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)


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