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Thursday, 25 April, 2024
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सावरकर की दया याचिका में गांधी को मत फंसाइए. आर्काइव्ज़ दावे का समर्थन नहीं करते

सावरकर बंधुओं की आज़ादी के लिए गांधी के प्रयासों पर सवाल उठाए गए, जब उन्होंने 1937 में सावरकर की रिहाई के लिए, याचिका पर दस्तख़त नहीं किए.

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रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने एक विवाद खड़ा कर दिया, जब उन्होंने दावा किया ‘सावरकर के बारे में बार-बार झूठ फैलाया जाता है. ये फैलाया गया कि उन्होंने जेल से अपनी रिहाई के लिए, कई दया याचिकाएं दायर कीं… ये महात्मा गांधी थे जिन्होंने उनसे दया याचिकाएं दायर करने के लिए कहा…’ रक्षा मंत्री ने वी.डी. सावरकर का ज़बर्दस्त बचाव, फ्रीडम फाइटर पर लिखी गई एक किताब के विमोचन कार्यक्रम में किया. लेकिन सावरकर की याचिकाओं के मामले में गांधी को खींचना, और इसके लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराना, उनके साथ सबसे बड़ी दुष्टता थी.

दक्षिण-पंथी प्रचार के लिए ये हमेशा से एक मुद्दा रहा है, कि सावरकर की याचिकाओं को ‘वीर’ की उपाधि के साथ कैसे समायोजित किया जाए. पर्याप्त सुबूत उपलब्ध होने के बावुजूद, लंबे समय तक सावरकर की याचिकाओं का कहीं कोई उल्लेख नहीं किया गया. सावरकर के जीवन काल में ही धनंजय कीर की लिखी, और 1950 में प्रकाशित उनकी एक जीवनी वीर सावरकर में, इन याचिकाओं का कोई उल्लेख नहीं है. इतिहासकार आरसी मजूमदार ने अपनी किताब पीनल सैटलमेंट्स इन अंडमान्स (शिक्षा एवं समाज कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली,1975, पेज 211-213) में, सावरकर की याचिकाओं का विवरण दिया है. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध एक गुजराती पत्रिका साधना के, 15 अगस्त 1983 के विशेष संस्करण में, याचिकाओं का कोई उल्लेख नहीं किया गया है.

हाल ही में सावरकर का बचाव करने, और उससे भी ज़्यादा, उनकी राजनीतिक विरासत का फायदा उठाने के लिए, सत्तारूढ़ व्यवस्था उन याचिकाओं को एक तसल्लीबख़्श कहानी के साथ पेश कर रही है. और राजनाथ सिंह के इस दावे ने इसमें एक नया पेंच जोड़ दिया है, कि दरअसल ये गांधी थे जिन्होंने सावकर से, दया याचिकाएं दायर करने के लिए कहा था. जैसा, कि बहुत से लोगों ने सोशल मीडिया पर कहा, और सही कहा, कि सावरकर ने पहली दो याचिकाएं 1911 और 1913 में दायर कीं थीं, जब गांधी दक्षिण अफ्रीका में ही थे. दोनों के बीच पत्राचार का कोई रिकॉर्ड नहीं मिला है.


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सावरकर की क़ैद पर गांधी

गांधी निश्चित रूप से सावरकर बंधुओं – गणेश और विनायक- का उनके क्रांतिकारी अतीत और भारत की आज़ादी के उनके प्रयासों के लिए सम्मान करते थे, हालांकि गांधी के उनके साथ बुनियादी वैचारिक मतभेद थे. वो ये भी चाहते थे कि बंधुओं को अंडमान्स की सेलुलर जेल से रिहा किया जाए. 1945 में जब गणेश की मौत हुई, तो गांधी ने वी.डी. सावरकर को लिखा, ‘आपके भाई की मौत की ख़बर पढ़कर, मैं आपको लिख रहा हूं. मैंने उनकी रिहाई के लिए थोड़ा बहुत प्रयास  किया था, और उसके बाद से मैं उनमें रुचि ले रहा था. आपको सांत्वना देने की क्या ज़रूरत है? हम ख़ुद मौत के जबड़े में हैं…’ (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वॉल्यूम 79, पेज 287)

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गांधी ने सोचा था कि राजनीतिक बंदियों के नाते, सावरकर बंधुओं को दिसंबर 1919 की शाही उदघोषणा के तहत क्षमा मिलनी चाहिए, जिसके अंतर्गत राजनीतिक बंदियों की सज़ाएं माफ कर दी गईं थीं. अपने साप्ताहिक यंग इंडिया (26 मई 1919) में सावरकर ब्रदर्स नाम से एक लेख में, गांधी ने शाही उदघोषणा के एक हिस्से का हवाला दिया और लिखा: ‘इन दोनों भाईयों ने अपने राजनीतिक विचार घोषित किए हैं, और दोनों ने लिखा है कि वो कोई क्रांतिकारी विचार नहीं रखते, और अगर उन्हें आज़ाद कर दिया गया, तो वो सुधार क़ानून के तहत काम करना चाहेंगे, क्योंकि उनका मानना है कि सुधारों से आप वो करने में सक्षम हो सकते हैं, जिससे भारत के लिए राजनीतिक ज़िम्मेदारी हासिल की जा सकती है. वो दोनों बहुत स्पष्ट रूप से कहते हैं, कि वो ब्रिटिश सम्बन्धों से मुक्त नहीं होना चाहते.  इसके विपरीत, उन्हें लगता है कि भारत की सबसे अच्छी तक़दीर ब्रिटेन के साथ जुड़ने में ही बन सकती है…’ (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वॉल्यूम 17, पेज 460-462)

इस लेख के छपने से पांच महीने पहले, तीसरे भाई डॉ नारायण डी सावरकर ने, जो जेल में नहीं थे, गांधी को पत्र लिखकर बताया कि सरकार ने, शाही उदघोषणा के अंतर्गत उनके भाइयों को रिहा नहीं करने का फैसला किया है. पत्र में उन्होंने अपने भाईयों की ख़तरनाक स्थिति का बयान किया, और लिखा, ‘कृपया मुझे बताएं कि ऐसे हालात में कैसे आगे बढ़ा जाए…उम्मीद है कि आप मुझे बताएंगे कि इस मामले में आप क्या करने जा रहे हैं’. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वॉल्यूम 16, पेज 507)


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…और उन्होंने वास्तव में क्या कहा

गांधी के जवाब का पता नहीं है, लेकिन हाथ से लिखा एक मसौदा उपलब्ध है.

मसौदे में गांधी ने लिखा, ‘आपको सलाह देना मुश्किल है. लेकिन, मेरा सुझाव है कि आप एक संक्षिप्त याचिका तैयार करें, और उसमें केस के तथ्य बयान करें, और स्पष्ट रूप से इस तथ्य को रखें कि आपके भाई ने जो अपराध अंजाम दिया है, वो विशुद्ध रूप से राजनीतिक था. मैं ये सुझाव इस आशय से दे रहा हूं, कि इससे केस की ओर जनता का ध्यान केंद्रित करना संभव होगा. इस बीच, जैसा कि मैंने आपको एक पिछले पत्र में लिखा है, मैं अपनी ओर से इस मामले में आगे बढ़ रहा हूं. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वॉल्यूम 16, पेज 507)

गांधी चाहते थे कि सावरकर बंधुओं की राजनीतिक क़ैदियों की हैसियत पर बल दिया जाए, क्योंकि शाही उद्घोषणा केवल राजनीतिक बंदियों के लिए थी. इसका ये मतलब निकालना, कि गांधी दया याचिका की सलाह दे रहे थे, सच्चाई का मज़ाक़ और कृतघ्नता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है. सावरकर बंधुओं की आज़ादी के लिए गांधी के प्रयासों पर सवाल तब उठाए गए, जब उन्होंने 1937 में सावरकर की रिहाई के लिए, याचिका पर दस्तख़त नहीं किए. महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी अध्यक्ष शंकर राव देव को एक पत्र में गांधी ने लिखा, ‘हां, मैंने मेमोरियल पर दस्तख़त करने से मना किया, क्योंकि जो लोग मेरे पास आए थे उन्हें मैंने बताया, कि इसकी बिल्कुल ज़रूरत नहीं थी क्योंकि नए क़ानून के लागू हो जाने के बाद, श्री सावरकर को रिहा होना ही था, भले ही मंत्री कोई भी हो. और वही हुआ भी है. सावरकर बंधु कम से कम जानते हैं, कि भले ही हमारे बीच कुछ बुनियादी मतभेद हों, लेकिन मेरी कभी यह इच्छा नहीं हो सकती थी कि वे जेल में ही रहे.

शायद डॉ (नारायण) सावरकर मेरी पुष्टि करेंगे, जब मैं कहता हूं कि उनकी रिहाई कराने के लिए, जो कुछ मेरे बस में था वो सब मैंने किया. और बैरिस्टर (विनायक सावरकर) शायद उन सुखद संबंधों को याद करेंगे, जो हमारे बीच थे जब हम लंदन में पहली बार मिले थे, और कैसे जब कोई आगे नहीं आ रहा था, तो मैंने उस मीटिंग की अध्यक्षता की जो उनके सम्मान में लंदन में हुई थी’. (दि कलेक्टेड वर्क्स ऑफ महात्मा गांधी, वॉल्यूम 65,पेज 421)

एक रक्षा मंत्री को शोभा नहीं देता, कि सावरकर को दया याचिकाओं की बदनामी से बचाने के लिए, गांधी को झूठा फंसाया जाए. लेकिन ऐसी सरकार के लिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, जो अपने कुछ पार्टी सदस्यों के मुंह से गॉडसे की प्रशंसा सुनकर, और गांधी जयंती के दिन ट्विटर पर गॉडसे हैशटैग के ट्रेंड होने से विचलित नहीं होती.

(उर्विश कोठारी अहमदाबाद स्थित एक वरिष्ठ स्तंभकार और लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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