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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतभारतीय रेलवे केवल तेजी से आगे बढ़ रही है, लेकिन सुपरफास्ट ट्रैक पर दौड़ने के लिए नया बिजनेस प्लान जरूरी

भारतीय रेलवे केवल तेजी से आगे बढ़ रही है, लेकिन सुपरफास्ट ट्रैक पर दौड़ने के लिए नया बिजनेस प्लान जरूरी

सड़क परिवहन से मुक़ाबले में पिछड़ रही रेलवे यात्री गाड़ियों से घाटा ही कमा रही है लेकिन भाड़ा न बढ़ाकर वह यात्रियों का कोई भला भी नहीं कर रही है.

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यूपी रोडवेज की बस आपको दिल्ली से 550 किलोमीटर दूर लखनऊ मात्र 1.49 रुपये प्रति किमी के खर्च पर कुल 822 रु. में पहुंचाएगी; रेलवे तो इससे भी आधे भाड़े यानी 432 रु. में वहां पहुंचा देगी. अगर आप थ्री टियर एसी स्लीपर कोच में आराम से जाना चाहें तो मात्र 755 रु. का टिकट लेना पड़ेगा, जो कि वॉल्वो की सेमी स्लीपर बस के किराये (1000 रु. से ऊपर) का आधा है.

रेलवे में ‘सामान्य’ दूसरे दर्जे के डिब्बे में सफर करने का प्रति किमी यात्री भाड़ा 21 पैसे से लेकर एसी चेयर कार की एक सीट का प्रति किमी भाड़ा 1.75 रु. तक है. ज्यादा आरामदेह तेज गाड़ी (मसलन शताब्दी एक्स.) का भाड़ा इससे ज्यादा है. सभी दर्जों में सफर करने वाले प्रत्येक यात्री से रेलवे प्रति किमी 2 रुपये का लाभ कमाता है.

नीति आयोग ने पिछले साल हिसाब लगाया था कि रेल यात्रा की लागत सड़क यात्रा की लागत से आधी होती है. इसलिए रोडवेज से प्रतियोगिता में रेलवे सभी लागतों की पूर्ति के लिए अपने प्रत्येक यात्री से पर्याप्त भाड़ा वसूल सकती है. इसके बावजूद वह यात्रियों को देने वाली अपनी सुविधाओं पर तेजी से पैसे खर्च कर रही है. अगर आप हिसाब-किताब रखने (जिस पर सवाल उठाए गए हैं) के रेलवे के तरीके को कबूल कर लें तो मानना पड़ेगा कि वह यात्रियों से जितने रुपये पाती है उतने खर्च कर देती है.

तो रेलवे भाड़ा क्यों नहीं बढ़ाती? उसका कहना है कि वह समाज सेवा कर रही है. लेकिन आम बजट के जरिए भारी वित्तीय सहारा के रूप में लोग जब कीमत अदा कर ही रहे हैं तब यह समाज सेवा कैसे हुई? तो वह सीधे-सीधे भाड़ा क्यों न बढ़ाए? इसका असली जवाब यह है कि भाड़े में कोई भी वृद्धि राजनीतिक मुद्दा बन जाएगा, इसलिए रेलवे परोक्ष रूप से भाड़ा बढ़ाती है. वह एक्सप्रेस ट्रेन को सुपरफास्ट ट्रेन (जिसका भाड़ा ऊंचा होता है) में बदल देती है, सस्ते दर्जे के कोचों की संख्या कम करती है और ऊंचे दर्जे के कोचों की संख्या बढ़ाती है.

इन उपायों का भी विरोध होता है. वैसे भी, इन उपायों से इतनी कमाई नहीं होती कि हिसाब संतुलित हो सके. इसलिए उलटे नतीजे मिलते हैं. रेलयात्रियों की संख्या ज्यादा है, रेलगाड़ियों की संख्या कम है. लेकिन रेलवे को यात्री रेलगाड़ियों की संख्या बढ़ाने का कोई वित्तीय प्रोत्साहन नहीं मिलता है. माल ढुलाई की क्षमता बढ़ाने पर ज़ोर देने के कारण नये ‘फ्रेट कॉरीडोर’ के निर्माण पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है और यात्री परिवहन क्षमता बढ़ाने पर कम.

इसका दुखद नतीजा यह है कि एक दशक में माल ढुलाई में 40 फीसदी की वृद्धि हुई है जबकि यात्रियों की ट्रैफिक स्थिर है. बल्कि एक दशक से पहले के मुक़ाबले इस साल इसमें गिरावट ही आई है. यह कैसी समाज सेवा है?

दूसरे अवांछित नतीजे भी सामने आए हैं. यात्री सेवाओं के मामले में हुए घाटे को पूरा करने के लिए रेलवे माल ढुलाई की दरें बढ़ाती है (क्रॉस-सब्सीडी लोकलुभावन प्रयास करने वालों का पसंदीदा खेल). इससे यह स्पष्ट होता है कि रेलवे माल ढुलाई के मामले में सड़क द्वारा माल ढुलाई से क्यों पिछड़ गई है. कुल माल ढुलाई में रेल द्वारा ढुलाई का हिस्सा अब केवल 25 फीसदी है जिसमें ज़्यादातर कोयला और लौह अयस्क की ढुलाई होती है.


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शुल्कों में वृद्धि भी एक कारण हो सकता है लेकिन वर्तमान दरों पर भी सड़क की जगह रेल द्वारा माल भेजना ही सस्ता है. असली मुद्दा संगठन के व्यावसायिक स्वरूप का और एक छोर से दूसरे छोर तक माल पहुंचाने का है.

रेलवे उलझन में है. वह प्रतियोगिता के कारण मुनाफा देने वाला व्यापार गंवा रही है जबकि यात्रियों की बढ़ती मांग को पूरा करने से घाटा बढ़ेगा ही. खर्च 2.65 ट्रिलियन रु. की वार्षिक आय के बराबर ही है लेकिन जो विशाल निवेश किया जा रहा है उसे उधार के जरिए पूरा किया जा रहा है (क्योंकि ब्याज भुगतान भारी पड़ रहा है) और बजटीय समर्थन में वृद्धि के जरिए भी पूरा किया जा रहा है.

निवेश में मौजूदा तेजी अनुपात से ज्यादा है, पिछले एक दशक में यह 13 ट्रिलियन रु. से ज्यादा बड़ा हो गया है, जबकि 2.6 ट्रिलियन अकेले इस वर्ष हुआ है जो कि अनुमानित राजस्व के लगभग बराबर है. 2030 तक इतने और का वादा है, जो निवेश परिवर्तनकारी (ज्यादा गति, बेहतर सेवा, और माल ढुलाई की ज्यादा क्षमता) होना चाहिए.

कहा जा सकता है कि रेलवे में इस तरह की फंडिंग को इन्फ्रास्ट्रक्चर में निवेश माना जाना चाहिए, जिससे कोई वित्तीय लाभ की उम्मीद न रखी जाए. इसके अलावा, पेंशन बिल में वृद्धि (वेतन आयोग द्वारा समय-समय पर निर्धारित) राजस्व का 23 फीसदी हड़प लेती है और चालू आंकड़ों की बुरी तस्वीर पेश करती है.

लेकिन सामना जिस हकीकत का करना है वह यह है कि संगठन घिसाई के मद में पर्याप्त फंड नहीं दे रहा है (ताकि पुराने पड़ते ‘एसेट्स’ को नया बनाया जा सके). सुरक्षा फंड और पेंशन के मद में भी पर्याप्त फंड नहीं दिया जा रहा है. रेलवे को नयी कीमत योजना के साथ नया बिजनेस प्लान भी तुरंत बनाना चाहिए.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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