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Wednesday, 8 May, 2024
होममत-विमतआज नकदी, कल विकास— अपनी नाकामी छिपाने के लिए सरकारें देती हैं खैरात 

आज नकदी, कल विकास— अपनी नाकामी छिपाने के लिए सरकारें देती हैं खैरात 

कोई भी राजनीतिक दल कृषि, बेरोजगारी और कम आय जैसे वास्तविक मसलों का कोई समाधान नहीं पेश करता लेकिन खैरात से समस्या खत्म नहीं होने वाली.

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यह 1996 के शुरू के दिनों की बात है, आपका यह कॉलम लेखक तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से नॉर्थ ब्लॉक के उनके दफ्तर में मिला था. उन्हें जब कहा गया कि कांग्रेस पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान में आर्थिक सुधारों के बारे में बात नहीं करेगी, तो डॉ. सिंह की प्रतिक्रिया थी कि “तो फिर कहने को और क्या है?”

इस सवाल का जवाब उसके बाद से हर चुनाव में मिलता रहा है— कर्जमाफी, अनाज के लिए बाजारू कीमत से ज्यादा पर उगाही, बहुसंख्या में लोगों को मुफ्त अनाज, नयी जातियों के लिए नौकरी में आरक्षण, महंगी पेंशन योजना, मुफ्त सुविधाएं और सबसीडी, और नकदी भुगतान आदि के रूप में.

विकास के कार्यों, इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण और बुनियादी सुविधाएं (शौचालय, बिजली, इंटरनेट आदि) देने का श्रेय भी लिया जाता है. अर्थशास्त्री लोग जिसे आर्थिक सुधार कहते हैं (वित्तीय अनुशासन और बाजार उन्मुख नीति) उसका कोई जिक्र नहीं किया जाता.

शायद इसी की उम्मीद भी की जानी चाहिए. वोटरों ने यही सीखा है कि आज क्या मिलेगा, कल क्या होगा इसकी उन्हें परवाह नहीं है. वे उन्हीं दलों को चुनते हैं जो सबसे उदार पैकेज पेश करते हैं. यह सरकारी खजाने को लूटने के लिए प्रोत्साहित करता है. सरकारों पर भरोसा इस कदर टूट गया है कि स्कूली शिक्षा या सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में सुधार जैसे दीर्घकालिक विकास के बारे में वादों पर शायद ही ध्यान दिया जाता है.

कोई भी राजनीतिक दल कृषि, बेरोजगारी और कम आय जैसे वास्तविक मसलों का कोई समाधान नहीं पेश करता. बिहार में जाति सर्वे की रिपोर्ट को देखिए, नौकरियों में आरक्षण का कोटा बढ़ाने के वादों का क्या नतीजा निकलेगा? 13.1 करोड़ की आबादी वाले राज्य में मात्र 20 लाख सरकारी नौकरियां हैं. ये सामान्य जातियों को अनुपात से ज्यादा मिलती हैं और पिछड़े वर्गों को कुछ कम.

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इस गड़बड़ी को अगर ठीक किया जाए, और सरकारी नौकरियों को प्रमुख जातियों में आनुपातिक रूप से बांटी जाए तब क्या होगा? सरकारी नौकरियों में फिलहाल अनुसूचित जातियों की 2.9 लाख आबादी लगी है, तब उनकी 1.1 लाख और आबादी को ये नौकरियां दी जाएंगी. अति पिछड़ों के लिए सरकारी नौकरियों की संख्या फिलहाल 4.6 लाख है, जिनमें 2.8 लाख का इजाफा हो जाएगा. सामान्य श्रेणी और पिछड़ी जातियों को इतनी नौकरियों का नुकसान होगा. आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाया गया तो सामन्या श्रेणी वालों को और नुकसान होगा. सबका योग किया जाए तो इतनी नौकरियां उपलब्ध भी नहीं हैं. जातियों के हिसाब से बदलाव और ज्यादा आरक्षण देने से करीब 10 लाख नौकरियां प्रभावित होंगी.

क्या कोई विश्वास कर सकता है कि यह 13.1 करोड़ की आबादी वाले राज्य में सामाजिक या जातीय न्याय के मसले या रोजगार की समस्या का सार्थक समाधान दे सकता है?


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इसके बाद किसानों को, सबसे अहम गेहूं-धान की उगाही की चालू बाजारू कीमत से ऊंची कीमत देने के वादे पर विचार करें. एक ओर, इससे किसानों को गेहूं-धान पर ज्यादा ध्यान देने को प्रोत्साहित करेगा और वे बाजार में भेजे जाने वाले अतिरिक्त अनाज सरकार को पेश करेंगे, जो अकेला खरीदार बन जाएगी.

यानी, निजी व्यापार को और फसलों की विविधता को भूल जाइए जबकि सिकुड़ते जल भंडार के बेहतर इस्तेमाल के लिए बेहद जरूरी होती जा रही है.

दूसरी ओर, अनाज उगाही की लचर सरकारी व्यवस्था (जिसमें किसानों को दी जाने वाली कीमत में माल ढुलाई का आधा खर्च भी नहीं दिया जाता) को जारी रखा जाएगा, जिससे अनाज का पहाड़ खड़ा होगा जो वैसे ही दे दिया जाएगा.

अंत में, चूंकि अनाज की लागत कीमत में बदलाव नहीं होगा (जहां कीमत है) तो सरकारी सबसीडी में वृद्धि होगी. कृषि उत्पादकता को बढ़ाकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लाने की कोई बात नहीं की जाती, जबकि किसानों की आय बढ़ाने का यही टिकाऊ उपाय है. किसानों की आय दोगुनी करने करने या ‘हर बूंद पर ज्यादा फसल’ का अपना वादा भाजपा भूल गई है.

अब, नकदी भुगतान की बात करें. आम तौर पर माना जाता है कि घोर गरीबी अब तक के न्यूनतम स्तर पर है, हालांकि कोविड के कारण संख्या बढ़ी है. लेकिन बिहार में हुआ सर्वे बताता है कि एक तिहाई आबादी 6,000 रुपये प्रति माह से कम की आमदनी पर जी रही है. किसी भी पैमाने पर इसे दरिद्रता ही कहा जाएगा. जैसा कि ऐसे सर्वे में होता है, आमदनी कमतर बताई गई है. और, दूसरे राज्यों में स्थिति बेहतर होगी.

फिर भी, आज़ादी के 76 साल बाद भी अधिकतर अभावग्रस्त लोगों की आमदनी में पूरक योगदान देने की जरूरत है. रोजगार गारंटी योजना की तरह इसे सभी नागरिक राज्य-व्यवस्था की नाकामी मान सकते हैं. नेता लोग इस नाकामी को बड़े पैकेज से ढकने की कोशिश करते हैं लेकिन यह दर्द का इलाज नहीं बल्कि उसे दबा देना भर ही माना जाएगा.

(बिजनेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा. व्यक्त विचार निजी हैं)

(संपादन : ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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