हम यह सोच रहे थे कि यह तो बहुत पहले खत्म हो चुका है, लेकिन जैसा कि प्रसिद्ध लेखक अल्बर्ट कामू ने अपने उपन्यास ‘दि प्लेग’ में लिखा है, ‘प्लेग का कीड़ा कभी मरता नहीं या हमेशा के लिए लुप्त नहीं होता, वह फर्नीचर में, कपड़ों के संदूकों में वर्षों–वर्षों तक छिपा पड़ा रहता है; वह बेडरूमों, तहख़ानों, संदूकों, और किताबों की आलमारियों में पड़ा अपने दिन काटता रहता है कि शायद वह दिन आएगा जब मनुष्य के विनाश और उसे सबक सिखाने के लिए वह अपने चूहों को फिर से जीवित कर देगा और उन्हें खुशहाल शहर में मरने के लिए भेज देगा’.
सार्वजनिक विमर्श को अस्त–व्यस्त करने वाला फतवा नाम का कीड़ा वापस लौट आया है. सेकुलर हुकूमत के दौरान यह फला–फूला, संस्थाओं और व्यक्तियों पर इसने धौंस जमाई, और राजनीतिक व्यवस्था को बंधक बनाया. सरकारें और पार्टियां उसके सामने थर–थर कांपती रहीं, वे इस राक्षस को संतुष्ट करने के लिए अपनी ताकत भर सब कुछ करने की कोशिश करती रहीं, और यह राक्षस उनकी ताकत और साख को अपना निवाला बनाता रहा. फतवा का जमाना लौटता दिख रहा है. दरअसल, यह खत्म नहीं हुआ था, केवल दब गया था, और अब यह फिर से अपना सिर उठा रहा है.
स्टार क्रिकेटर मोहम्मद शमी अपने देश भारत के लिए खेल रहे हैं. और यह रमज़ान का महीना चल रहा है, जिसमें मुसलमान लोग रोज़ा रखते हैं. पाक और जो पूरी तरह पाक नहीं हैं वे मुसलमान भी इस महीने में रोज़ाना रोज़ा रखते हैं, क्योंकि यह उनके समुदाय की एक सबसे पक्की पहचान है. यह रूढ़ियों को लागू करने, व्यक्ति के ऊपर समुदाय के अधिकारों की प्रमुखता स्थापित करने का एक जरिया है. जो रोज़ा नहीं रखता है उसे समुदाय और उसके लोकाचार तथा उसकी पहचान के नजरिए से पक्का गद्दार नहीं, तो एक कलंक, एक विधर्मी, एक पथभ्रष्ट तो जरूर माना जाता है.
इसलिए, चैम्पियंस ट्रॉफी के सेमी–फाइनल मैच में ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलते हुए मोहम्मद शमी ने जब एनर्जी ड्रिंक पीया तो उन्हें ‘गुनहगार’ और ‘मुजरिम’ घोषित कर दिया गया. मुस्लिम सोशल मीडिया में तोहमतों का तूफान उठा गया, और एक मुल्ला ने एक वीडियो में धिक्कार तथा सज़ा के रूढ़िवादी धार्मिक मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए इस भावना को आवाज दी.
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शरिया के घेरे में शमी
पवित्रता की इस तरह की पुलिसगीरी की यह कोई अकेली घटना नहीं है. यह एक सोच, एक सियासत, एक नजरिए से उपजी व्यवस्था है जिसे आजाद ख्याल, और संप्रदायवाद विरोधी लोगों को अनुशासन में ढालने के लिए तैयार किया गया है. इससे पहले भी हम देख चुके हैं कि महिला टेनिस खिलाड़ियों के लिए निर्धारित पोशाक पहनने के लिए टेनिस खिलाड़ी सानिया मिर्ज़ा की किस तरह निंदा की गई थी. उन्हें स्कर्ट पहनने के लिए पवित्रता के नाम पर शर्मसार किया गया था, क्योंकि स्कर्ट को ‘इस्लामी वेशभूषा’ की तहजीब के खिलाफ माना गया.
इस विमर्श में इस सभ्य विचार को कोई महत्व नहीं दिया जाता कि धर्म व्यक्ति का एक निजी मामला है. यह मुस्लिम व्यक्ति को मुल्लाओं और समुदाय का बंधक बनाता है और ये दोनों किसी व्यक्ति को ‘समुदाय के मानकों’ का कथित उल्लंघन करने के नाम पर खरी–खोटी सुना सकते हैं और सजा दे सकते हैं. जैसा कि मैं पहले ही कह चुका हूं, किसी व्यक्ति के आचरण पर फैसला सुनाने और उसे सार्वजनिक तौर पर जलील करने के विशेषाधिकार के इस्तेमाल की यह अकेली घटना नहीं है. धर्म के नाम पर जो तानाशाही प्राचीन काल से जारी है उससे ही इसका जन्म हुआ है. यह तानाशाही मनुष्य की हर गतिविधि को, चाहे वह खेलकूद ही क्यों न हो, धर्म के नजरिए से और उसके हर काम को पाप–पुण्य के चश्मे से देखती है. इस जुमले पर गौर कीजिए : वे ‘शरिया के कठघरे में खड़े हैं’. लेकिन हर एक मुसलमान को मजहब की तानाशाही की ओर से सर्वव्यापी निगरानी से आज़ादी चाहिए.
यह सब कहने के बाद मैं इस कथित मजहबी मसले की जांच जरूर करूंगा कि क्या यह सारा शोर-शराबा वाकई मजहब, प्रथाओं, शुद्धता, और आध्यात्मिकता से जुड़े सवाल को लेकर था. यह कहना काफी होगा कि कुरान ने अपने सूरा बकरा (2:184-185) में साफ कहा है कि जो लोग सफर में हैं उन्हें रमज़ान में रोज़ा न रखने की छूट है. शरिया में सफर और पड़ाव की जो परिभाषा दी गई है उसके मुताबिक शमी वाकई सफर में थे और अपनी पेशेगत ज़िम्मेदारी निभा रहे थे. लेकिन मामला इस तर्क से शांत नहीं होता, क्योंकि इसका ताल्लुक मजहब से कम, और धर्मशास्त्र की सत्ता के वर्चस्व और इससे पैदा होने वाली टकराव की विचारधारा से ज्यादा है.
इसलिए शुरू से ही शुरुआत करें. क्रिकेट, भारतीय मुसलमान, और पाकिस्तान— यह एक जटिल मेल है. इतना ही कहना काफी है कि यह एक बेहद जटिल घालमेल है. धार्मिक भावना, राजनीतिक विचारधारा, और खेल का जज्बा, यह सब इसमें बुरी तरह गुंथा हुआ है. इस तथ्य को जितनी जल्दी समझ लिया जाए और इस असमंजस को जितनी जल्दी खत्म किया जाए उतना ही बेहतर होगा.
फिलहाल हम इस सवाल पर गौर करें कि एक इस्लामी मुल्क पाकिस्तान ने आईसीसी चैम्पियंस ट्रॉफी की मेजबानी रमज़ान के दौरान क्यों की? और मुस्लिम अमीरात दुबई इस ट्रॉफी में भारत के सभी मैच अपने यहां करवाने को राजी क्यों हुआ? तालिबानी हुकूमत वाले अफगानिस्तान और तेजी से तालिबानी बन रहा बांग्लादेश इसमें शामिल क्यों हुआ? यह समझना कोई बड़ी पहेली नहीं है कि इन तीन इस्लामी मुल्कों के खिलाड़ी मैचों के दौरान रोज़े पर नहीं रहेंगे. अगर वे रहते तो अपने खेल को कमजोर करते और अपने–अपने मुल्क के साथ नाइंसाफी करते. अब यह क्या कोई आश्चर्य की बात है कि इन मुल्कों के मुल्लाओं ने और इनके यहां की टेक्नो–इस्लामी सोशल मीडिया ने इस मसले को उस तरह गंभीर नहीं बनाया जिस तरह ‘सेकुलर’ भारत में बनाया जा रहा है?
भारतीय मुस्लिम या मुस्लिम भारतीय?
और क्या यह भी कोई आश्चर्य की बात है कि शमी की खाल खींच रहे उन्हीं भारतीय मुसलमानों को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि एक इस्लामी मुल्क ने रमज़ान के दौरान अपने यहां उन खेलों का आयोजन क्यों किया, या इन मुल्कों के खिलाड़ियों ने रोज़ा क्यों नहीं रखा? वे अपनी जिस विश्व–दृष्टि के दावे करते हैं उसके अनुसार तो इस्लाम सरहदों को नहीं मानता, तो उन्हें तो पूरी दुनिया के मुसलमानों के चाल–चलन पर फैसला सुनाने का हक़ बनता है. क्या उन्हें कभी इस बात पर आश्चर्य हुआ कि पाकिस्तान के तबलीगी खिलाड़ी, जो धर्म परिवर्तन के पक्षधर है और इस्लाम के विस्तार के लिए क्रिकेट का इस्तेमाल करते हैं, खेल के मैदान में नमाज़ पढ़ते हैं और अपनी कोई भी बात ‘अल्हम्दुलिल्लाह’ और ‘माशाअल्लाह’ जैसे इस्लामी सूत्रों के बिना पूरी नहीं करते, वे रोज़ा रख रहे थे या नहीं?
तो फिर, वे इस बात को लेकर इतने उत्तेजित क्यों हो जाते हैं कि भारतीय टीम के किसी मुस्लिम खिलाड़ी ने रोज़ा नहीं रखा? क्या इसकी वजह यह है कि वे यह मानते हैं कि एक भारतीय मुसलमान होने के नाते उन्हें अपने मजहबी फर्ज को अपने राष्ट्रीय कर्तव्य से ऊपर रखना चाहिए था? इस समुदाय के सोच को इस तरह ढाला गया है कि व्यक्ति अपने समुदाय के हितों को देश के हितों से ऊपर रखे और रूढ़ नियम–कायदों तथा सामुदायिक एकता का पालन करे. इन नियम–कायदों का उल्लंघन करने वाले को ‘सरकारी मुसलमान’ यानी समुदाय का गद्दार कहकर कलंकित किया जाता है.
समुदाय के सोच को ढालने वाले ये लोग धर्मशास्त्र की सत्ता के वर्चस्व के विचार से प्रेरित हैं और यहां के मुस्लिम समुदाय को बाकी देश से अलग एक इकाई के रूप में स्थापित करना चाहते हैं. इन लोगों ने एक ऐसे सवाल को जन्म दिया है जिसका विश्वसनीय जवाब देने की न तो उनमें समझदारी है और न ईमानदारी है. यह सवाल है: भारत का मुसलमान पहले एक मुसलमान है या एक भारतीय है? ‘हम भारतीय पहले हैं !’ कहना उनके सोच में असंभव था, और ‘हम मुस्लिम पहले हैं!’ कहना राजनीतिक रूप से असुविधाजनक था. इसलिए उन्होंने पहचान की विविधता को लेकर धूर्ततापूर्ण सिद्धांतों का सहारा लिया. लेकिन इस तरह का दोमुंहापन उन्हें यहीं तक ला सकता था. उबलता जज्बा अंततः किसी साथी मुसलमान पर इस तोहमत के रूप में फूटता है कि उसने गद्दारी की है. ऐसे में, गद्दी से फतवा जारी करके उसे प्रताड़ित करने से बेहतर तरीका और क्या हो सकता है? इसका विरोध जवाबी फतवा जारी करने के सिवा और क्या हो सकता है? यह मामले को धार्मिक सत्ता के गर्त में ले जा सकता है और भारतीय मुसलमानों को नागरिकता विहीन कर सकता है.
इसलिए जरूरी है कि हम बेलगाम उलेमा को बिना सोचे–समझे फतवों की गोलाबारी करने से रोकने के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करें. भारतीय मुसलमान को उलेमा से, धर्मशास्त्र की सत्ता के सूत्रधारों, और राजनीतिक अलगाववाद के उपदेश देने वालों से मुक्ति चाहिए. असली सवाल यह है कि उसे यह मुक्ति दिलाने के लिए क्या सरकार सुधारों के जरूरी कदम उठाएगी?
(इब्न खल्दुन भारती इस्लाम के छात्र हैं और इस्लामी इतिहास को भारतीय नज़रिए से देखते हैं. उनका एक्स हैंडल @IbnKhaldunIndic है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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