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Monday, 4 November, 2024
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भारतीय मुसलमान अपने खुद के अनुभवों से जानते हैं कि कश्मीर में क्या चल रहा है

लंबे समय से यही कहा जा रहा था कि शेष भारत के मुसलमान कश्मीरी मुसलमानों के हितों से अपना जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं. पर मोदी के शासन में यह स्थिति बदलती नज़र आती है.

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कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को हटाए जाने के बाद हमारा सामना एक नए विभाजन से है. नहीं, ये विभाजन राजनीतिक नहीं है. यह दक्षिणपंथी बनाम मध्यमार्गी बनाम वामपंथी या मोदी समर्थक बनाम विपक्ष जैसी बात नहीं है. तमाम संकेत इस विभाजन के मुसलमान बनाम शेष के बीच होने के हैं. यानि एक ऐसी बात जो अधिकांश भारतीयों को मालूम है, पर जिसका वो जिक्र नहीं करना चाहते. मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिए जाने के संकेत समय बीतने के साथ और भी स्पष्ट होते जा रहे हैं. मुसलमान अपने अनुभवों से जानते हैं कि कश्मीर में क्या चल रहा है.

डॉन क्विज़ोटे सिंड्रोम 

दक्षिणपंथी तंत्र ‘कश्मीर हमारा है’ जैसे बयानों को उल्लास के साथ बिखेर रहा है. कश्मीर की स्वायत्तता और विशेष दर्जे को छीने जाने और उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों के रूप में बांटे जाने पर उनके उन्मत्त उत्सव को देख कर सवाल उठना स्वाभाविक है कि वे सिर्फ कश्मीर को ही अपना मानते हैं या कश्मीरियों को भी. उस ज़मीन को दखल किया गया है, जहां गैर-कश्मीरी लोग गुलाबी नून-चाय पीते हुए कश्मीर पर अपने अधिकार की शेखी बघार सकते हैं.

यह डॉन क्विज़ोटे सिंड्रोम जैसा है. बड़ी संख्या में पुरुषों और कुछ महिलाओं पर ये मानने का भूत सवार है कि उन्होंने एक ऐसी भूमि पर कब्ज़ा कर लिया है. जिसे की इस्लामी खिलाफत का सपना देखने वालों, उग्रवाद पोषित पत्थरबाज़ों तथा शरिया-प्रेमी और फतवा जारी करने वाले जिहादियों ने साजिश के तहत उनकी पहुंच से दूर रखा था. ये सीधे-सीधे इस्लामोफोबिया है.

कथित जीत डॉन क्विज़ोटे के पवन चक्कियों से लड़ने जैसा है. ये खुद को छलावे में रखने जैसा है. कश्मीर के लोगों को 5 अगस्त 2019 से ही अपने घरों में बंद रखा गया है, उनका बाहरी दुनिया से कोई संपर्क नहीं है.

वंदे मातरम से जय हिंद तक

लंबे समय से यही कहा जा रहा था कि शेष भारत के मुसलमान कश्मीरी मुसलमानों के हितों से अपना जुड़ाव महसूस नहीं करते हैं. पर प्रधानमंत्री मोदी के शासन में यह स्थिति बदलती नज़र आती है. खास कर ताजा कदम के बाद मैंने बड़ी संख्या में देश भर के मुसलमानों से बात की है और वे कश्मीरियों के संवैधानिक अधिकारों की खुलेआम धज्जियां उड़ाए जाने पर खफा हैं. उनकी ये राय उनके आसपास के घटनाक्रमों के बरक्स है. इस देश के नागरिक के रूप में मुसलमानों की इच्छा का मानो अब कोई मायने नहीं रह गया हो.


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कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाए जाने को मुसलमान अपने उन अनुभवों से जोड़ कर देखते हैं जो कि वे सड़कों पर और वाट्सएप ग्रुपों में वंदे मातरम और जय श्रीराम के नारे लगाने से इनकार करने पर मौखिक और वास्तविक हिंसा को झेलते वक्त महसूस करते हैं.

इस बात की अनदेखी की जाती है कि कश्मीरी मुसलमान उन्हें भारत की राजनीतिक मुख्य धारा से जोड़ने वाले चुनावों में भाग लेकर जय हिंद का नारा लगाते रहे हैं. विडंबना देखिए कि कश्मीर की आखिरी सरकार हिंदुत्ववादी भाजपा और भारत-समर्थक कश्मीरी पार्टी पीडीपी की गठबंधन सरकार थी. वास्तव में, नरेंद्र मोदी ने भी अपने एक इंटरव्यू में जम्मू कश्मीर में पंचायती चुनाव का गर्व भाव से जिक्र किया है, जिसमें मतदाताओं की 70-75 प्रतिशत भागीदारी रही. इन मतदाताओं ने वास्तव में भारतीय लोकतंत्र में अपनी आस्था का प्रदर्शन किया था.

बहुसंख्यकों की मर्जी

बहुत से लोगों का कहना है कि कश्मीर के लिए कर्फ्यू कोई नई बात नहीं है. कश्मीरियों ने अतीत में इससे भी सख्त कर्फ्यू देखे हैं, पर 72 वर्षों में उन्हें ऐसी किसी स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा था कि घर से निकलने पर उन्हें पता चले कि उनके राज्य की स्वायत्तता, उनकी पहचान छिन चुकी है. जो उनके लिए इतनी अधिक महत्वपूर्ण थी और जिसका वादा कश्मीर के भारत में शामिल होने के समय किया गया था. इतना ही नहीं, उनसे कोई मशविरा किए बिना ऐसा किया गया है.

असल में, पिछले दिनों राष्ट्र को एक विकल्प दिया गया था. भाजपा ने जहां अपने घोषणा पत्र में कश्मीर से अनुच्छेद 370 और 35ए हटाने का वादा किया था, वहीं कांग्रेस ने ‘अशांत क्षेत्रों’ में सेना को बेलगाम शक्तियां देने वाले अफस्पा कानून की समीक्षा का. भारत के लोगों के बहुमत ने भाजपा की पेशकश में भरोसा जताया. इसी बहुमत की इच्छा को अब कश्मीरियों पर थोपा जा रहा है.

बौद्ध बाहुल्य वाला लेह और हिंदू-बहुल जम्मू खुद को कश्मीर के राजनीतिक जंजाल से बाहर पा कर खुश है. पर मुस्लिम-बहुल कारगिल को लेह की बात माननी होगी? और मुस्लिम-बहुल कश्मीर घाटी को जम्मू के इशारे पर चलना होगा? इसलिए जब लद्दाख के भाजपा सांसद जामयांग सेरिंग नामग्याल ने संसद में अपने भाषण में फैसले पर लद्दाख में खुशी के माहौल का जिक्र किया तो स्पष्टतया वे बहुसंख्यक बौद्धों की बात कर रहे थे. उन्होंने जानबूझ कर अपने निर्वाचन क्षेत्र में कारगिल, ज़ंस्कार और नुबरा के मुसलमानों की भावनाओं को नज़रअंदाज़ किया और बहुसंख्यकों ने उनके भाषण की प्रशंसा की.

कम हैसियत वाली बराबरी

लोकतंत्र में जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है. आज, भारत के संदर्भ में इसका मतलब बहुसंख्यकों की इच्छा से है. पर भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक हैं करीब 19.5 करोड़ मुसलमान. उन्हें अप्रासंगिक बनाना और हाशिए पर धकेलना कैसे संभव हो सकता है? कश्मीर हो या शेष भारत, मुसलमानों को आज नीति निर्माण में उनकी भूमिका से वंचित किया जा रहा है.

नागरिकता (संशोधन) विधेयक हो या गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) संशोधन अधिनियम या फिर तीन तलाक को आपराधिक बनाने का कानून मुसलमान-विरोधी भावनाएं साफ जाहिर हो रही हैं.

‘जिहाद’ के जिक्र वाली किसी किताब को पढ़ने के अपराध में, यूएपीए कानून के तहत, मुझे आतंकवादी करार दिया जा सकता है. पर इस्लाम का भयावह चित्रण करने, और इस तरह मुस्लिम-विरोधी भावनाओं को बढ़ावा देने, वाली तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिका को भारत में शरण दी जाती है. साहित्य महोत्सवों में आज भी सैटेनिक वर्सेज जैसी किताब के उद्धरणों का पाठ किया जाता है. भिन्न विचारधाराओं के अतिवादियों के लिए समान पैमाने का इस्तेमाल शायद ही कभी किया जाता है, तभी तो आतंकवाद की एक हिंदू आरोपी भारतीय संसद में आसानी से फिट हो जाती है.


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मुसलमानों को अहसास कराया जाता है कि उनकी कम बराबरी की हैसियत है. उदाहरण के लिए 2016 के जाट आंदोलन को लें. हालांकि जाट आंदोलनकारियों ने जम कर हिंसा मचाई, पर अधिकांश मीडिया ने इसे मूलत: ‘राजनीति दबाव बनाने का प्रयास’ बताया जिसमें कि हिंसा भी हो गई. कश्मीरी जब अपने अधिकारों को लेकर ऐसा ही करते हैं, तो उन्हें आतंकवादी करार दिया जाता है और मुसलमान इस अंतर को महसूस करते रहते हैं. जिस काम के लिए बाकियों का कुछ नहीं बिगड़ता, मुसलमानों को उसका खामियाजा भुगतना पड़ता है.

‘निकाह हलाला’, जबरिया धर्मांतरण, लव जिहाद, गो हत्या, मदरसों में बाल यौन शोषण, सड़कों पर नमाज़, लाउडस्पीकरों पर अज़ान, शहरों और सड़कों के नाम बदलने जैसे विषयों पर निरंतर चलती बहस मुस्लिम विरोधी पूर्वाग्रह को बढ़ावा देने का ही काम करती हैं. मुसलमानों को उनकी औकात बताने और उन्हें अप्रासंगिक बनाने की प्रकिया निरंतर जारी है, कश्मीरियों के समान ही, जब उनकी ही भूमि का भविष्य तय करने में उनसे मशविरा नहीं किया जाता.

कश्मीर का दर्द सिर्फ कश्मीर का ही नहीं है. हाशिए पर डाल दिया गया हर भारतीय आज उसे महसूस कर रहा है. नई सोशल इंजीनियरिंग स्पष्ट है: उनके मत का कोई महत्व नहीं है क्योंकि उनको ठीक से पता नहीं.

किसे पता था कि एक दिन भारत ‘बहुसंख्यकों द्वारा, बहुसंख्यकों का, बहुसंख्यकों के लिए’ बन जाएगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

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