किसी प्रिय दोस्त ने कहा, “आज समस्या यह है कि भारतीय मुसलमानों के पास कोई नेता नहीं है और मुस्लिम नेताओं ने वर्षों से अपने ही समुदाय को धोखा दिया है.” इस दोस्त को भरोसा नहीं कि कोई भी मुसलमानों के वास्तविक मुद्दों का प्रतिनिधित्व कर सकता है और चूंकि इतने सारे मुस्लिम प्रतिनिधि नहीं हैं, इसलिए मुझे राजनीति में शामिल होना चाहिए. “आप लोगों को एक मुस्लिम नेता की सख्त ज़रूरत है.”
मैं काफी देर तक उसे देखती रही, मेरे दिमाग में बस एक ही शब्द गूंज रहा था — मुस्लिम, मुस्लिम, मुस्लिम. बचपन से मैंने ‘इंडियन’ ही सुना है. दोस्त ने फिर कहा, “अच्छे मुसलमानों को राजनीति में आने की ज़रूरत है. तभी निष्पक्ष प्रतिनिधित्व संभव है.” तात्कालिकता के संकेत से भरी इस बातचीत में यह छिपा था कि एक मुसलमान होने के नाते, मुझे एक कथित खाली जगह को भरने के लिए राजनीति में कदम रखने के बारे में सोचना चाहिए.
मैं खुद को यह पूछने से रोक नहीं सकी, “क्या आप स्वीकार कर रहे हैं कि, वर्षों से, ‘आप लोगों’ के पास हिंदू नेता हैं? नेता जो सिर्फ हिंदुओं का प्रतिनिधित्व करते हों? क्या लोगों का धर्म के आधार पर चुनाव करना या निर्वाचित होना अजीब और पूरी तरह से असंवैधानिक नहीं है? और क्या आप भी एक हिंदू के रूप में वोट दे रहे हैं?” उनकी चुप्पी ने मेरी बात की पुष्टि कर दी.
और ऐसे ही भारतीय संविधान फिर हार गया. हम अक्सर भूल जाते हैं कि हम सबसे पहले लोकतंत्र क्यों बने. शासन का कोई दूसरा मॉडल भारत जैसे सुंदर विविधता वाले देश को कायम नहीं रख सकता. रंगीन पच्चीकारी में, जहां भावनाएं और पहचान आपस में जुड़ी हुई हैं, समानता का वादा होना चाहिए. संविधान समानता के अधिकार पर टिका है.
मेरे दोस्त का सुझाव, हालांकि, नेक इरादे से था, लेकिन इसने अनजाने में एक बड़े मसले को उजागर कर दिया – यह धारणा कि समुदायों का प्रतिनिधित्व उनकी धार्मिक पृष्ठभूमि के नेताओं द्वारा किया जाना चाहिए. यह भावना भारतीय संविधान में निहित मूलभूत सिद्धांतों का खंडन करती है, जो सभी नागरिकों के प्रतिनिधित्व को अनिवार्य बनाता है, चाहे उनकी धार्मिक आस्था कुछ भी हो. इसने भारतीय धर्मनिरपेक्षता के सार को फिर से खोजने के लिए मुझे जिज्ञासु बना दिया.
नई दिल्ली कॉलोनी में स्थित, एक सिख पड़ोस, एक हिंदू समुदाय और एक चर्च से घिरा हुआ, मेरी तरबियत भारत के बहुरूपदर्शक सांस्कृतिक परिदृश्य को दिखाती है. मेरे परिवेश की छवि ने मुझे कभी भी दोस्तों और पड़ोसियों को धर्म के चश्मे से देखने के लिए मज़बूर नहीं किया. एक कॉन्वेंट प्री-स्कूल में दाखिला लेने से लेकर एक सिख संस्थान में अपने शुरुआती साल बिताने तक, मेरी पढ़ाई अलग-अलग शिक्षाओं का उत्सव थी. मैंने मज़े से शबद गाए और सबसे खुशी से दिवाली मनाई. मैं ये अभी भी कर रही हूं. मेरे दोस्त अलग-अलग पृष्ठभूमि से हैं और धार्मिक मतभेद हमारे सौहार्द के समृद्ध ताने-बाने में एक अदृश्य धागा थे. इस पालन-पोषण ने मुझमें यह विश्वास पैदा किया कि धर्म एक अत्यंत व्यक्तिगत मामला है और किसी की पहचान धार्मिक लेबल से परे होनी चाहिए.
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नेताओं को किस पर ध्यान देना चाहिए
मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक मुस्लिम नेता की मौजूदगी के विचार पर सोचते हुए मैंने खुद को हमारे लोकतांत्रिक सिद्धांतों के सार पर सवाल उठाते हुए पाया. संविधान, एक दूरदर्शी दस्तावेज़, नैतिक दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करता है जो हमारे राष्ट्र को एकजुट करता है. समानता, न्याय और स्वतंत्रता के मूल्यों को कायम रखते हुए, यह धार्मिक, जाति और पंथ-आधारित भेदभावों से परे है. महात्मा गांधी के ओजस्वी शब्दों में, “मैं नहीं चाहता कि मेरे घर को चारों तरफ से दीवारों से घेर दिया जाए और मेरी खिड़कियां बंद कर दी जाएं. मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियां मेरे घर में यथासंभव स्वतंत्र रूप से प्रसारित हों.”
सभी भारतीयों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेता का आह्वान संविधान की समावेशी भावना के अनुरूप है. विविधता का जश्न मनाने वाले राष्ट्र के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दृष्टिकोण विशेष रूप से प्रासंगिक हो जाता है: “हम एक महान देश के नागरिक हैं, जो साहसिक प्रगति के कगार पर है और हमें उस उच्च मानक पर खरा उतरना है. हम सभी, चाहे हम किसी भी धर्म के हों, समान रूप से एक मां की संतान हैं.” नेताओं को इस दृष्टिकोण को अपनाना चाहिए, पुलों के निर्माण की दिशा में काम करना चाहिए, समझ को बढ़ावा देना चाहिए और विविध नागरिकों को एकजुट करना चाहिए.
ध्यान उन समानताओं पर होना चाहिए जो हमें एक साथ बांधती हैं, न कि उन मतभेदों पर जो विभाजन का खतरा पैदा करते हैं.
विशिष्ट धार्मिक समुदायों का प्रतिनिधित्व करने वाले नेताओं की धारणा सांप्रदायिक राजनीति की दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति को कायम रखती है, जो भारत को परिभाषित करने वाली एकता को कमज़ोर करने की क्षमता रखती है. हम, एक राष्ट्र के रूप में, ठीक उसी स्थिति से जूझ रहे हैं.
जैसा कि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने स्पष्ट रूप से कहा, “जो यह जानते हुए भी पेड़ लगाता है कि वह उनकी छाया में कभी नहीं बैठेगा, उसने कम से कम जीवन का अर्थ समझना शुरू कर दिया है.” सच्चे नेता एकता के बीज बोते हैं, यह समझते हुए कि प्रगति और समृद्धि की छाया से प्रत्येक नागरिक को लाभ होगा, चाहे वे किसी भी भगवान की पूजा करते हों.
हमें सिखों के लिए एक ‘सिख’ नेता, ईसाइयों के लिए एक ‘ईसाई’, जैनियों के लिए एक ‘जैन’, बौद्धों के लिए एक ‘बौद्ध’, हिंदुओं के लिए एक ‘हिंदू’ या मुसलमानों के लिए एक ‘मुस्लिम’ नेता की ज़रूरत नहीं है.
एक भारतीय मुसलमान होने के नाते मेरी आशा ऐसे नेतृत्व में है जो धार्मिक लेबलों से ऊपर उठेगा और हमारे राष्ट्र की सामूहिक पहचान को अपनाएगा. संविधान की पवित्र शपथ हमारे नेताओं को सभी समुदायों का प्रतिनिधित्व करने, एकता और समावेशी शासन को बढ़ावा देने के लिए मज़बूर करती है. नेताओं को विभाजनकारी आख्यानों से ऊपर उठना चाहिए. नागरिकों के रूप में हमें एक ऐसे समाज के लिए प्रयास करना चाहिए, जहां भारतीयों के रूप में हमारी साझा पहचान को व्यक्तिगत धार्मिक संबद्धताओं पर प्राथमिकता दी जाए. यह एकता ही है जो भारत को न्याय, समानता और भाईचारे के सिद्धांतों पर आधारित एक उज्जवल और अधिक सामंजस्यपूर्ण भविष्य की ओर ले जाएगी.
सायमा रहमान एक रेडियो प्रेजेंटर हैं. उनका एक्स हैंडल @_sayema है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
यह लेख ‘मुस्लिम नेतृत्व का सवाल कहां है’ नामक सीरीज़ का तीसरा हिस्सा है.
(संपादन : फाल्गुनी शर्मा)
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