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Friday, 3 May, 2024
होममत-विमतभारतीय मुस्लिम महिलाओं को UCC की जरूरत है, यह स्वघोषित ज्युडिशियल बॉडीज़ को चुनौती देता है

भारतीय मुस्लिम महिलाओं को UCC की जरूरत है, यह स्वघोषित ज्युडिशियल बॉडीज़ को चुनौती देता है

यूसीसी बिल पारित करके, सरकार का लक्ष्य एक जैसे कानून बनाना है जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू हो, जिससे कानून के समक्ष समानता को बढ़ावा मिले.

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पिछले सप्ताह, मुझे उत्तराखंड सरकार द्वारा पारित समान नागरिक संहिता विधेयक पर अपने विचार व्यक्त करने के लिए एक समाचार चैनल पर आमंत्रित किया गया था. यह मेरे लिए अविश्वसनीय रूप से उत्साहजनक क्षण था. इसे लेकर मेरे मन में उम्मीद की एक किरण थी और मैं शुक्रगुज़ार होने की भावना से भरी हुई थी. अंततः, मेरे जैसी भारतीय मुस्लिम महिलाएं अब भारत के संविधान द्वारा ऐसा महसूस नहीं करतीं कि जैसे उन्हें किनारे कर दिया गया हो. वही भारतीय संविधान जिसका उद्देश्य नेहरू द्वारा अपनाए गए मूल्यों – प्रगतिशीलता, तर्कसंगतता और महिलाओं के अधिकारों – का कड़ा समर्थन था. यह सबको साथ लेकर चलने और सबको महत्त्व देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण प्रगति का प्रतीक है, जो हमें उन आदर्शों के करीब लाता है जिन पर हमारे देश का निर्माण हुआ था.

हालांकि, कुछ मुस्लिम कट्टरपंथी समूहों, स्वयंभू या स्वघोषित धार्मिक नेताओं और पितृसत्तात्मक संगठनों ने, हमारे आधुनिक, प्रगतिशील संविधान द्वारा दी गई स्वतंत्रता से लाभ उठाते हुए, आपत्तियां दर्ज कराई हैं. उनका तर्क है कि विशिष्ट कानूनों को उनके समुदाय के भीतर लागू नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे उनकी धार्मिक मान्यताओं के विपरीत हैं. इसके अलावा, वे इसे धार्मिक स्वतंत्रता का मामला बनाते हैं, और प्रभावी रूप से यह चुनने की क्षमता की वकालत करते हैं कि किन कानूनों का पालन करना है. यह दो विरोधाभासी उद्देश्यों की एक साथ पूर्ति करने जैसा है.

जबकि उत्तराखंड सरकार के यूसीसी बिल ने मुझे राहत और खुशी दी, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई), ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) और असदुद्दीन ओवैसी जैसे इस्लामी समूह जो कि मुस्लिमों का विक्टिम कार्ड खेलकर फल-फूल रहे हैं, वे इसका विरोध कर रहे हैं. उनका विरोध मुसलमानों के ख़िलाफ़ उत्पीड़न की वजह से नहीं है; बल्कि, यह सांप्रदायिक और इस्लामी समूहों द्वारा प्राप्त विशेषाधिकारों के खत्म होने की आशंका पैदा करता है. और स्वाभाविक रूप से महिला विरोधी, मुस्लिम विरोधी और, सबसे महत्वपूर्ण, भारत विरोधी व समानता विरोधी विशेषाधिकारों को अब चुनौती दी जा रही है.

औवेसी ने विभाजनकारी रुख अपना लिया है. उन्होंने यूसीसी लागू होने से मुस्लिम समुदाय के भीतर महिलाओं को मिलने वाले बेहतरीन लाभों की बात करने के बजाय इसे हिंदू-मुस्लिम का मुद्दा बनाकर पेश करने की कोशिश की. उनका तर्क है कि यह संहिता या कोड वास्तव में यूनिफॉर्म नहीं है यानि कि एक समान नहीं है, बल्कि सभी नागरिकों पर हिंदू-केंद्रित कानून को थोपने की कोशिश है. लेकिन उन्होंने आसानी से इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया कि यूसीसी काफी हद तक हिंदू कोड बिल जैसा इसलिए है क्योंकि इस बिल में महत्वपूर्ण सुधार किए गए हैं. ओवैसी बिल के कुछ पहलुओं जैसे हलाला और बहुविवाह से संबंधित प्रावधानों पर सवाल उठाते हैं.

इसके अतिरिक्त, उनका तर्क है कि यह विधेयक अनुच्छेद 25 और 29 द्वारा गारंटी किए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जो धार्मिक प्रथाओं, संस्कृति और विरासत की रक्षा करने का अधिकार देता है. लेकिन ऐसे में कई महत्वपूर्ण बिंदुओं को उन्होंने नज़रअंदाज़ कर दिया. सबसे पहले, मुस्लिम होने के लिए शरिया कानून का पालन करना कोई पूर्व शर्त नहीं है; इस्लाम के पांच बातों का पालन ही पर्याप्त है.

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ज्युडिशियल बॉडीज़ का अंत

तुर्की जैसे कई मुस्लिम-बहुल देशों ने धर्मनिरपेक्ष और लैंगिक रूप से समान कानूनों को सफलतापूर्वक अपनाया है. इसके अतिरिक्त, पश्चिमी देशों में रहने वाले कई मुसलमान बिना किसी संघर्ष या जद्दोजहद के अपने धर्म और विश्वास का पालन करते हुए देश के कानूनों का पालन करते हैं. दूसरा, संस्कृति के संरक्षण के नाम पर महिलाओं के उत्पीड़न को उचित ठहराना गलत है. यदि हिंदू समाज सांस्कृतिक आधार पर सती जैसी प्रथाओं के संरक्षण की वकालत करता है, तो राज्य ऐसे अन्याय को रोकने के लिए उचित रूप से हस्तक्षेप करेगा. इसी प्रकार, यह सुनिश्चित करना राज्य का कर्तव्य है कि कोई भी व्यक्ति, चाहे उसकी सांस्कृतिक या धार्मिक पृष्ठभूमि कुछ भी हो, अन्याय या उत्पीड़न का शिकार न हो.

एक अन्य तर्क एआईएमपीएलबी जैसे स्वघोषित मुस्लिम संस्थाओं से पैदा होता है. उनका तर्क है कि उत्तराखंड सरकार द्वारा यूसीसी पर प्रस्तावित कानून अनावश्यक है और विविधता में एकता के सिद्धांत को कमजोर करता है. हालांकि, यह तर्क इस तथ्य को नजरअंदाज करता है कि विविधता में एकता का मतलब भेदभाव या असमानता के प्रति सहिष्णुता नहीं है. बल्कि, यह एक ढांचे के भीतर विभिन्न संस्कृतियों और मान्यताओं के सह-अस्तित्व पर जोर देता है जो सभी व्यक्तियों के लिए मौलिक अधिकारों और समानता को कायम रखता है, चाहे उनकी पृष्ठभूमि कुछ भी हो.

कोई भी मुसलमानों को अपने रीति-रिवाजों का पालन करने, अपनी मान्यताओं के अनुसार रहने या अपनी पसंद के अनुसार कपड़े पहनने के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता है. ये व्यक्तिगत स्वतंत्रताएं हैं जो कानूनी सीमाओं के भीतर संरक्षित और सम्मानित हैं. मौजूदा मुद्दा कानूनी शर्तों से संबंधित है जहां महिलाओं के खिलाफ भेदभाव बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. इसलिए, यूसीसी का आह्वान विविधता को नकारता नहीं है; बल्कि, यह कानूनी ढांचे के भीतर समानता और न्याय सुनिश्चित करना चाहता है.

यह पूरी तरह से समझ में आता है कि एआईएमपीएलबी जैसे संगठन यूसीसी का विरोध क्यों करते हैं. ऐसा कोड वास्तव में उनके अधिकार को चुनौती देगा, क्योंकि वे अक्सर मुस्लिम समुदाय के भीतर समानांतर ज्युडिशियल बॉडीज़ के रूप में कार्य करते हैं. यूसीसी की वकालत करके, उत्तराखंड सरकार का लक्ष्य एक समान कानून स्थापित करना है जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू हो ताकि कानून के समक्ष समानता को बढ़ावा दिया जा सके और समानांतर ज्युडिशियल बॉडीज़ के प्रभाव को कम किया जा सके.

एक भारतीय मुस्लिम महिला के रूप में, मैं यूसीसी के कार्यान्वयन का तह-ए-दिल से समर्थन करती हूं. सच्चाई तब स्पष्ट होती है जब हम भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन (बीएमएमए) जैसे संगठनों द्वारा किए गए सर्वेक्षणों को देखते हैं, जो इस बात की एक झलक प्रदान करती है कि आम मुस्लिम महिलाओं की इच्छाएं क्या हैं.

10 राज्यों में किए गए बीएमएमए सर्वेक्षण के अनुसार, 90 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम महिलाओं ने बहुविवाह की प्रथा को खारिज किया और मौखिक रूप से व एकतरफा तलाक (खाली पुरुषों के द्वारा दिया जा सकने वाला) पर प्रतिबंध लगाने की इच्छा व्यक्त की है. वास्तव में, सर्वेक्षण में शामिल लगभग 91.7 प्रतिशत महिलाओं ने बहुविवाह के विरोध में आवाज उठाई और वकालत की कि एक मुस्लिम पुरुष को पहली शादी के रहते हुए दूसरी पत्नी रखने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए. पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, बिहार और झारखंड जैसे राज्यों को कवर करने वाले सर्वेक्षण के ये निष्कर्ष मुस्लिम समुदाय के भीतर सुधारों के लिए भारी समर्थन पर प्रकाश डालते हैं.

सर्वेक्षण में इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि इसमें शामिल 83.3 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं का मानना था कि मुस्लिम पारिवारिक कानून को संहिताबद्ध करने से उन्हें न्याय पाने में मदद मिलेगी. ये आंकड़े स्पष्ट रूप से प्रदर्शित करते हैं कि भारतीय मुस्लिम महिलाएं अपने लिए बोल रही हैं, अपने अधिकारों की वकालत कर रही हैं और समान कानूनी संहिता के ढांचे के भीतर न्याय की मांग कर रही हैं. अब समय आ गया है कि ये स्वयंभू और स्वघोषित मुस्लिम नेता महिलाओं की वास्तविक चिंताओं और आकांक्षाओं को सुनना शुरू करें.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय अमाना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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