1970 के दशक में पल रहे लड़के के रूप में, अपने माता-पिता के रोज सुबह अखबार पढ़ने का अनुकरण करते हुए, मुझे भी पढ़ने की आदत लग गई. मुझे राष्ट्रीय अखबारों को पढ़ने में मज़ा आता था, पर कतिपय अपराधों को कवर करने के उनके तरीके पर मुझे हैरानी होती थी.
डकैती और हत्या जैसे नियमित ‘आम’ अपराधों को कवर करने का एक अलग ढंग था, जिसमें कई बार भयानक ब्यौरे भी दिए जाते थे. वहीं, कभी-कभी हमले और मौत की खबरें भी छपती थीं. जिनमें आश्चर्यजनक रूप से सूचनाएं अधूरी रहती थीं. पहले वर्णित अपराधों के मुकाबले इनमें अपराधियों के नाम कभी नहीं होते थे, बस ‘दो समुदायों के बीच संघर्ष’ का ज़िक्र होता था. मेरे बालमन को इसका मतलब समझने और इनकी रिपोर्टिंग अलग तरह से किए जाने के कारणों को समझने में कई साल लगे थे.
स्थितियां अब बदल चुकी हैं और इनके निहितार्थों पर गौर करना उचित होगा. सात दशक पहले, भारत के बंटवारे के बाद धार्मिक संघर्ष और सांप्रदायिक हिंसा का स्तर इतना व्यापक था कि जैसा इतिहास में पहले कभी नहीं देखा गया था.
पाकिस्तान जहां स्थापना के समय से ही धर्मशासित राष्ट्र है, वहीं भारत ने एक समतामूलक संविधान चुना, जो सभी नागरिकों को समान अधिकारों की गारंटी देता है. भारतीय गणतंत्र के संस्थापकों की स्पष्ट राय थी कि भारत में रहने वाले मुसलमानों को ये आश्वासन मिलना अनिवार्य है कि उनसे कोई भेदभाव नहीं होगा.
गांधी से लेकर जवाहरलाल नेहरू, जो प्रथम प्रधानमंत्री बने और सरदार पटेल तक, जिन्हें कि बहुतों के अनुसार प्रधानमंत्री बनना चाहिए था, सभी ने उस आश्वासन को बारंबार दोहराया. हालांकि कुछ विश्लेषकों ने ऐसे सिद्धांतों के लिए प्रतिबद्धता को लेकर नेहरू को अधिक श्रेय और पटेल को कम श्रेय देने की कोशिश की है, पर सच्चाई अलग है. राजमोहन गांधी लिखित आधिकारिक जीवनी, पटेल: अ लाइफ़ में टुकड़ों में बंटे भारत को एकजुट करने और सभी नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करने के सरदार के सख़्ती भरे प्रयासों का विस्तृत उल्लेख है.
उस वचन को निभाए जाने का सबसे अच्छा सबूत स्वतंत्रता से आज तक दोनों देशों की आबादी की सामान्य तुलना में देखा जा सकता है. पाकिस्तान में हिंदू समुदाय का प्रतिशत गिर कर आज 1.6 प्रतिशत रह गया है, जबकि भारत में मुसलमानों का अनुपात वास्तव में बढ़ कर 14 प्रतिशत से अधिक हो चुका है.
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न सिर्फ नव-स्वतंत्र भारत के राजनीतिक नेता, बल्कि समाचार मीडिया ने भी उस काल में सामान्य स्थिति बहाल करने की ज़िम्मेदारी ली थी. बंटवारे के बाद के दिनों में एक मानदंड, राजनीतिक यथार्थता का एक शुरुआती रूप, स्थापित किया गया. जिसका उद्देश्य पहले से ही उबल रही भावनाओं को और भड़काने से बचना था.
चूंकि दंगों की खबरों को पूरी तरह दबाना पत्रकारिता के मूल्यों को खिलाफ जाता था, इसलिए उन्होंने अगला बेहतर विकल्प चुनते हुए अन्य अपराधों की तुलना में सांप्रदायिक हिंसा की रिपोर्टिंग को थोड़ा अस्पष्ट बना दिया. ज़्यादा भयावह ब्यौरे देने से बचने के अलावा हिंसा के शिकार और हमले के लिए जिम्मेवार समुदायों के नाम नहीं बताना स्थापित प्रक्रिया बन गई.
पर पिछले कम-से-कम दो दशकों के दौरान अधिकांश मीडिया प्लेटफॉर्मों ने इस संयम को छोड़ दिया है, हालांकि इसमें भी एक खास प्रवृति जुड़ी हुई है और इस प्रवृति ने आबादी के एक बड़े हिस्से के मन में उनकी विश्वसनीयता को काफी कम कर दिया है. तुष्टिकरण की श्रेणी में आने वाले इस नए मानक के तहत संप्रदायों के नाम तो दिए जाते ही हैं साथ ही अल्पसंख्यक समुदाय के पीड़ित पक्ष और बहुसंख्यक समुदाय के हमलावर पक्ष होने की स्थिति में घटना विशेष पर अधिक ज़ोर दिया जाता है. जबकि, स्थिति इसके उलट होने पर घटना की गंभीरता को न सिर्फ कम करके दिखाया जाता है, बल्कि पूरी लीपापोती तक कर दी जाती है.
यह प्रवृति गत पांच वर्षों में और अधिक स्पष्ट हो गई है. उदाहरण के लिए, भीड़ द्वारा कानून हाथ में लिए जाने और समुदाय विशेष से घृणा से जुड़े अपराधों की रिपोर्टिंग इसी तरीके से की जा रही है. जहां गोरक्षा से जुड़े हर अपराध की रिपोर्टिंग की जाती है, जो कि एक जघन्य अपराध के रूप में की भी जानी चाहिए, वहीं उतने ही हिंसक ‘विजिलांटे’ और घृणा आधारित अन्य अपराधों के बारे में ऐसा नहीं होता है. अक्सर उनका ज़िक्र या तो सरसरी तौर पर होता है या फिर होता ही नहीं है.
भीड़तंत्र के उभार की अनदेखी करना और प्रचलित कथानक के अनुरूप नहीं होने पर उनके सांप्रदायिक रूप को स्पष्ट नहीं करना, समाचार रिपोर्टिंग के लिए नुकसानदेह है. वैज्ञानिक और स्तंभकार आनंद रंगनाथन ने मुख्यधारा के मीडिया द्वारा घृणा आधारित अपराधों की रिपोर्टिंग में इस तरह के पूर्वाग्रह पर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है.
इस पूर्वाग्रह का पिछले सप्ताह दिल्ली में हुई एक घटना से बेहतर उदाहरण नहीं मिलेगा. जब हौज़ काज़ी में एक उपासना स्थल में दूसरे संप्रदाय के लोगों ने तोड़फोड़ की, तो अगले दो दिनों तक अधिकांश राष्ट्रीय मीडिया ने इसकी रिपोर्टिंग नहीं की. उन्होंने अपने ही वर्तमान मानकों की आश्चर्यजनक रूप से अनदेखी करते हुए ना सिर्फ पीड़ित और हमलावर समुदायों के नाम बताने से परहेज किया, बल्कि पूरी खबर को ही सेंसर कर दिया.
इस सेंसरशिप के लिए किसी ने मीडिया को कहा नहीं था, कम-से-कम सरकार ने तो नहीं ही. ये उनकी ओर से स्वत: उठाया गया कदम था. इसमें विडंबना स्वयं परिलक्षित है. मुख्यधारा के वही मीडिया प्रतिष्ठान जो कि एक कथित बहुसंख्यकवादी सरकार के दबाव का दावा करते हुए, जब सांप्रदायिक घटनाओं की रिपोर्टिंग और सरकार समर्थकों पर दोष डालने का काम जारी रखे हुए हों, तो ऐसे में उनकी कोई बाध्यता नहीं थी कि वह प्रचलित कथानक के खिलाफ जा रहे एक महत्वपूर्ण उदाहरण की अनदेखी करते.
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बेशक, सोशल मीडिया के इस युग में, जब पचास करोड़ भारतीय इंटरनेट से जुड़े हों, सूचना को दबाना संभव नहीं रह गया है. इसलिए ये खबर वायरल हो गई, पर इसी के साथ बहुतों के मन में कई खबरिया प्लेटफॉर्मों की विश्वसनीयता थोड़ी और कम हो गई.
ना तो मुख्यधारा के मीडिया के गैरज़िम्मेदार होने से और ना ही उनके सांप्रदायिक घटनाओं को हवा देने से किसी का भला होता है. पर निरंतर बुरी खबरों को एक पूर्वनिर्धारित दृष्टि से प्रस्तुत करना भी उतनी ही गैरज़िम्मेदारी का काम है. जैसा कि संविधान में लिखा है और जैसा कि हमारे गणतंत्र के संस्थापकों ने व्यवहार में अपनाया था. मीडिया को भी हर भारतीय के अधिकारों और दायित्वों को समान दृष्टिकोण से देखना चाहिए.
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(लेखक भाजपा के उपाध्यक्ष हैं. प्रस्तुत विचार उनके निजी हैं.)
Unless we have some guidelines and punitive action against bias media channels,who always try to protect Muslim fundamentalist and defame Hindus and nationalist forces,under some agenda,be booked under.sedition law and cancellation of their licence, they continue spread rumours.