अप्रैल 2021 में पूरे उत्तर और पश्चिम भारत में कोरोनावायरस के प्रकोप की तीव्रता ने किसानों के आंदोलन को सुर्ख़ियों से बाहर कर दिया है. अपने चारों तरफ अस्पतालों में ऑक्सीजन और आईसीयू के लिए चीख़-पुकार करते लोगों की तस्वीरों के बीच किसान नरेंद्र मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का दृढ़ता से विरोध जारी रखे हुए हैं. उन्होंने अपनी फसल कटाई का काम बंद नहीं किया और बहादुरी के साथ बीमारी तथा मौत का सामना करते हुए बड़ी संख्या में दिल्ली की सीमाओं पर डटे हुए हैं.
अच्छा होता अगर केंद्र सरकार पहल करते हुए ऐलान कर देती कि तीन कृषि क़ानूनों को मार्च 2023 तक ठण्डे बस्ते में रखा जाएगा. लेकिन पश्चिम बंगाल चुनावों में अपनी जीत का बोध करते हुए, जिसके नतीजे रविवार को घोषित हुए केंद्र सरकार को शायद ये लगा कि वो इन नतीजों को, कृषि क़ानूनों पर लोगों के जनमत संग्रह के तौर पर पेश कर सकती है. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अब, भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के चुनाव हारने के बाद हम केंद्र को जल्द ही किसानों के साथ संपर्क स्थापित करते हुए देख सकते हैं.
हमें अभी भी लगता है कि किसानों को अपना आंदोलन वापस ले लेना चाहिए था, कम से कम अप्रैल 2021 में, जब कोविड महामारी की लहर ऊपर उठ रही थी और मीडिया ऐसे रसूख़दार लोगों की तस्वीरों दिखा रहा था जो बेबसी के साथ अपने कोविड पॉज़िटिव परिजनों के लिए चिकित्सा सहायता की गुहार लगा रहे थे.
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APMC पर पाबंदी के चलते घाटे में है बिहार
संक्रमण के डर के बावजूद किसानों ने न सिर्फ अपनी फसल की कटाई की, बल्कि उसे बहुत बदनाम की हुई मंडियों में भी लेकर आए, जिन्होंने अपना काम जारी रखा हुआ था. 2021-22 के रबी मार्केटिंग सीज़न में 30 अप्रैल 2021 तक, 280.39 लाख टन गेहूं ख़रीदा जा चुका था. ये 30 अप्रैल 2020 की ख़रीद से 137.35 लाख टन अधिक था, जब वो 143.04 लाख टन था.
संभावना है कि पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और राजस्थान, गेंहू ख़रीद के अनुमानित लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे, लेकिन उत्तर प्रदेश में 55 लाख टन के अनुमान के मुक़ाबले, सिर्फ 11.50 लाख टन की ख़रीद हुई है. 2006-08 के वैश्विक खाद्य संकट के बाद, मध्य प्रदेश ने ख़रीद की एक विश्वसनीय प्रणाली खड़ी की और राज्य में भंडारण क्षमता स्थापित करने के लिए निजी क्षेत्र को आकर्षित करने में सफल रहा. उसने पहले ही 70.66 लाख टन की ख़रीद कर ली है.
लेकिन, बिहार केवल 3,179 टन की ख़रीद कर पाया है, जिससे पता चलता है कि राज्य अपने गेहूं किसानों के लिए 1,975 रुपए प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य का बंदोबस्त नहीं कर पा रहा है. केंद्र सरकार के आधीन उपभोक्ता मामलों के विभाग की, मूल्य निगरानी डिवीज़न की वेबसाइट (28 अप्रैल 2021 को) दिखाती है कि बिहार में बहुत सी जगहों पर थोक मूल्य 1,600 रुपए से 1,900 रुपए प्रति क्विंटल के बीच था. राज्य के मोतिहारी ज़िले में, ये सिर्फ 1,500 रुपए प्रति क्विंटल था, जो एमएसपी से 24 प्रतिशत कम था.
साफ ज़ाहिर है कि 2006 के बाद से कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) की ग़ैर-मौजूदगी, बिहार के गेहूं किसानों के लिए अच्छी साबित नहीं हुई है.
PDS की ज़रूरत से ज़्यादा ख़रीद
ऐसा लगता है कि गेहूं की ख़रीद का पिछले साल का रिकॉर्ड, इस बार टूट जाएगा. सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के तहत, आमतौर पर लगभग 250-270 लाख टन गेहूं उठाया जाता है. पिछले वर्ष प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) के अंतर्गत, 107.5 लाख टन अतिरिक्त गेहूं उठाया गया था.
तब भी, गेहूं ख़रीद की मात्रा पीडीएस की ज़रूरत से ज़्यादा थी. चूंकि गेहूं की उपज रबी की दूसरी फसलों से अधिक होती है और किसान अपने गेहूं को एमएसपी पर बेच पाते हैं (सिवाय बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के), इसलिए वो सरसों और चने जैसी दूसरी फसलों के बदले गेहूं बोना पसंद करते हैं.
चावल के मामले में, खरीफ के मौजूदा मार्केटिंग सीज़न 2020-21- अक्टूबर 2020 से मार्च 2021- की ख़रीद ने, सारे पुराने रिकॉर्ड्स तोड़ दिए हैं. 31 मार्च 2021 तक चावल की ख़रीद 465.47 लाख टन थी, जो 2016-17 के 304.35 लाख टन से 53 प्रतिशत अधिक थी.
पिछले साल, रबी सीज़न (अप्रैल से सितंबर) में चावल की अब तक की रिकॉर्ड, 126.29 लाख टन ख़रीद हुई थी, जबकि रबी में चावल का कुल उत्पादन केवल 165.9 लाख टन था. इसका मतलब है कि क़रीब 76 प्रतिशत चावल, एमएसपी पर ख़रीदा गया. पंजाब और हरियाणा रबी में चावल पैदा नहीं करते, इसलिए रबी मार्केटिंग सीज़न 2019-20 में, चावल की अतिरिक्त ख़रीद के लिए, उन्हें ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता. इसकी बजाय पिछले साल आंध्र प्रदेश और तेलंगाना, रबी चावल के प्रमुख ख़रीदार थे.
अगर इस साल रबी सीज़न में चावल की ख़रीद, पिछले साल जितनी ही रही (126.29 लाख टन), तो भारत में सितंबर में खरीफ मार्केटिंग सीज़न का अंत होते-होते, कुल 592 लाख टन चावल की ख़रीद की जा चुकी होगी. ये मात्रा 2020-21 में देश के कुल अनुमानित, 1,203.2 लाख टन चावल उत्पादन का क़रीब 50 प्रतिशत होगी.
PDS के अंतर्गत कवरेज बढ़ाना
पीडीएस के तहत क़रीब 350 लाख टन चावल उठाया जाता है. पिछले साल, पीएमजीकेएवाई के तहत 112 लाख टन अतिरिक्त चावल उठाया गया. इस तरह, चावल की ख़रीद भी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा है.
फिलहाल, 79.32 करोड़ लोग पीडीएस के अंतर्गत आते हैं. अगर 2020 की अनुमानित आबादी को पीडीएस के दायरे में ले आया जाए, तो 8.17 करोड़ अतिरिक्त लोग बेहद रिआयती अनाज के पात्र हो जाएंगे. इसका मतलब होगा कि पीडीएस कवरेज, 79.32 करोड़ से बढ़कर 87.49 करोड़ हो जाएगी.
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में इशारा किया गया है कि नीति आयोग ने एक चर्चा पत्र जारी किया है, जिनमें सिफारिश की गई है कि ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में, इस कवरेज को घटाकर क्रमश: 60 प्रतिशत और 40 प्रतिशत कर दिया जाना चाहिए. अनुमान के मुताबिक़, इससे 47,229 करोड़ रुपए सालाना की बचत हो सकती है.
कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर के नतीजे में असंगठित क्षेत्र में श्रमिकों की बेरोज़गारी और आय के नुक़सान में बढ़ोतरी हुई है. इसलिए, इस बात की संभावना नहीं है कि केंद्र सरकार इस मौक़े पर नीति आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करेगी.
लेकिन, भारत को 10 वर्ष की योजना की ज़रूरत है, जिसमें 2031 में पीडीएस की कल्पना की जाए और तय किया जाए कि कितना अनाज फिज़िकल रूप में वितरित किया जाएगा और कितने लोगों की सहायता, डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिए की जाएगी. विविधता लाकर गेहूं और चावल की जगह दूसरी फसलों को बढ़ावा देने की रणनीति पर राज्यों की सहमति ली जानी चाहिए, जिसके साथ केंद्र कुछ उपयुक्त प्रोत्साहन दे सकता है. अंत में, सरकार को इस योजना को राष्ट्रीय विकास परिषद के सामने रखना चाहिए, ताकि आम सहमति के साथ रोडमैप को अंतिम रूप दिया जा सके.
ऐसा रोडमैप तैयार करने के लिए, सरकार को एक कमेटी के गठन पर विचार करना होगा, जिसमें विश्वसनीय विशेषज्ञ शामिल हों.
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(सिराज हुसैन ईक्रियर में विज़िटिंग फेलो हैं. वो केंद्रीय कृषि सचिव के पद से रिटायर हुए हैं. जुगल महापात्रा भारत सरकार में ग्रामीण विकास सचिव रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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