इस महीने के शुरू में नरेंद्र मोदी सरकार ने बैंगन की दो नयी ट्रांसजेनिक किस्मों के जैविक रूप से सुरक्षित जमीनी परीक्षण की अनुमति दे दी है. इन किस्मों को एक सरकारी अनुसंधान संस्थान ने विकसित किया है. इस खबर से काफी सरगर्मी पैदा हो गई है.
आलू, प्याज, टमाटर के बाद बैंगन ही भारत में सबसे ज्यादा खपत वाली सब्जी है. लेकिन बैंगन की फसल को कीड़े बहुत जल्दी लगने का खतरा रहता है, खासकर ‘फ्रूट एंड शूट बोरर’ (एफएसबी) नामक कीड़े के लगने का, जो इसकी 50 से 80 फीसदी तक फसल को खराब कर देता है. किसानों को इसके लिए अक्सर कुल लागत का 50 फीसदी हिस्सा कीटनाशकों पर खर्च करना पड़ता है जिनका इस फसल के पांच महीने के चक्र में 30 से लेकर 70 बार तक छिड़काव करना पड़ता है.
कई किसान ऐसी दवाओं का छिड़काव करते हैं जो मिट्टी के प्राकृतिक बैक्टेरियम ‘बाकिलस थुरिजिएन्सिस’ (बीटी) से बनाई जाती हैं. इनसे खासकर सब्जियों के कई विनाशकारी कीड़ों का खात्मा किया जाता है. लेकिन अब विकसित मॉलिकुलर बायोलॉजी ने वैज्ञानिकों को बैक्टेरियम में ऐसे जीन्स की पहचान करा दी है जो ऐसे कीटनाशक प्रोटीन पैदा करते हैं जो खास तरह के कीड़ों को मार सकते हैं और उन जीन्स को जीनेटिक इंजिनयरिंग के जरिए पौधों में समाहित कर सकते हैं. जब निशाना बनाए गए कीड़े उन ट्रांसजेनिक पौधों को खाते हैं तब वे बीटी प्रोटीन खा लेते हैं और मर जाते हैं. यह तकनीक कीड़ों के नियंत्रण की अंतर्निहित प्रक्रिया उपलब्ध करती है और रसायनिक कीटनाशकों की जरूरत को काफी कम कर देती है. बीटी बैंगन को इसी मकसद से विकसित किया गया है.
भारत में बीटी बैंगन
आज दो मूल तकनीक से बीटी बैंगन उपलब्ध हो रहा है. एक तकनीक महाराष्ट्र की कंपनी ‘माहिको’ ने विकसित की है, जो इवेंट ‘ईई-1’ के साथ ‘क्राई1एसी’ जीन्स पर तैयार की गई है. इस किस्म को बांग्लादेश में 2013 से व्यावसायिक तौर पर उगाया जा रहा है. बीटी बैंगन की दूसरी तकनीक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) ने देसी तरीके से विकसित की है. इसमें ‘इवेंट-142’ के साथ ‘क्राई1एफए1’ जीन्स का प्रयोग किया गया है.
बीटी बैंगन इवेंट ‘ईई-1’ के साथ ‘क्राइ1एसी’ : 2001-2010
+ बीटी बैंगन के विकास, वृद्धि और कामयाबी के अध्ययन के लिए ‘माहिको’ ने 2001 में प्राथमिक ग्रीनहाउस आकलन किया था.
+ माहिकों ने तीन सरकारी अनुसंधान संगठनों को यह तकनीक दी ताकि वे इसे 2005 में बैंगन की ओपेन-पोलिनेटेड किस्मों पर आजमाएं.
+ इन प्रयोगों से मिले डेटा के आकलन के लिए दो उप-समितियां बनीं जिन्होंने इन्हें पर्यावरणीय रूप से जारी करने की सिफारिश 2009 में की.
+ अक्टूबर 2009 में जीनेटिक इंजीनियरिंग अप्रेजल कमिटी (जीईएसी) ने बीटी बैंगन को पर्यावरणीय रूप से जारी करने की सिफारिश करते हुए ‘राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण नीतिगत परिणामों के मद्देनज़र’ सरकार को अंतिम फैसला सुनाया.
बीटी बैंगन ‘इवेंट-142’ के साथ ‘क्राई1एफए1’ : 2001-2010
‘क्राइ1एफए1’ जीन्स वाले इस ट्रांसजेनिक बीटी बैंगन का विकास आईएआरआई ने 2001-2004 के बीच किया.
+ यह तकनीक जालना की बेजो शीतल सीड्स प्रा.लि. (बीएसएसपीएल) को 2005 में दी गई ताकि वह नियमों के तहत जैविक सुरक्षा के अध्ययन करे.
+ आईएआरआई ने 2006 में कृत्रिम ‘क्राई1एफए1’ जीन्स की खोज करने के पेटेंट के लिए आवेदन किया. 2010 में पेटेंट मंजूर हुआ.
+ बीएसएसपीएल ने बीटी बैंगन के दो हाइब्रिड ‘जनक बीटी’ और ‘बीएसएस 793 बीटी’ पर बनारस और गुंटूर में बीआरएल-1 स्तर की जैविक सुरक्षा का परीक्षण शुरू किया.
+ जीईएसी ने 2010 में बीआरएल-2 परीक्षण के लिए बीटी बैंगन के हाइब्रिडों के सीमित उत्पादन की मंजूरी दी गई.
लेकिन इन दोनों बीटी बैंगन का विज्ञान राजनीतिक परीक्षण में सफल नहीं हुआ. 9 फरवरी 2010 को पर्यावरण, वन, और जलवायु मंत्रालय ने ‘राष्ट्रीय विचार-विमर्श’ के बाद बीटी बैंगन पर अनिश्चित काल के लिए रोक लगा दी. इसके बाद जीएम फसलों के जमीनी परीक्षणों को रोक दिया गया.
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भारत ने छोड़ा, बांग्लादेश ने थाम लिया
बांग्लादेश ने 2009 में ईई-1 के साथ क्राई1एसी जीन्स वाले बीटी बैंगन के परीक्षण शुरू कर दिए. 2013 में उसने बीटी बैंगन (ईई-1) की किस्म के व्यापारिक रिलीज की मंजूरी दी और 20 किसानों ने नये बीजों के प्रयोग शुरू किए.
2018 में बांग्लादेश में बीटी बैंगन की पांचवीं वर्षगांठ मनाई गई. सितंबर 2018 में जीईएसी की बैठक में कहा गया कि बांग्लादेश में करीब 50 हज़ार किसान बीटी बैंगन उगा रहे थे. 27 हज़ार से ज्यादा किसानों ने 2017-18 में बीटी बैंगन को अपनाया जिनमें वे किसान शामिल नहीं थे जिन्होंने पिछली फसल से अपने बीज बचाए थे.
इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) और बांग्लादेश एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीट्यूट (बारी) ने बांग्लादेश में बीटी बैंगन की खेती करने और न करने वाले किसानों में 2018 में एक परीक्षण किया. पाया गया कि बीटी बैंगन की खेती करने वाले किसानों की प्रति किलोग्राम लागत में 31 फीसदी की कमी और प्रति हेक्टेयर कमाई में 27.3 फीसदी की वृद्धि हुई.
कीटनाशकों के प्रयोग में 39 फीसदी की कमी आई और बीटी बैंगन में एफएबीस कीड़े का प्रकोप केवल 1.8 फीसदी था, जबकि दूसरी किस्म के बैंगन में 33.9 फीसदी था. 2020 में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि पांच जिलों में बैंगन की खेती करने वाले किसानों के बीच सर्वे से जाहिर हुआ कि दूसरे बैंगनों के मुकाबले बीटी बैंगन से औसतन 19.6 फीसदी ज्यादा फसल और 21.7 फीसदी ज्यादा कमाई हुई.
बांग्लादेश ने माना है कि खेती के लिहाज से देश के अलग-अलग इलाकों के जलवायु और लोगों के स्वाद के उपयुक्त बीटी बैंगन की किस्में उपलब्ध की जाएं.
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जीएम फसलों पर राजनीतिक खेल
प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में कहा था कि संभव है, प्राचीन भारत में भी जीनेटिक इंजीनियरिंग का प्रयोग होता होगा. इसके बाद संशोधित जीन्स (जीएम) वाली फसलों को लेकर किसानों की अपेक्षाएं बढ़ गई थीं. लेकिन जरा देखिए कि इनको लेकर क्या-क्या हुआ-
+ जुलाई 2014 में जीईएसी ने बैंगन, चना, कपास, चावल, सरसों आदि कई जीएम फसलों पर प्रयोग और जमीनी परीक्षण करने की सिफारिश की.
+ नवंबर 2014 में बीएसएसपीएल ने पांच राज्यों से बीटी बैंगन के बीआरएल-2 जमीनी परीक्षण के लिए मंजूरी मांगी मगर कुछ हुआ नहीं.
+ 2014 में राज्य सभा के शीतकालीन सत्र में एक लिखित जवाब में पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा— ‘इस बात के कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं हैं कि जीएम फसलों से मिट्टी, मनुष्य के स्वास्थ्य और पर्यावरण को नुकसान होता है… जीएम फसलों की लाभकारी विशेषताएं सामने आई हैं… जो खाद्य सुरक्षा में मदद दे सकती हैं.’
+ जो कंपनियां जीएम फसलों के विकास के अलग-अलग चरण तक पहुंच चुकी थीं उन्होंने 2016 के अंत तक अपनी अर्जी वापस ले ली. नीतिगत अनिश्चितता के कारण कुछ दूसरी कंपनियों ने जीएम फसलों के परीक्षण को टालने की अनुमति मांगी.
+ सितंबर 2018 में जीईएसी की बैठक में माहिको के इस अनुरोध पर विचार किया गया कि बीटी बैंगन के जमीनी परीक्षण बड़े पैमाने पर किए जाएं. जीईएसी ने बांग्लादेश से बीटी बैंगन के व्यापारिक प्रयोग के आंकड़ों की मांग की.
+ अप्रैल 2019 में खबरें आईं कि हरियाणा में बीटी बैंगन की अनधिकृत खेती हो रही है. सरकारी एजेंसियों ने उसके नमूनों की जांच की तो पता चला कि वे संशोधित जीन्स वाले थे लेकिन उनका कौन सा जीन्स था यह नहीं पता लगा.
+ महाराष्ट्र के किसानों के शेतकरी संगठन के नेतृत्व में किसानों और उनके साथियों ने मिलकर 50 हज़ार रुपये जमा किए ताकि उस सीमांत किसान जीवन सैनी को मुआवजा दिया जा सके जिसकी बीटी बैंगन की आधे एकड़ में लगी फसल अप्रैल 2019 में उखाड़ दी गई थी.
+ जून 2019 में शेतकरी संगठन आधुनिक तकनीक की मांग करते हुए किसान सत्याग्रह शुरू किया और महाराष्ट्र और हरियाणा में ‘हर्बीसाइड टोलरेंट’ बीटी कॉटन की गैर-मंजूरशुदा किस्म की खुली बुआई की. विरोध कर रहे किसानों ने किसानों के ‘जमीनी परीक्षण’ के तौर पर बीटी बैंगन की बुआई करने का भी वादा किया क्योंकि सरकार ने उस पर रोक लगा रखी है.
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आगे क्या होगा?
जहां तक कृषि में बायोटेक्नोलॉजी के प्रयोग का सवाल है, 2011 से 2020 का दशक भारत के लिए निष्फल दशक रहा. 10 साल में जीईएसी ने केवल 35 बैठकें की और जिन प्रयोगों की अनुमति दी वे भी किए नहीं गए. इससे पिछले दशक में उसने 81 बैठकें की थी और एक दर्जन से ज्यादा जीएम फसलों पर प्रयोग चले थे.
मई 2020 में जीईएसी ने फिर बीएसएसपीएल को आठ चुने गए राज्यों में से दो में बीटी बैंगन के हाइब्रिडोन के बीआरएल-2 स्तर के जमीनी परीक्षण करने की अनुमति दी, बशर्ते राज्य सरकारें एनओसी दें. इस तरह की अनुमति 2010 और 2014 में भी दी गई थी लेकिन दोनों बार जमीन पर कोई असर नहीं दिखा. सितंबर में बीएसएसपीएल ने कहा कि वह अप्रैल 2021 से जमीनी परीक्षण शुरू करने की उम्मीद कर रही है.
भारत में बीटी बैंगन के विकास की यह कहानी यही बताती है कि नीति निर्माता साफ फैसले करने से बचने के लिए नियमों और काल्पनिक जोखिमों के हवाले देते रहे हैं. लेकिन परीक्षणों और प्रयोगों की अंतहीन मांगों से यही लगता है कि विज्ञान के नाम पर विज्ञान की ही प्रगति और उसके व्यावहारिक उपयोग में में अड़ंगे लगाने की कोशिशें की जाती रही हैं.
यह आधुनिक सभ्यता के इस बुनियादी वैध सिद्धांत का पूर्ण निषेध है कि किसी को तब तक दोषी नहीं माना जा सकता जब तक उसका दोष सिद्ध न हो गया हो. जीएम फसलों के लिए आज जो कसौटी अपनाई जा रही है वह मूलतः खतरनाक है और इसमें उन्हें दोषी साबित किए बिना दोषी मान कर चला जा रहा है. लेकिन जो गलत है उसे सही नहीं कहा जा सकता.
कोई भी टोक्सिकोलॉजिस्ट बताएगा कि कोई भी दवा अनुपयुक्त खुराक में जहर बन जाती है.
ये किसान ही हैं जो खेती के जोखिम को रोज झेलते हैं. वे अब तकनीक की मांग में आवाज उठा रहे हैं जिससे उनके जोखिम कम हों और हालात बेहतर हों. ये किसान ही हैं जो कानूनी फरमानों का निषेध कर रहे हैं. गैर-मंजूरशुदा जीएम फसलों का बिना किसी आश्वासन के प्रयोग करके वे सबसे बड़े जमीनी परीक्षण में जुटे हैं. ये साहसी किसान अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रहे हैं और समाज द्वारा खड़े किए गए जोखिमों का मुकाबला कर रहे हैं, जो समाज उन्हें जीएम फसल सहित नई तकनीक से वंचित कर रहा है.
भारत के किसान ‘आत्मनिर्भर भारत’ के सच्चे प्रतिनिधि हैं, उनका उत्पादन मौलिक ‘मेक इन इंडिया’ है, इस नारे के आविष्कार से बहुत पहले से ही है.
(लेखक लिबर्टी इंस्टीट्यूट के संस्थापक निदेशक रह चुके हैं, खेती और भूमि संबंधित मुद्दों के टिप्पणीकार भी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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