जैसे ही यह खबर आई कि दुनिया की सबसे तेज रफ्तार अर्थव्यवस्था आज दुनिया की सबसे तेजी से सिकुड़ रही अर्थव्यवस्था बन गई है, चारों तरफ से तरह-तरह की टिप्पणियां आने लगीं. इन टिप्पणियों में सबसे गौरतलब यह थी कि भारत की आर्थिक वृद्धि की क्षमता 6 प्रतिशत से घटकर 5 प्रतिशत की हो गई है. कुछ अरसे से यह स्पष्ट हो गया था कि भारत को कोविड-19 के कारण आई मंदी के चलते रिकॉर्ड वित्तीय घाटे, रिकॉर्ड सार्वजनिक कर्ज (दोनों ही जीडीपी के संदर्भ में) का ही सामना नहीं करना पड़ेगा बल्कि बैंकों और कंपनियों के लिए ‘दोहरे बैलेंस-शीट के संकट’ को नया जीवन मिलेगा, मुद्रा के मोर्चे पर जटिल चुनौतियां पैदा होंगी और इन सबका नतीजा यह होगा कि कभी 7 प्रतिशत से ऊपर रही वृद्धि क्षमता में गिरावट आएगी. लेकिन क्या यह गिरावट 5 प्रतिशत पर पहुंच जाएगी? निश्चित ही नहीं!
किसी अर्थव्यवस्था की वृद्धि क्षमता का हिसाब सीधा-सा पत्रकारीय काम भी हो सकता है (निवेश दर में ‘आईसीओआर’ – वृद्धिशील पूंजी-उत्पादन अनुपात को भाग देकर निकाला जा सकता है) या कई अनुमानों पर आधारित जटिल हिसाब-किताब भी हो सकता है. डेटा के मामले में कमजोर अर्थव्यवस्था के साथ यह बात जुड़ी हुई होती है कि उसकी वृद्धि क्षमता के अनुमान ठोस नहीं बल्कि कमजोर आंकड़ों के रूप में होते हैं. फिर भी, अभी तक किसी ने यह नहीं कहा था कि भारत की आर्थिक वृद्धि क्षमता 1980 या 1990 के दशकों में हासिल वृद्धि दरों (5.5 से 6 प्रतिशत के बीच) से भी नीचे चली जाएगी. ऐसा हुआ तो ‘ब्रिक्स’ के जो गुलाबी नज़ारे दिखाए गए थे उन्हें बदलना पड़ेगा. मुद्रास्फीति का हिसाब लगाते हुए रुपए की कीमत में प्रति व्यक्ति आय का आंकड़ा 2022-23 में 2019-20 वाले इसके आंकड़े से बड़ा नहीं होगा. जिसका अर्थ होगा कि तीन साल बेकार गए. इसका क्या मतलब होगा इस पर भी विचार कीजिए— सभी क्षेत्रों में मांग की कमी और आपूर्ति की अधिकता और नये निवेश का रुक जाना.
इसके अलावा, सरकार के दो आशावादी अर्थशास्त्रियों ने कहा है कि आर्थिक वृद्धि की भावी दिशा अंग्रेजी के ‘वी’ अक्षर की तरह नहीं होगी कि तेजी से गिरावट हो और फिर उत्थान हो, न ही ‘यू’ (उत्थान में समय लगना) या ‘डब्ल्यू’ या ‘एल’ अक्षर की तरह होगी बल्कि ‘के’ अक्षर की तरह होगी. ‘के’ अक्षर में एक खड़ी रेखा से दो रेखाएं फूटती हैं. 2008 के वित्तीय संकट के बाद से जो कुछ होता रहा है उसके बारे में दुनिया भर के टीकाकारों की इस साल की खोज यह है—देशों, आर्थिक क्षेत्रों, कंपनियों और बेशक लोगों में भी जीतने और हारने वालों के बीच जो खाई है वह चौड़ी होती जा रही है.
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इसके उदाहरण कई हैं. देशों के मामले में, चीन 2008 से जम कर खरीदारी में जुटा हुआ है. वह अहम कंपनियों, दुनियाभर में महत्वपूर्ण बंदरगाहों को खरीद रहा है, उन देशों को खुल कर वित्तीय सहायता देता रहा है जो उसके फरमानों को मानते हों और अपना कर्ज भुगतान करने में कठिनाई महसूस करते रहे हों. भारत में शेयर बाज़ार में निवेश करने वाले लोग परेशान हैं जबकि लाखों लोगों का रोजगार छिन गया है और निजी उपभोग लगभग खत्म हो गया है जैसा कि नेशनल स्टैटिस्टिकल ऑफिस (एनएसओ) का कहना है.
दूर से काम करवाने या जानकारियां देने वाली कंपनियों और दवा कंपनियों की चांदी है (अचानक लाभ). व्यापारिक रियल एस्टेट बाज़ार, ऑफिस वाली कमीजों आदि के बाज़ार में गिरावट आ गई है. क्वान्टाज़ अब पाजामा बेचने लगी है. सेक्टरों के अंदर बड़ी मछली छोटी मछलियों को निगल रही है. जियो ने भावी ग्रुपों को निगल लिया है, डी-मार्ट जैसी को रास्ते पर लगा दिया है और उन्हें कीमत घटाने पर मजबूर कर दिया है. अडानी ने हवाईअड्डों पर एकाधिकार जमा लिया है और बंदरगाहों पर भी एकाधिकार जैसा कर लिया है (जो असमान पोर्ट चार्जों से स्पष्ट है).
यह सब पूंजीवाद पर शुंपटर के ‘रचनात्मक विध्वंस’ वाले नज़रिए से भी आगे बढ़ चुका है. अगर बड़े पैमाने पर विध्वंस से बैंकों को ही परेशानी होती है तो इससे क्या फायदा? मार्सेलस फंड के सौरभ मुखर्जी कहते भी रहे हैं कि सेक्टर के अगुआ जो हैं उनके हाथ में मुनाफे का केंद्रीकरण अभूतपूर्व स्तर पर पहुंच चुका है. मार्केट रेगुलेटर और कंपिटीशन कमीशन या तो अंधे हो गए हैं या बेहोशी की हालत में हैं जबकि यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में वे ‘टेक’ दादाओं पर लगाम कस रहे हैं और उनके अप्रतियोगी व्यवहारों पर अंकुश लगा रहे हैं.
आज जो कुछ हो रहा है वह केवल महामारी के कारण नहीं हो रहा बल्कि उसके पीछे दूसरे बड़े कारण भी काम कर रहे हैं. आर्थिक वृद्धि की रफ्तार घटाने और असमानता बढ़ाने वाली शक्तियां कोविड-19 के पहले से सक्रिय थीं और अब वे और ज्यादा सक्रिय हो गई हैं. समाज कल्याण वाले मॉडल में सरकारें पिछड़ रहे लोगों का ख्याल रखती हैं, लघु एवं मझोले व्यापार को काम करते रहने के लिए हालात बनाती हैं (जर्मनी की मिट्टेलस्टां को देखिए). लेकिन अब सरकारें सामने आ रही बड़ी चुनौतियों का सामना करने में अक्षम साबित होने लगी हैं. यह स्थिति राष्ट्रवाद की राजनीति और अर्थनीति का सहारा लेने को प्रोत्साहित करती है, जो क्षेत्रीयता के कारण और भी खराब स्वरूप ले लेती है. इसके बाद संस्थागत प्रयासों को कमजोर किया जाता है जिसके चलते ताकतवर व्यवसायी राज्यतंत्र को मुट्ठी में कर लेते हैं. तब राजनीतिक और आर्थिक रूप से जो विजेता बनकर उभरते हैं वे एक ही नहीं होते. कुल मिलाकर यह जो परिदृश्य उभरता है वह अप्रिय होता है. और तब यह आशंका सच लगने लगती है कि आर्थिक वृद्धि की क्षमता सिकुड़कर 5 प्रतिशत हो सकती है.
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