भारतीय सेना का ‘जय हिंद’ का अभिवादन देश की सशस्त्र सेनाओं की प्रकृति, भावना और धर्मनिरपेक्ष चरित्र को दर्शाता है. इस अभिवादन का कोई धार्मिक या क्षेत्रीय अर्थ नहीं है. यह भारत और उसकी सशस्त्र सेनाओं– हमारा अंतिम अस्त्र के बीच गहरे संबंधों को सही प्रतिबिंबित करता है. इसका मतलब ये नहीं है कि सैनिकों के जीवन में धर्म महत्वपूर्ण नहीं होता. दरअसल ये प्रेरणा और परस्पर मित्रता का एक महत्वपूर्ण कारक है.
हालांकि केवल ‘एक वर्ग’ (एक ही धार्मिक समूह के सैनिक) या ‘निश्चित वर्ग’ (एक यूनिट में कई धार्मिक समूहों की इकाइयां) वाली बटालियन या रेजिमेंट हैं. पर यूनिटों में तैनाती में अधिकारियों की धार्मिक संबद्धता पर विचार नहीं किया जाता है क्योंकि उनकी वर्दी ही उनका धर्म है. दिलचस्प बात ये है कि अधिकांश अधिकारियों का धर्म से पूर्णतया असंबद्ध एक उपनाम होता है, जो दरअसल व्यवहार संबंधी किसी विशेषता या निरालेपन पर आधारित होता है. सेना में अपने पूरे सेवाकाल में मुझे ‘ज़ूम’ नाम से जाना जाता था. इस उपाधि ने अब तक मेरा साथ नहीं छोड़ा है.
धार्मिक असहमति की गुंजाइश नहीं
मैंने 1968 में ऊंट दस्ते वाले तोपखाना रेजिमेंट में कमीशन प्राप्त किया था, जहां दो तोपखाना इकाई राजपूतों की और एक अहीरों की थी. वहां विविध पृष्ठभूमि से आए अधिकारी भारत के समावेशी और व्यापक प्रकृति को परिलक्षित करते थे – उनमें से 10 हिंदू, दो सिख, दो मुसलमान, एक ईसाई और एक यहूदी थे. यूनिट में रेजिमेंट का एक मंदिर था जहां सभी धार्मिक समूह पूजा करते थे. मंदिर परिसर में स्वर्ण मंदिर, काबा और सलीब पर टंगे मसीह की तस्वीर लगी थी. धर्म हमारा निजी विषय था, ना कि चर्चा का मुद्दा. हमारे आपसी संबंध इतने मजबूत थे कि धर्म के आधार पर हमारे बीच असहमति संभव ही नहीं थी.
1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान एक रात हमने अपने एक हमलावर दस्ते को तोपखाने का कवर दिया था. दस्ते ने पाकिस्तान के सिंध स्थित इस्लामगढ़ किले को लक्ष्य बनाया था. हमले से पाकिस्तानी सेना हैरान रह गई थी और हमने किले पर कब्जा कर लिया था. अगली सुबह हमलावर दल में शामिल एक जूनियर कमीशन अधिकारी ने मुझे कपड़े में लिपटी कुरान की एक प्रति सौंपी, जो उसे गांव की मस्जिद में मिली थी. उसे लगा कि वहां कुरान का अनादर हो सकता था और वह मेरे पास महफूज़ रहेगा. कुरान की वह प्रति अब भी मेरे पास है और जब भी मौका मिला मैं उसे उसके उचित स्थान पर सौंप आऊंगा.
मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा परेड
सेना की कई यूनिट ऐसी भी हैं जहां कि तीन धार्मिक समूहों का मिश्रण है. मेरी ब्रिगेड जम्मू एंड कश्मीर लाइट इन्फैंट्री की एक बटालियन में दो कंपनियां डोगरों की, एक मुसलमानों और एक सिखों की थी. चूंकि अलग-अलग उपासना स्थल संभव नहीं थे, इसलिए यूनिट में एक हॉल को ही उपासना कक्ष का रूप दिया गया था. हॉल का पश्चिमी भाग मुस्लिमों के लिए था जबकि दूसरे सिरे में डोगरा देवता और गुरु ग्रंथ साहिब विराजमान थे.
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वहां मुझे एक बार ईद समारोह में भाग लेने का मौका मिला और वहां तीनों धर्मों से संबद्ध अधिकारी मौजूद थे. पहले मौलवी की तकरीर हुई, उसके बाद एक पंडित और एक ग्रंथी ने प्रवचन दिए. तीनों के ही उपदेशों के केंद्र में मेलजोल और सर्वधर्म एकता का भाव था. उसके बाद ईद की नमाज हुई, जिसमें गैर-मुस्लिम कमान अधिकारी ने भाग लिया. ये पूजा कार्य नहीं था बल्कि अपने सैनिकों के मनोबल को बढ़ाने के लिए प्रदर्शित विशुद्ध प्रतीकात्मक भाव था. दिलों को छूने वाले उस आयोजन का स्वादिष्ट समापन हम सभी ने ईद की सेवइयां खाकर किया था. धार्मिक आयोजनों के दौरान उपस्थिति अनिवार्य होती थी– आखिर इन्हें हमेशा मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारा (एमएमजी) परेड जो कहा जाता था.
मैंने एक बार फिर धार्मिक सद्भाव का तब अनुभव किया जब विदेशों में हमारे दूतावासों में रक्षा अताशे के पद के वास्ते साक्षात्कार के लिए मुझे सेना मुख्यालय बुलाया गया. तीन देशों सऊदी अरब, मलेशिया और म्यांमार में तैनाती होनी थी. मैं 30 उत्कृष्ट अधिकारियों के बीच खुद को पाकर बहुत खुश था. विदेश में तैनाती किसी सैन्य अधिकारी के लिए सर्वाधिक पसंदीदा नियुक्ति होती है. ये आपकी काबिलियत को मान्यता दिए जाने तथा पूर्व की परेशानियों और धैर्य के लिए पुरस्कृत किए जाने जैसा होता है.
मैं सेना मुख्यालय के शीर्ष अधिकारियों वाली चयन समिति के सामने असहजता से बैठ गया. करीब 30 मिनट तक मुझसे तीनों संबंधित देशों के बारे में सवाल पूछे जाते रहे. साक्षात्कार के दौरान मैंने गौर किया कि समिति के अध्यक्ष ने एक नोट लिखकर सचिव को दिया, जोकि सैन्य सचिव शाखा का एक कर्नल था. कर्नल बाहर चला गया और लगभग 10 मिनट के बाद वापस लौटा. उसने नोट वापस अध्यक्ष को सौंप दिया. उसके बाद पूछे गए सवाल सिर्फ खाड़ी क्षेत्र पर केंद्रित थे. करीब एक दशक बाद मुझे पता चला कि नोट में आखिर क्या था. उसमें एक सवाल था: ‘शाह सुन्नी है या शिया मुसलमान?’ सचिव को इसका उत्तर नहीं पता था क्योंकि सेना में इस तरह का रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. सौभाग्य से, वह देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी में मेरे चचेरे भाई के साथ काम कर चुका था. उसने उसे फोन कर सवाल का जवाब मालूम कर लिया, और मैं सऊदी अरब के लिए चुन लिया गया.
सिर्फ बाहरी ताकतों से रक्षा का काम करे
तमिलनाडु के वेलिंगटन स्थित डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज में एक कोर्स में भाग लेने के दौरान, हमारे साथ कुछ इराकी अधिकारी भी थे. वह 1980 के इराक-ईरान संघर्ष का दौर था. उस वर्ष ईद के मौके पर हमने इराकी अधिकारियों को लंच पर अपने घर आमंत्रित किया, जहां मैंने ये पूछने की अक्षम्य भूल कर दी कि वे सुन्नी हैं या शिया. वे थोड़ा असहज दिखे और फिर जवाब मिला, ‘हम इराक़ी हैं’. यह पूरी तरह से ‘हुब्बुल वतनी’ (देशभक्ति या देशहित को सर्वोपरि मानना) की अवधारणा के अनुरूप जवाब था, जो मेरी परवरिश और सेना में अपने अनुभव के कारण मुझमें कूट-कूटकर भरी है. भारतीयों को सशस्त्र सेनाओं की समावेशी और गैर-सांप्रदायिक प्रकृति का अनुकरण करना चाहिए.
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कभी-कभार भारतीय सेना को सांप्रदायिक दंगों को रोकने की जिम्मेदारी दी जाती है और हमेशा ही सभी समुदायों ने सेना के जवानों के न्यायोचित व्यवहार और निष्पक्षता पर पूर्ण विश्वास और भरोसा जताया है. दुर्भाग्य से, पुलिस बलों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता है, जोकि पूरी तरह सांप्रदायिक हो गए हैं. दृष्टिकोण और व्यवहार में ऐसा अंतर क्यों है? पुलिस अधिकारी सांप्रदायिक उपद्रवों के बीच लंबे समय तक मौजूदगी के कारण सांप्रदायिक हो गए हैं. यह आवश्यक है कि सशस्त्र सेनाओं को आंतरिक उपद्रवों में लंबे समय तक तैनात नहीं किया जाए. नक्सल विद्रोह को समाप्त करने की जिम्मेदारी नहीं दिए जाने से सेना का भला ही हुआ है. उसे शीघ्रताशीघ्र जम्मू कश्मीर में आंतरिक सुरक्षा के कार्य से भी राहत दी जानी चाहिए.
अर्धसैनिक बलों को इस कार्य के लिए पर्याप्त प्रशिक्षण दिया जाता है. सेना को बाहरी आक्रमण से भारत की रक्षा के उसके मूल दायित्व से विमुख नहीं किया जाना चाहिए.
(लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरुद्दीन शाह, पीवीएसएम, एसएम, वीएसएम (सेवानिवृत्त) सेना के उप प्रमुख और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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