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Thursday, 19 December, 2024
होममत-विमतभारत को 1962 में उठाए गलत कदमों को दोहराने से बचना होगा, LAC की संवेदनशीलता दिखाती है तवांग की झड़प

भारत को 1962 में उठाए गलत कदमों को दोहराने से बचना होगा, LAC की संवेदनशीलता दिखाती है तवांग की झड़प

एलएसी पर टकराव के कारण स्थिति बेकाबू न होने पाए, इसके लिए भारत को 1962 में उठाए गलत कदमों की पुनरावृत्ति से बचना होगा. बहुत ध्यान से यह तय करना होगा कि कौन-सी लाइन लेनी है और उनका बचाव कैसे करना है.

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यह हमारी नदी और हमारे पहाड़ है—तवांग के उत्तरी क्षेत्र में पहाड़ों पर सक्रिय खुफिया ब्यूरो की टोही इकाई के लिए लकड़ी के तख्त पर उकेरे गए सात चीनी अक्षरों का कोई खास मतलब नहीं था. हालांकि, तेजपुर स्थित मुख्यालय में इस टेक्स्ट की व्याख्या किए जाने से काफी पहले भारतीय सैनिकों की एक पलटन तवांग से ऊपर नामका चू नदी की ओर बढ़ने के लिए थगला रिज के करीब बेहद कष्टकारी पांच दिवसीय मार्च पर निकल चुकी थी. जैसे ही सैनिक आगे बढ़े पीपुल्स लिबरेशन आर्मी उस पर टूट पड़ी—थगला के मुहाने पर लिखी चेतावनी बेअसर ही रही थी.

1959 के बाद से पीएलए भारतीय इलाके में घुसपैठ कर रही थी, गश्ती दलों पर घात लगाकर हमले कर रही थी और सैन्य ठिकाने कब्जा रही थी. हताशा में, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सेना को भारत की सबसे दूरस्थ सीमा पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने का आदेश दिया था. 22 सितंबर 1952 को एक बैठक के बाद उनकी सरकार ने एक लाइन का संदेश जारी किया—’चीनियों को बाहर निकाल फेंको.’

पिछले हफ्ते, वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर भारतीय सेना और पीएलए के सैकड़ों सैनिकों के बीच कील-जड़े डंडों और गुलेल से हुई लड़ाई 2020 के गलवान संघर्ष के बाद सबसे गंभीर झड़प थी. यद्यपि दोनों देशों की सेनाएं अपने सैनिकों को हटाने के लिए तेजी से आगे बढ़ीं, लेकिन यह टकराव दर्शाता है कि एलएसी पर स्थिति खतरनाक रूप से संवेदनशील बनी हुई है.

एलएसी पर टकराव के कारण स्थिति बेकाबू न होने पाए, इसके लिए भारत को 1962 में उठाए गलत कदमों की पुनरावृत्ति से बचना होगा. बहुत ध्यान से यह तय करना होगा कि कौन-सी लाइन लेनी है और उनका बचाव कैसे करना है.

खूनखराबे की वजह बना एक तीर्थस्थल

स्थानीय किवदंती के मुताबिक, ग्यारह सदी पहले ड्रीम योगा टेक्नीक के संस्थापक भिक्षु लवापा ने पत्थरों से पानी निकालने के लिए एक मंत्र का उपयोग किया तो चुमी ग्यात्से के झरनों से पानी गिरने लगा. कहा जाता है कि यह पानी पीकर बीमार ठीक हो जाते थे और इसके आशीर्वाद से निसंतानों को बच्चे हो जाते थे. स्थानीय बस्ती तेस्चु एलएसी से कुछ ही मीटर की दूरी पर है, और दोनों देशों के आगंतुकों के लिए एक-दूसरे की तस्वीरें लेना आम बात रही है. पिछले हफ्ते, यह तीर्थस्थल एकदम जंग का मैदान बनने के करीब पहुंच गया.

अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू तेस्चु में एक नए मठ का उद्घाटन कर 2019 से ही इस क्षेत्र में पर्यटन को प्रोत्साहित कर रहे हैं. और गलवान संकट के बाद पर्यटकों को आकर्षित करने के प्रयासों में तेजी ही आई है. भारत में भले कुछ ही लोगों ने इस ओर ध्यान दिया हो लेकिन पीएलए ने भारत की तरफ से अपना नियंत्रण बढ़ाने के इस प्रयास पर एकदम बेचैनी से नजरें टिका रखी हैं.

पिछले साल चीनी स्कॉलर लियू झोंग्यी ने तेस्चु के आसपास के क्षेत्र यांग्त्से पर चीन के दावे को फिर दोहराया. उनका तर्क था कि भारत तो ऐसे मान रहा है कि ‘कब्जे का मतलब नियंत्रण’ हो जाना ही है. यही नहीं, सितंबर 2021 में यांग्त्से सेक्टर में एक सैन्य झड़प के साथ ही ट्विटर पर भी जंग छिड़ गई. चीन समर्थक प्रोपगैंडा फैलाने वाले कुछ यूजर्स ने दावा किया कि पीएलए चुमी ग्यात्से पर फिर से कब्जे की तैयारी कर रही है.

हालांकि, तनाव कई सालों से जारी है. नई सहस्राब्दी की शुरुआत में भारत ने तवांग के उत्तरी क्षेत्र में अपने दावों पर जोर देना शुरू किया, और एलएसी के पास चारागाहों तक पैठ बनाने के लिए चौकियां निर्मित कीं. साथ ही चुमी ग्यात्से के पास सैनिकों को तैनात किया. पीएलए ने उन्हें पीछे धकेलने की कोशिश की और फिर से अपना नियंत्रण साबित करने के लिए गश्ती दल भेजे.

2017 के डोकलाम संकट के बाद पीएलए ने अपनी आवाजाही को सुगम बनाने के लिए थगला रिज के साथ एक नई सड़क का निर्माण शुरू कर दिया. इस दौरान उसने पहाड़ियों पर भारतीय सैनिकों की तरफ से बनाए गए अस्थायी ढांचों को ढहा दिया. 2020 के बाद से कभी-कभी पीएलए के बड़े गश्ती दल एलएसी के पार भारतीय क्षेत्र में घुसने लगे. भारत सरकार के सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया है कि चुमी ग्यात्से तक गश्त बढ़ाने के प्रयास में कई बार हुए मामूली झगड़े ही पिछले हफ्ते की एक बड़ी झड़प के तौर पर सामने आए हैं.

लेकिन सैन्य दबाव बढ़ाना ही चीन का एकमात्र हथियार नहीं है. डोकलाम संकट के बाद चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने अरुणाचल प्रदेश की सीमा से लगे मॉडल गांवों में स्थानीय खानाबदोश समुदायों को बसाने के प्रयास तेज कर दिए थे. शी ने उसी वर्ष लिखा था, ‘गलसांग के फूलों की तरह’ ही खानबदोश परिवारों ने भी अपनी जड़ें जमा ली हैं और सीमा के रखवाले बन गए हैं. रेलवे और सड़कों जैसे बुनियादी ढांचे का निर्माण भी यहां काफी तेजी से बढ़ा है.

इस साल के शुरू में, कुछ विद्वान इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पीएलए की घुसपैठ ‘कुछ खास विवादित क्षेत्रों पर अधिक स्थायी नियंत्रण’ हासिल करने की सोची-समझी रणनीतिक चाल लगती है. हालांकि, भारतीय सैन्य रणनीतिकारों के लिए यह सवाल काफी उलझाने वाला बना हुआ है कि उसे पीछे धकेलना कितना मुश्किल है—और असल में कहां ऐसा करने की जरूरत है.


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पीएलए को पीछे धकेलने की कोशिशें

जून 1962 में जब भारतीय सैनिकों ने नामक चू नदी पार की थी, तो उनके कमांडरों ने शायद सोचा भी नहीं होगा कि क्या कोई खतरनाक रेखा पार की जा रही है. औपनिवेशिक-काल में हेनरी मैकमोहन लाइन खींचने के लिए इस्तेमाल कार्टोग्राफिक सिद्धांतों के साथ स्थानीय निवासी भी यही बताते हैं कि सीमा थगला रिज के साथ-साथ चलती थी. यहां तक, लेफ्टिनेंट जनरल टी.बी. हेंडरसन ब्रूक्स की तरफ से 1962 के युद्ध की आधिकारिक जांच में भी दर्ज है, सेना की तरफ से इस्तेमाल किए जाने वाले नक्शे में नई पोस्ट को भारत की सीमाओं के उत्तर में रखा गया था.

ढोला पोस्ट की सुरक्षा के लिए तैनात 33वीं वाहिनी को पता था कि बुम ला दर्रे के पश्चिम में स्थित त्संगले में एक और पोस्ट स्थापित करने की जरूरत है—लेकिन, सेना के नक्शे के मुताबिक त्संगले भूटान में था.

एक्सपर्ट मनोज जोशी ने भारत-चीन जंग पर अपनी एक किताब में लिखा है, 1962 में तवांग क्षेत्र से बेदखल भारतीय जनरलों ने काफी पहले ही भविष्य में किसी युद्ध की स्थिति में शहर छोड़ने की योजना बनाई थी. दरअसल, सेना ने सोचा था कि वह मैदानी इलाकों के प्रवेश द्वार यानी से ला क्षेत्र में पीएलए को रोकने में सक्षम होगी. बहरहाल, 1967 की झड़पों में सेना पीएलए की अपेक्षा से कहीं अधिक भारी पड़ी. 1983 के बाद से भारत ने फिर एलएसी पर अपनी उपस्थिति का दावा करना शुरू किया और खुफिया ब्यूरो की गुप्त इकाइयों को बेहद ऊंचाई पर स्थिति गर्मी के मौसम वाले चारागाहों में भेजा.

फिर, 1986 में इंटेलिजेंस ब्यूरो की टोही टीम ने सुमदोरोंग चू नदी पर वांगडुंग चारागाह पर पीएलए के सैनिकों की मौजूदगी का पता लगाया. पीएलए की मौजूदगी का पता लगने के बाद महीनों तक दोनों देशों के सैनिक एकदम आमने-सामने रहे.

इस संकट के बाद दोनों पक्षों में इस पर सहमति बनी कि ऐसे 12 क्षेत्र हैं जहां एलएसी पर उनकी धारणा एक-दूसरे से अलग है, उनमें यांग्त्से भी शामिल था. दिलचस्प बात है कि पीएलए ने गलवान संकट के बाद जिन प्रमुख क्षेत्रों—पैंगोंग त्सो, कुगरांग घाटी, देपसांग और गलवान—पर अपना दावा जताया है, वो अगस्त 1995 की सूची में शामिल नहीं थे.

अतीत का साया

सितंबर 1962 की शुरुआत में, जैसा अधिकारियों ने सोचा था, सैकड़ों की संख्या में पीएलए सैनिकों ने ढोला पोस्ट को घेर लिया. 1989 में नामक चू का दौरा करने वाले एक अधिकारी के मुताबिक, ‘हर जगह कंकाल थे…हम बहुत ज्यादा कुछ तो नहीं कर सकते थे—हमने बस उन्हें एक जगह एकत्र किया, उन पर मिट्टी का तेल डाला, और सलामी देते हुए उनका अंतिम संस्कार कर दिया.’ डायरेक्टर, मिलिट्री ऑपरेशन्स जनरल ब्रूक्स हेंडरसन ने दर्ज किया है, इसमें फख्र करने जैसा बहुत कुछ नहीं है लेकिन नतीजा यही दर्शाता है कि पीएलए ‘लड़ने की स्थिति में नहीं’ थी.

हालांकि, हर कोई आश्वस्त नहीं था. लेकिन पश्चिमी सेना के कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल दौलत सिंह ने युद्ध के हालात बनने के बीच यह सुझाव भी दिया था कि चीन ने अपने कब्जे वाले क्षेत्रों में तब तक छोड़ दिया जाए जब तक भारत ने अपनी रक्षा क्षमता नहीं बढ़ा लेता. लेकिन सरकार ने इसकी अनदेखी कर दी.

डोकलाम संकट के बाद चीनी टिप्पणीकार झू बो ने तर्क दिया कि चीन-भारत सीमा ‘फिर कभी पहले जैसी नहीं रहेगी और भारत के लिए मुश्किल की बात यह है…चीन संभवत: सीमा पर बुनियादी ढांचे का निर्माण बढ़ाएगा. भारत भी जवाब में ऐसे ही कदम उठाएगा, लेकिन चीन की मजबूत अर्थव्यवस्था को देखते हुए यह स्पीड या स्केल किसी भी मामले में उसकी बराबरी नहीं कर पाएगा.’

इस बार, भारत को जंग में मात देने की कोशिश करने के बजाये पीएलए देश को संसाधनों की कमी से जूझने की स्थिति में उलझाने की कोशिश कर रही है. एशिया की एक प्रमुख ताकत के नाते नई दिल्ली के लिए एलएसी पर अपने दावों की मजबूती के लिए बार-बार आंखें तरेरने की चीन की कोशिश एक रणनीतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न करती है. भले ही भारतीय सेना तवांग में पीएलए को पीछे धकेलने का दृढ़ संकल्प दिखाती रही हो, दुर्गम इलाके और लॉजिस्टिक की स्थिति के मद्देनजर पीएलए मजबूत स्थिति में है. यही नहीं, पीएलए आधुनिकीकरण और संसाधनों के मामले में भी काफी आगे है.

1902 में शाही सिविल सेवक जेम्स व्हाइट के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिकों का नाकू ला में तिब्बती सैनिकों से आमना-सामना हुआ था जो अरुणाचल प्रदेश में विवादित सीमा पर पहला टकराव था. तिब्बत ने जोर देकर कहा कि सीमा दीवार से लगी है, जिसे 19वीं शताब्दी में अपने चारागाहों को चिह्नित करने के लिए बनाया गया था. जबकि व्हाइट के पास 1890 के एंग्लो-चाइनीज कन्वेंशन की एक प्रति थी, जिसके मुताबिक सीमा नाकू ला दर्रे से दो किलोमीटर उत्तर में निर्धारित की गई थी.

हालांकि, यह टकराव उस 2 किमी लंबे इलाके को लेकर नहीं था. बल्कि इससे चीन और ब्रिटेन दोनों साम्राज्यों की प्रतिष्ठा जुड़ी थी.

यद्यपि, भारत अपने दावों पर मजबूती से टिके रहने के लिए नई रणनीतियों पर विचार कर रहा है—जिसमें काइनेटिक टूल का अधिक से अधिक इस्तेमाल शामिल है, जो क्षेत्र को किसी दायरे में बांधे बिना कड़ा जवाब दे सकता है—लेकिन अब मजबूत कूटनीति अपनाने का समय आ गया है. अरुणाचल प्रदेश की मान्यता के बदले में अक्साई चिन पर चीन के दावों को स्वीकारने का विचार 1952 के बाद से कई बार उठ चुका है. लेकिन चीन के अहंकार और भारत के गौरव को पहुंचने वाली चोट ने इसमें किसी प्रगति को मुश्किल बना दिया. लेकिन दो सशक्त और प्रतिबद्ध नेताओं के लिए इस समस्या का कोई समाधान निकालना असंभव नहीं होना चाहिए.

महान शक्तियों का आत्मकेंद्रित होना अक्सर बातों में एक-दूसरे को पीछे छोड़ देने वाला साबित होता है. एक पीछे हटते तिब्बती ने सैनिक और एडवेंचरर फ्रांसिस यंगहस्बेंड से कहा था, ‘आप किसी कुत्ते को झिड़केंगे तो हो सकता है कि वह एक या दो बार ना काटे. लेकिन आप उसकी पूंछ पर पैर रख देंगे तो भले ही उसके दांत न हों, वह मुड़कर आपको काटने की कोशिश करेगा.’

इस बारे में यंगहस्बेंड की राय थी, ‘मुझे लगता है कि किसी एक पक्ष के लिए दूसरे पक्ष का दृष्टिकोण समझना हमेशा कठिन होता है. लेकिन, निश्चित तौर पर हमारे बारे में उनकी राय ठीक उसी तरह होगी जैसा हम तिब्बतियों के बारे में सोचते हैं.’

यह युद्ध किसी भी पक्ष को बहुत कुछ देने वाला नहीं है—और दोनों को ही विनाश के कगार पर पहुंचाने की क्षमता रखता है.

(लेखक दिप्रिंट में नेशनल सिक्योरिटी एडिटर है. उनका ट्विटर हैंडल @praveenswami है. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी | संपादन: ऋषभ राज)

(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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