भारतीयों के खिलाफ नफरत कोई नई बात नहीं है, लेकिन अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया में हालिया बढ़ोतरी सिर्फ अलग-थलग नफरत की घटनाओं से कहीं ज्यादा गहरी और चिंताजनक तस्वीर दिखाती है. यह आर्थिक असुरक्षा, ऑनलाइन कट्टरता और आसान दुश्मन खोजने वाली पॉपुलिस्ट राजनीति के खतरनाक मेल को दर्शाती है.
विडंबना साफ है: यहां तक कि वे भारतीय भी नहीं बख्शे जा रहे हैं, जिन्होंने पश्चिमी रूढ़िवाद की भाषा अपनाकर अपने सार्वजनिक करियर बनाए हैं. पॉडकास्ट, कमेंट सेक्शन और यहां तक कि सड़कों पर भी संदेश साफ है—आपकी राजनीति हमारे जैसी हो सकती है, लेकिन आपकी स्किन, आपका नाम और आपकी जड़ें नहीं.
फिर भी, पश्चिम में भारतीयों के खिलाफ नस्लवाद तेज़ होने के बावजूद, देश में प्रतिक्रिया अजीब तरह से कमज़ोर है. शायद इसलिए कि कई भारतीय मान लेते हैं कि इसका उनसे कोई लेना-देना नहीं है. वे इसे “विदेश की समस्या” समझते हैं, जो सुरक्षित दूरी पर है, लेकिन यह दूरी एक भ्रम है. भारतीय प्रवासी कोई अमूर्त समूह नहीं हैं जो किसी और ग्रह पर रहते हों; वे हमारे परिवार हैं, हमारे रिश्तेदार हैं, हमारे बच्चे हैं—वे लोग जो हर त्योहार और हर संकट में अब भी घर फोन करते हैं.
अगर इंसानियत कुछ लोगों को चिंता में डालने के लिए काफी नहीं है, तो ठंडे आंकड़े शायद सोचने पर मजबूर करें. सिर्फ 2023 में ही भारत को करीब 125 अरब डॉलर का रेमिटेंस मिला—लगातार तीसरे साल दुनिया में सबसे ज्यादा. भारत में कुल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा एनआरआई निवेश से आता है. यानी, विदेश में नफरत झेल रहे यही लोग भारतीय अर्थव्यवस्था, उसकी वैश्विक छवि और उसकी सॉफ्ट पावर को जिंदा रखे हुए हैं.
अब यह और साफ होता जा रहा है कि पुराना “मॉडल माइनॉरिटी” का मिथक कितनी तेज़ी से टूट रहा है. सालों तक पश्चिम में रहने वाले कई भारतीय मानते रहे और आज भी मानते हैं कि वे मेहनती हैं, नियमों का पालन करते हैं और “कानूनी तरीके” से आए हैं, इसलिए वे हमेशा सुरक्षित रहेंगे. यह कहानी आज भी इंटरव्यू में सुनाई देती है: हाल ही में भारतीय कॉमेडियन जर्ना गार्ग ने भरोसे के साथ कहा कि ज्यादातर भारतीय कानूनी तौर पर अमेरिका आते हैं, भले ही इसमें उन्हें 15 साल लग जाएं. यह सोच न सिर्फ बेहद सतही है, बल्कि तथ्यात्मक रूप से भी गलत है, जहां अमेरिकी होमलैंड सिक्योरिटी विभाग ने 2022 में करीब 2 लाख अवैध भारतीयों का अनुमान लगाया था, वहीं प्यू रिसर्च और सेंटर फॉर माइग्रेशन स्टडीज के स्वतंत्र शोध के मुताबिक 2022 तक अमेरिका में 7 लाख से ज्यादा अवैध भारतीय रह रहे थे, जिससे भारतीय देश में तीसरा सबसे बड़ा अवैध प्रवासी समूह बन गए.
मॉडल माइनॉरिटी का पतन
लेकिन यह भी असली मोड़ नहीं है. असली झटका यह है कि MAGA प्रभावशाली लोग—जो पहले भारतीय प्रवासी समुदाय पर ध्यान ही नहीं देते थे—अब बिना किसी झिझक के खुलेआम इस समुदाय पर हमला करने लगे हैं.
2024 के चुनावों से पहले, विवेक रामास्वामी, तुलसी गबार्ड और काश पटेल जैसे भारतीय मूल के प्रमुख लोगों को ट्रंप के सहयोगी के तौर पर पेश किया जा रहा था और नई कैबिनेट में अहम पद दिए जा रहे थे. इसे कई लोगों ने, यहां तक कि भारत में भी, इस बात का सबूत माना कि भारतीय प्रवासी समुदाय अमेरिकी समाज में “सफल” हो गया है, लेकिन एक साल से भी कम समय में रामास्वामी बाहर हो गए, पटेल को बढ़ती आलोचना और नस्लवादी साजिशी सिद्धांतों का सामना करना पड़ा और गबार्ड को दिवाली मनाने पर MAGA समर्थकों ने ऑनलाइन निशाना बनाया; उनसे कहा गया—“भारत वापस जाओ.” इसके साथ ही सोशल मीडिया पर भारतीयों को निशाना बनाकर नस्लवादी भाषा और तेज़ होती चली गई. एक साल से भी कम वक्त में ‘सम्मानित मॉडल माइनॉरिटी’ को एक निंदनीय, पिछड़ा और असंगत समुदाय के रूप में पेश कर दिया गया.
अब जो बात साफ दिखती है, वह वही है जो हम में से कई लोग पहले से जानते थे: सम्मान आपको नहीं बचाता, कॉलेज की डिग्रियां आपको नहीं बचातीं और “मॉडल माइनॉरिटी” होना तो बिल्कुल भी सुरक्षा नहीं देता. जब कोई राजनीतिक आंदोलन आपको निशाना बनाने का फैसला कर लेता है, तो उसे किसी वजह की ज़रूरत ही नहीं होती.
MAGA के सबसे मुखर और प्रभावशाली चेहरों में से एक, एलेक्स जोन्स—जो खुद को ट्रंप का कट्टर समर्थक बताते हैं, उन्होंने अब भारतीय प्रवासी समुदाय पर हमला करने के लिए एक नहीं, बल्कि पूरे दो एपिसोड समर्पित कर दिए हैं. उनके मुताबिक, भारतीय “सारी नौकरियां छीन रहे हैं”, उनकी संस्कृति अमेरिकी मूल्यों से “मेल नहीं खाती” और उन्होंने हमारी कथित पिछड़ेपन का सबूत बताने के लिए गोबर से जुड़े एक वायरल वीडियो को भी लहराया. नफरत भरी राजनीति की जानी-पहचानी स्क्रिप्ट में फिट बैठते हुए, जोन्स ने यह भी दावा किया कि भारतीय “दहेज लेते हैं और अपनी पत्नियों को जलाते हैं”, एक जटिल सामाजिक समस्या जिससे भारतीय खुद भी लड़ते हैं—को घिन पैदा करने वाली कार्टून-सी तस्वीर में बदल दिया.
इसे देखना ऐसा लगा जैसे किसी जानी-पहचानी किताब को फिर से खोलना: एक घटना लो, उसे तोड़-मरोड़ कर पेश करो, पहचान से परे बढ़ा-चढ़ाकर दिखाओ, और फिर पूरे समुदाय के खिलाफ डर पैदा करने के लिए उसे हथियार बना दो. यह वही पुराना तरीका है, बस निशाना नया है. ऐसा ही कुछ मैंने भारत में भी देखा है, जब दक्षिणपंथी चरमपंथी सामान्यीकरण करके भारतीय मुसलमानों को निशाना बनाते हैं.
मागा-भारतीय मानसिकता
जहां कई भारतीय मूल के प्रवासियों के लिए “मॉडल माइनॉरिटी” का मिथक धीरे-धीरे टूट रहा है, वहीं एक और वर्ग है जो मुझे और ज्यादा परेशान करता है: वे भारतीय जो हर भारतीय चीज को तिरस्कार की नज़र से देखते हैं, जैसे दूरी ने उन्हें नैतिक रूप से श्रेष्ठ बना दिया हो. आप उन्हें ऑनलाइन देख सकते हैं—अक्सर सबसे तेज़ आवाज़ों के रूप में जो MAGA प्रभावशाली लोगों की बातों पर सिर हिलाते हैं और इस बात से सहमत होते हैं कि “तीसरी दुनिया” के लोगों को अमेरिका में आने की इज़ाज़त नहीं मिलनी चाहिए. जब प्रिया पटेल जैसी भारतीय-अमेरिकी इन्फ्लुएंसर एक्स पर यह घोषणा करती हैं, “सभी संस्कृतियां समान नहीं होतीं,” तो यह मानसिकता साफ दिखाई देती है.
प्रिय पटेल जैसे लोग खुद को अपवाद मानते हैं—ज्यादा घुले-मिले हुए, ज्यादा प्रबुद्ध और इसलिए सोचते हैं कि वे उस नस्लवाद से सुरक्षित हैं, जिसका सामना दूसरों को करना पड़ता है. उन्हें लगता है कि नफरत उन्हें छोड़ देगी, क्योंकि उन्होंने अपनी भारतीय पहचान से दूरी बना ली है. जैसे नस्लवाद इसी तरह काम करता हो. जैसे कट्टरता पासपोर्ट, लहज़े या गढ़ी हुई पहचान देखकर रुक जाती हो.
पसंद हो या न हो, कई लोगों के लिए यह सांस्कृतिक और सभ्यतागत टकराव का दौर है. जो यह सोचते थे कि “घुले-मिले, सही, आदर्श लोग” बख्श दिए जाएंगे, वे भोले हैं. नस्लवाद और विदेशियों से नफरत ऐसे काम नहीं करते और अपनी जड़ों से दूरी बनाना कोई सुरक्षा नहीं देता. भारतीय मूल के प्रवासी—चाहे उनकी सफलता, शिक्षा, कानूनी स्थिति, ईमानदारी या “घुलने-मिलने” का स्तर कुछ भी हो—जैसे-जैसे पूर्वाग्रह बढ़ेगा, वैसे-वैसे ज्यादा निशाने पर आते जाएंगे.
एक पुरानी कहावत है: “भालू से बचने के लिए कितनी तेज़ दौड़ना होता है? आपको भालू से तेज़ नहीं दौड़ना, बस अपने दोस्त से तेज़ दौड़ना होता है.” लेकिन सच्चाई यह है कि नस्लवाद का भालू कुछ समय तक ही एक समूह को खाता है. आखिरकार, हर किसी की बारी आती है. हमें आपस में यह बहस करने के बजाय कि कौन ‘काबिल’ है और कौन नहीं, एक साथ मुड़कर उस नफरत भरी विचारधारा को चुनौती देनी होगी, जो इसके पीछे काम कर रही है.
(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नाम से एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका एक्स हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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