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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमत75 साल के भारत की कहानी कच्ची-पक्की रही मगर 25 साल में वह चाहे तो अपनी सदी बना सकता है

75 साल के भारत की कहानी कच्ची-पक्की रही मगर 25 साल में वह चाहे तो अपनी सदी बना सकता है

भारत अगर अगले 25 साल में अपनी संस्थागत एवं नीतिगत विफलताओं को दुरुस्त करे, असमानताओं  और विषमताओं को कम करे तो वह सदी बेशक भारत के नाम हो सकती है.

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एक आज़ाद देश के रूप में भारत के 75 साल के रिकॉर्ड का आकलन हम कैसे करें? सबसे स्पष्ट बात तो यह है कि उसने आजादी से पहले के 90 साल के औपनिवेशिक शासन और उससे भी पहले 100 साल के औपनिवेशिक शोषण की गिरफ्त से एकदम नाटकीय दिशा परिवर्तन किया. करीब दो सदी तक तेज पतन और फिर ठहराव, जबकि (अगर एक संकेतक का हवाला दें तो) 1947 में भारतीयों का औसत जीवन-काल मात्र 32 वर्ष था, के बाद भारत अपनी आजादी से उभरी गतिशीलता और लक्ष्य को लेकर संकल्प के बूते उभरकर अपनी सामाजिक एवं आर्थिक प्रगति में जुट गया.

सेलिग हैरीसन जैसे पश्चिमी टीकाकारों ने भविष्यवाणी कर दी थी कि भारत में भी पाकिस्तान की तरह फौजी हुकूमत आ जाएगी या वह टूट जाएगा; अपने साम्राज्यवादी-नस्लवादी पूर्वाग्रहों से अंधे हो चुके विंस्टन चर्चिल ने तो यहां तक कह दिया था कि ‘भारत भूमध्य रेखा से ज्यादा एकजुट देश नहीं है.’ लेकिन भारत इन गंभीर चेतावनियों को झूठा साबित करते हुए एकजुट बना रहा और उन गिनती की राज्य-व्यवस्थाओं में शुमार है जो औपनिवेशिक गुलामी से आजाद होने के बाद लोकतांत्रिक बनी हुई हैं. ये अपने आप में उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं.

आर्थिक मोर्चे पर शुरू में नया सवेरा लाने की उम्मीदें जगाने के बाद उसने चिंताजनक रूप से कमजोर प्रदर्शन किया लेकिन पिछले तीन दशकों में उसने खुद को बेहतर प्रदर्शन करने वाली अर्थव्यवस्थाओं में शामिल करके काफी सुधार दर्ज किया. अब वह इस स्थिति में है कि निकट भविष्य के लिए सबसे तेज वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था बन जाए.

इस साल वह दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी. एक दशक पहले वह ‘टॉप टेन’ में भी नहीं गिनी जाती थी.  अंतरराष्ट्रीय रूप से, भारत ‘हाई टेबल’ पर अपनी जायज जगह बनाने के सिवा पूरी तरह यथास्थितिवादी रहा है. यह देश दुनिया के नक्शे में निरापद देश बना हुआ है. यह स्थिर है, इसकी नीतियां स्पष्ट हैं, और यह एक जिम्मेदार परमाणु शक्ति है. दो पड़ोसी देशों के साथ अनसुलझी समस्याओं के बावजूद दुनिया के सभी महत्वपूर्ण देशों के साथ इसके संबंध सकारात्मक हैं. यह अपनी जमीन वापस लेने के मंसूबे नहीं रखता और प्रायः समस्या न बनकर समाधान का हिस्सा बनता है, जैसे जलवायु परिवर्तन के मामले में.

वैश्विक आर्थिक वृद्धि में योगदान देने वाला यह तीसरा सबसे बड़ा देश है.  लेकिन इसका रेकॉर्ड कमजोर रहा है. 75 साल बीत जाने और विकासशील अर्थव्यवस्था के संसाधनों के बावजूद भारत तीन प्रमुख मोर्चों पर विफल रहा है- मैट्रिक के स्तर तक सबको स्कूली शिक्षा देने, बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा के जरिए सबको स्वास्थ्य सेवा देने, और रोजगार की तलाश करने वालों को रोजगार देने के मोर्चों पर. थोरो की बात लें तो ‘अधिकतर भारतीय खामोश हताशा का जीवन जीते हैं.’


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इन प्रमुख विफलताओं में दो और जोड़ी जा सकती हैं- स्वच्छ हवा और पानी जैसी बुनियादी जरूरतें पूरी करने की विफलता, और कानून-व्यवस्था समेत न्याय की ऐसी व्यवस्था देने में विफलता जिसमें जेल में बंद कैदियों में दो तिहाई आबादी ‘विचाराधीन’ कैदियों की न हो. ये विफलताएं पर्यावरण को नुकसान, और बुरी कृषि प्रक्रियाओं के कारण पैदा हुए जल संकट के चलती और गंभीर रूप ले लेती हैं. इन विफलताओं का खामियाजा कमजोर वर्गों, दलितों और आदिवासियों, प्रवासी कामगारों, और अनौपचारिक क्षेत्र के दूसरे कामगारों यानी निर्बलों को भुगतना पड़ता है.
इसलिए भारत बहुत ही विषमतापूर्ण और अन्यायपूर्ण समाज बन गया है. इन विफलताओं का सबको एहसास है लेकिन इन पर फौरन ध्यान कार्रवाई नहीं की जाती. इसकी क्या वजह है इसका न तो पूरा विश्लेषण किया जाता है और न समझने की कोशिश की जाती है. मध्यवर्ग के फैलते दायरे पर जो ध्यान दिया जाता है वह कई तरह से एक भटकाव ही है, खासकर इसलिए कि मध्यवर्ग वास्तव में मध्य में नहीं बल्कि एक चौथाई आबादी वाले उच्च वर्ग का हिस्सा है, और कुछ लिहाज से तो शीर्ष वर्ग के छोटे से हिस्से में भी शामिल है. कई उभरते क्षेत्रों में जो सफलता हासिल हुई है वह मूलतः ऊपरी तबके की सफलताएं हैं, लेकिन इस कारण उन्हें कमतर नहीं आंका जा सकता.
इस बीच, जो सार्वजनिक संस्थाएं कार्यपालिका पर लगाम कस के अमहिमामंडित लोकतंत्र (समय-समय पर चुनावों से बनी लोकप्रिय सरकार वाले देश) को एक उदार गणतंत्र का स्वरूप प्रदान करती हैं उनका वर्षों से क्षरण हो रहा है. वे अंदर और बाहर से खोखली हो रही हैं. विधायिकाएं शायद ही काम करती हैं, अदालतों के बारे में अनिश्चितता रहती है, सहभागी स्थानीय निकाय वित्तीय रूप से लड़खड़ा रहे हैं. सरकार और बाजार के संबंधों में तो खटास है ही, सरकार और व्यक्ति के बीच के संबंध चिंता के ज्यादा बड़े कारण हैं.
भारत अगर अपनी संस्थागत और नीतिगत विफलताओं को दूर करता है और अपनी असमानताओं और विषमताओं को कम करता है तब अगले 25 साल में वह एक प्रशंसनीय राष्ट्र के रूप में उभर सकता है. और तब वह सचमुच भारत की सदी मानी जाएगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(बिजनेस स्टैंडर्ड के विशेष व्यवस्था से)



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