भारत की खाद्य सुरक्षा में मिनिमम सपोर्ट प्राइस या न्यूनतम समर्थन मूल्य जिसे संक्षेप में एमएसपी कहा जाता है, पर होने वाली सरकारी खरीद की बड़ी भूमिका रही है. इसने लाखों किसानों को आमदनी की गारंटी दी है और ऐसे दौर पर जब भारत में पर्याप्त अनाज नहीं था और भुखमरी की हालत थी, तब करोड़ों लोगों का पेट भरा है.
केंद्र सरकार कृषि लागत और मूल्य आयोग की सिफारिश पर 23 कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है, जिस पर सिद्धांत रूप से सरकार उत्पादकों से खरीददारी करती है. कीमत के निर्धारण में विभिन्न मंत्रालयों और राज्य सरकारों की राय ली जाती है और ये देखा जाता है कि फसल की लागत कितनी है, लोकल और ग्लोबल मार्केट में कीमत और स्टॉक की स्थिति क्या है और जो कीमत निर्धारित की जाएगी, उसका अर्थव्यवस्था पर असर क्या होगा. अभी मोटे तौर पर इसका फॉर्मूला लागत में 50 प्रतिशत मुनाफा जोड़कर बनाया जाता है. हालांकि लागत का निर्धारण कैसे हो, इसे लेकर अलग अलग राय है.
हालांकि, एमएसपी पर खरीद का सिद्धांत 23 फसलों के लिए है, लेकिन व्यवहार में ज्यादातर खरीद गेहूं और धान की ही होती है. एमएसपी पर अनाज और अन्य पैदावार बेचने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ी है और आखिरी आंकड़ों के मुताबिक 2022 में ऐसे किसानों की संख्या 1 करोड़ 93 लाख थी. कुल खरीद का सालाना आंकड़ा अब 1,340 लाख टन को पार कर गया है और 2021-22 में सरकार को इस खरीद पर 2.75 लाख करोड़ रुपए खर्च करने पड़े थे. ये कुल बजट का अच्छा-खासा हिस्सा है.
एमएसपी भारतीय कृषि का एक महत्वपूर्ण पहलू है. लेकिन इस आलेख में मैं ये तर्क प्रस्तुत कर रहा हूं कि एमएसपी भुखमरी के दौर की नीति थी और इसने अपना मकसद पूरा कर लिया है. अब वक्त आ गया है कि एमएसपी की व्यवस्था को धीरे-धीरे खत्म कर दिया जाए. इसकी 9 वजहें हैं.
यह भी पढ़ेंः राममंदिर प्राण प्रतिष्ठा में 15 में 10 जजमान एससी, एसटी, ओबीसी होना सावरकरवादी हिंदुत्व है
1. खेती और पैदावार का बदलता स्वरूप: भारत में खेती काफी बदल गई है. 1960 के दशक तक भारत में अनाज की कमी रहती थी और हर समय भुखमरी और अकाल का खतरा रहता था. इस दौर में भारत विदेशी अनाज पर निर्भर था. खासकर अमेरिका से सहायता के तौर पर आए पीएल 480 गेहूं से देश की जरूरतें पूरी होती थी. लेकिन अब भारत में खपत से ज्यादा अनाज का उत्पादन होता है. खाद्य और उपभोक्ता मामलों के मंत्रालय ने संसद में पूछे गए सवाल के जवाब में बताया है कि 1 जुलाई 2023 को सेंट्रल पूल में 253 लाख टन चावल और 301 लाख टन गेहूं है. जबकि दरअसल 135 लाख टन चावल और 275 लाख टन गेहूं का स्टॉक रखना ही पर्याप्त है यानी नॉर्म इतने का ही है. सरकार ने हाल ही में जानकारी दी है कि पिछले साल यानी 2023 में 600 लाख टन चावल की सरकारी खरीद हुई, जबकि खाद्य सुरक्षा कानून के तहत देश की जरूरत सिर्फ 350 लाख टन चावल की ही है. एमएसपी पर अनाज खरीदने की नीति भुखमरी के दौर में उपयोगी साबित हुई थी. पर बदली हुई परिस्थिति में उसकी उपयोगिता खत्म हो चुकी है.
2. भंडारण क्षमता का अभाव: एमएसपी रेट पर बड़ी मात्रा में अनाज की खरीदारी के साथ भंडारण की समस्या भी जुड़ी हुई है. सरकार ढेर सारा अनाज खरीद तो लेती है, लेकिन फूड कार्पोरेशन के पास पूरे अनाज को रखने के लिए गोदाम नहीं है. इसलिए अक्सर देखा जाता है कि अनाज गोदामों के बाहर खुले में रखा होता है और काफी अनाज इस वजह से खराब हो जाता है. एमएसपी को तो क्रमिक तरीके से खत्म किया जाना चाहिए, पर भंडारण के लिए तो तत्काल ही कुछ ठोस कदम उठाए जाने चाहिए.
3. सरकारी खरीद में क्षेत्रीय असमानता और भेदभाव: एमएसपी पर सरकारी खरीद का लाभ हर क्षेत्र के किसानों को नहीं मिल पाता. खासकर पंजाब और हरियाणा के किसान इसके बड़े लाभार्थी हैं, जबकि अब अनाज तो ज्यादातर राज्यों में सरप्लस हो रहा है. ये मुख्य रूप से इसलिए है क्योंकि हरित क्रांति की शुरुआत से ही ये दो राज्य ढेर सारा सरप्लस अनाज उगा रहे थे और इसलिए यहां एमएसपी पर सरकारी खरीद की परंपरा रही है. ये भी एक समस्या है कि पंजाब और हरियाणा में चावल की खपत कम है, और यहां की स्थितियां भी धान उत्पादन के लिए उपयुक्त नहीं हैं. खासकर इसलिए क्योंकि धान की फसल में पानी काफी लगता है. पर सस्ती या मुफ्त बिजली और भारत में जमीन के नीचे से असीमित पानी मुफ्त निकालने की सुविधा के कारण यहां के किसान धान उगाने में फायदा देखते हैं.
4. छोटे किसानों को लाभ नहीं: एमएसपी पर सरकारी खरीद का लाभ वही किसान उठा सकता है, जिसके पास अपने परिवार की जरूरत से ज्यादा अनाज है. बाकी लोग इससे वैसे भी बाहर हैं. जैसा कि मैंने पहले भी लिखा है कि भारत के सिर्फ 1.93 करोड़ किसानों से ही सरकार, एमएसपी के तहत खरीदारी कर पाती है. यानी ज्यादातर किसानों के लिए इस नीति का कोई लाभ नहीं है और उनके जीवन में एमएसपी से कोई बदलाव नहीं आ रहा है.
5. खेत मजदूरों के जीवन में कोई सुधार नहीं: खेत मजदूरों के लिए भी एमएसपी पर अनाजों की सरकारी खरीद की व्यवस्था का कोई मतलब नहीं है. पंजाब और हरियाणा के जिन किसानों के जीवन में एमएसपी के कारण अमीरी आई, उन्होंने इसका कुछ लाभ पंजाब और हरियाणा के खेत मजदूरों को पहुंचाने की जगह, बिहार से सस्ता मजदूर ले आना बेहतर समझा. छिटपुट ऐसी खबरें भी आती हैं कि किस तरह मजदूरों को इन इलाकों में बंधुआ बनाकर रखा जाता है. मजदूरों के जीवन में बदलाव के लिए एमएसपी से परे सोचे जाने की जरूरत है.
6. पर्यावरण की चिंता: एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी के कारण पंजाब और हरियाणा में धान की फसल ली जा रही है, जिसका बुरा असर पर्यावरण संतुलन पर पड़ रहा है. जमीन में पानी का स्तर लगातार नीचे जा रहा है और इसे लेकर पर्यावरणविद लगातार चिंता जता रहे हैं. गेहूं-धान के फसल चक्र के लिए समय पर खेत को तैयार करना भी जरूरी होता है. इसलिए किसान पराली या पुआल जलाते हैं जिसके कारण दिल्ली से लेकर पंजाब और आसपास के इलाकों में सर्दियों में धुआं-धुआं हो जाता है और सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है.
7. दबाव में नीतियां बनाने और जारी रखने के खतरे: एमएसपी को लेकर जो भी नीतियां बनाई जा रही हैं, उनके पीछे वोट पाने का लालच और किसानों का दबाव दोनों पहलू काम करते हैं, जबकि राष्ट्रीय महत्व के इस विषय पर नीति निर्धारण बेहद संतुलित और दबाव मुक्त तरीके से होना चाहिए. चूंकि पंजाब और हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश दिल्ली के पास हैं, इसलिए यहां के किसान डेढ़-दो हजार ट्रैक्टर लेकर कभी भी दिल्ली आ सकते हैं. ये बात नीति निर्माण की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करनी चाहिए. पर वास्तविकता में ये हो नहीं पाता. दिल्ली का चक्का जाम न हो, इसके लिए देश की नीतियां बनाई और चलाई नहीं जा सकतीं. ये अराजकता का व्याकरण है, जिसकी ओर बाबा साहब डॉक्टर बीआर आंबेडकर ने संविधान सभा में ध्यान दिलाया था. ऐसे मामले लोकतांत्रिक तरीके से हल होने चाहिए, दबाव से नहीं.
8. खेती में विविधता की जरूरत: किसानों को एमएसपी फसलों के चक्र से बाहर लाने की भी जरूरत है. सरकारी खरीद पर निर्भरता ने उनकी रचनात्मक क्षमता को सीमित कर दिया है और वे विविधता लाने के लिए कम प्रयत्नशील होते हैं. मिसाल के तौर पर, ऐसी फसलें हो सकती है, जिनका उत्पादन एमएसपी फसलों से ज्यादा लाभकारी हो. साथ ही कुछ उत्पादों की, खासकर तिलहन और दलहन की भारत में कमी रहती है. जरूरत इस बात की है कि किसान इनके उत्पादन पर भी जोर लगाएं. पंजाब में इस दिशा में कुछ सकारात्मक बदलाव देखा गया है.
9. खेती को सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त करना: खेती या कोई भी उद्यम अपनी वास्तविक संभावना के साथ तभी तरक्की करता है, जब वह नियंत्रण और हस्तक्षेप से मुक्त हो. बाजार अक्सर निष्ठुर होता है पर विकास की ज्यादा संभावना बाजार व्यवस्था में ही है. कीमतों का निर्धारण मांग और जरूरत के बीच अंतर्क्रिया से होना बेहतर होता है. भारत में खेती के आधुनिकीकरण और बाजार से उसे जोड़े जाने की सख्त जरूरत है.
सरकार जब कृषि सुधार के लिए दो साल पहले तीन कृषि कानून लेकर आई थी, तो उसके सकारात्मक पहलुओं के बारे में देश को बताने में नाकाम रही थी. साथ ही आंदोलन का शोर भी बहुत ज्यादा था. इस बारे में राष्ट्र को गंभीरता से और नए सिरे से सोचना चाहिए.
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
(दिलीप मंडल इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका के पूर्व प्रबंध संपादक हैं, और उन्होंने मीडिया और समाजशास्त्र पर किताबें लिखी हैं. उनका एक्स हैंडल @Profdilipmandal है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
यह भी पढ़ेंः कर्पूरी ठाकुर और आडवाणी को एक साथ भारत रत्न देना यानी मंदिर और मंडल की कदमताल