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Friday, 15 November, 2024
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INDIA बनाम BJP या NDA — भारत के अस्तित्व को तवज्जो देने में अभी भी देर नहीं हुई है

विपक्षी दल ने जब अपने गठबंधन का नाम ‘INDIA’ रख लिया है, तो बीजेपी के नेता भारत को सामने ला रहे हैं. यह खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचे जैसा है, क्योंकि भाजपा के गठबंधन ‘NDA’ में भारत है ही नहीं.

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विपक्षी दलों के ‘इंडिया’ गठबंधन के सामने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता ‘भारत’ रखने की जुगत कर रहे हैं, लेकिन अब तो चिड़िया खेत चुग चुकी है, क्योंकि उन्होंने कभी भारत को स्थापित करने की कोशिश ही नहीं की, बल्कि, इंडिया शब्द को तवज्जो दी.

बीजेपी के तमाम नारों, जैसे ‘मेक इन इंडिया’, ‘स्टैंड अप इंडिया’, ‘स्टार्ट अप इंडिया’, आधिकारिक योजनाओं, जैसे ‘एक्सेसिबल इंडिया’, ‘डिजिटल इंडिया’, ‘फर्स्ट डेवलप इंडिया’, आधिकारिक नामकरणों, जैसे योजना आयोग के नए नाम ‘नीति आयोग’ में कोयला ट्रांसपेरेंसी संबंधित नाम ‘शक्ति’ आदि. यहां तक कि थिंक-टैंक जैसे अपने संस्थान बनाने में भी संघ-परिवार ने ‘इंडिया इमेज फाउंडेशन’, ‘इंडिया फर्स्ट फाउंडेशन’, ‘इंडिया पॉलिसी फाउंडेशन’ जैसे नाम रखे. भारत शब्द का उपयोग ही नहीं किया, जो ज्यादा आसान होता.

लेकिन, अब विपक्षी दल ने जब अपने गठबंधन का नाम ‘INDIA’ रख लिया है, तो बीजेपी के नेता भारत को सामने रख रहे हैं. यह खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे जैसा है, क्योंकि भाजपा के गठबंधन ‘NDA’ में भारत है ही नहीं.

विपक्ष ने केवल एक नाम से भाजपा को बौखला दिया है. कम से कम उन्हें शब्दों की शक्ति पहचाननी चाहिए थी, अगर समय से बीजेपी ने ये समझ लिया होता, तो संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद-1 को संशोधित करने के लिए सहमति बनाती. उन्होंने अनेक सड़कों, संस्थाओं और‌ रेलवे स्टेशनों के नाम भी तो बदले ही हैं. ‘रेस कोर्स रोड’, और ‘मुगलसराय’ को ‘लोक कल्याण मार्ग’ और ‘दीनदयाल उपाध्याय मार्ग’ किया था. तो क्या केवल अपने नेताओं का प्रचार करना ही उनकी सबसे बड़ी चिंता है? वरना सबसे पहले देश का नाम सुधारा जाना चाहिए था.


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‘हमारी सरकार एक स्वाधीन सरकार नहीं है’

ऐसा नहीं कि यह सब पहली बार कहा जा रहा है. हिंदी कवि अज्ञेय ने दशकों पहले इसे उठाया था. उन्होंने इसे स्वाधीनता की मानसिकता बनाम अचेत मानसिकता का मुद्दा कहा था. अज्ञेय के शब्दों में इसकी ‘‘जड़ में यह बात है कि हमारी सरकार एक ‘स्वाधीन’ सरकार नहीं है, यह जो सरकारी तंत्र है केवल ‘उत्तराधिकारी’ तंत्र है: इंडिया दैट इज भारत का शासन होने में भारत को तो उस की व्याख्या का अंग मान लिया है (दैट इज, भारत), और ‘इंडिया’ की सारी परंपराओं का निर्वाह करने को अपना दायित्व मान लिया है – यानी औपनिवेशिक बल्कि साम्राज्यीय परंपराओं का निर्वाह करने का! ऐसे में स्वाधीनता की परंपरा कैसे पनप सकती है…’’. यह उन्होंने लगभग चार दशक पहले लिखा था.

अगर लग रहा है कि यह किसी संकीर्ण, हिंदी वाले हिंदू के विचार हैं, तो पक्के अंग्रेज़ीदां विद्वान जो अल्पसंख्यक समुदाय के थे, उनके विचार भी चिंतनीय हैं. ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ के प्रसिद्ध संपादक गिरिलाल जैन ने स्वतंत्र भारत में ‘इंडिया’ शब्द को अनेक बुराइयों की जड़ बताया था. उनके अनुसार, हमारे नेताओं से जो बड़ी भूल हुई उनमें से एक यह कि देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया गया.

गिरिलाल के शब्दों में स्वतंत्र भारत में ‘‘इस एक शब्द ने भारी तबाही की’’. इस ने इंडियन और हिंदू को अलग कर दिया और सबसे बुरी बात यह हुई कि इसने ‘इंडियन’ को हिंदू से बड़ा बना दिया! यदि देश का नाम भारत या हिंदुस्तान रहता तो यहां मुसलमान खुद को भारतीय या हिंदुस्तानी मुसलमान कहते. इन्हें अरब में अभी भी ‘हिन्दवी’ या ‘हिन्दू’ ही कहा जाता है, जो एक ही बात है. यूरोपीय भी भारतवासियों को ‘हिंदू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं. यही हमारी सही पहचान है, जिससे मुसलमान भी जुड़े थे और जुड़े रहते, यदि देश का नाम पहले जैसा कर लिया गया होता.

वस्तुतः गोवा से कांग्रेस के सांसद शांताराम नाईक ने इस संबंध में राज्यसभा में दो बार (अंतिम बार 2012 में) विधेयक प्रस्तुत किया था कि संविधान की प्रस्तावना और अनुच्छेद 1 में ‘इंडिया’ शब्द हटाकर भारत कर लिया जाए. भारत अधिक व्यापक और अर्थवान शब्द है, जबकि ‘इंडिया’ मात्र एक भौगोलिक उक्ति. नाईक बहुत बड़ा दोष दूर करने के लिए आगे बढ़े थे. अगर भाजपा को संस्कृति की समझ होती, तो वो इस सुंदर अवसर को गंवाती नहीं.

सच पूछिए, तो अभी भी मौका है. संविधान में में जहां ‘इंडिया, दैट इज भारत’ लिखा है, उसे केवल ‘भारत’ कर देना और ‘भारत, दैट इज इंडिया’ करने का संशोधन हो जाए तो विश्व में भी हमारा सम्मान बढ़ेगा. अगर शांताराम नाईक वाला विधेयक ही भाजपा अपनी ओर से प्रस्तुत कर संसद से पास कराए, तो विपक्ष के ‘इंडिया’ की चमक फीकी पड़ सकती है. एक तो यह मूलतः एक दिवंगत कांग्रेसी नेता का प्रस्ताव था, दूसरा, कोई दल इसलिए भी विरोध नहीं करेगा कि तब उस पर ‘भारत’-विरोधी होने का आरोप लग सकता है. तीसरा, भाजपा सत्ताधारियों के पास एक सार्थक काम कर जाने का संतोष रहेगा. वरना, उनके असंख्य काम दिखावा, नाटक और सारहीन रहे हैं. उन्होंने अपने मामूली नेताओं के नाम तो सैकड़ों सार्वजनिक स्थानों में चिपका दिए, पर सबसे महत्वपूर्ण, देश का नाम तो विदेशियों वाला रहने दिया.

जबकि देश का नाम अपना कर लेना कोई दिखावटी बात नहीं. अज्ञेय और गिरिलाल जैन के विचार चिंतनीय हैं. यह सोचना फिज़ूल है कि संशोधन पास नहीं होगा. वो पारित होगा, क्योंकि भारत के अधिकांश दल उतने ही देशभक्त और संस्कृति-प्रेमी हैं. अगर पारित नहीं भी होता, तो प्रयास सराहनीय होगा. आखिर, भाजपा महानुभावों ने एन.जे.ए.सी (2014) बनाया ही, चाहे बाद में सुप्रीम कोर्ट ने उसे खारिज कर दिया. उसी तरह इंडिया को बदलकर भारत करने की कोशिश तो होनी ही चाहिए.


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ब्रिटिश राज नाम में अब भी कायम

कैसी विडंबना है कि स्वतंत्रता का अमृतकाल बोलते हुए भी हम अपने देश का विजातीय नाम ढोए जा रहे हैं! अपने नाम की बात का महत्व सारी दुनिया समझती है. कम्युनिस्ट तानाशाही के पतन के बाद रूस में ‘लेनिनग्राद’ को दोबारा उसके पुराने नाम ‘सेंट पीटर्सबर्ग’, ‘स्टालिनग्राद’ को ‘वोल्गोग्राद’ किया गया. पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले. पोलैंड बदलकर पोलस्का हो गया. ‘सीलोन’ ने अपना नाम बदलकर श्रीलंका और बर्मा ने ‘म्यांमार’ नाम कर लिया. महाराष्ट्र के लोगों ने मुंबादेवी से जुड़ी भूमि को पुनः संस्कारित कर ‘मुंबई’ को अपना लिया. ‘त्रिवेंद्रम’ को तिरुवनंतपुरम करके सार्थक किया. ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं. मूल सिद्धांत यह है कि जो नाम जनता को दुखी या भ्रमित करते हैं, उन्हें बदला जाना चाहिए. दुर्भाग्य से भारत में अभी तक ऐसा नेतृत्व नहीं उभरा, जिसे इसकी सच्ची समझ हो. अज्ञेय ने इसी पर उंगली रखी थी.

जिन नेताओं ने ‘गुड़गांव’ को गुरुग्राम करना ज़रूरी समझा, उन्हें पहले इंडिया शब्द बदलना चाहिए था. वो भी जब कि भारत या भारतवर्ष शब्द देश की सभी भाषाओं में प्रयोग में रहा है. अतः इसे पुनर्स्थापित करने में किसी क्षेत्र को कठिनाई नहीं होगी.

‘इंडिया’ भारत पर ब्रिटेन के औपनिवेशिक शासन की सीधी याद दिलाता है. संभवत किसी आधिकारिक नाम में ‘इंडिया’ शब्द का पहला प्रयोग, चार सौ साल पहले ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में ही हुआ था. जब वो भारत आई तो यहां लोग इसे भारतवर्ष या हिंदुस्तान कहते थे. इसलिए, कंपनी और ब्रिटिश राज के खात्मे के बाद देश का नाम पुनर्स्थापित होना उपयुक्त होता.

हैरानी है कि भारत जैसी महान सांस्कृतिक परंपरा के लोगों ने इसे उपेक्षित कर रखा है. हम मानसिक गुलामी से अभी तक मुक्त नहीं हो पाए हैं. जिस पर अपने को ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवादी’ कहने वाले संघ-परिवार का बौद्धिक प्रशिक्षण इतना दयनीय है कि मोटी बातें भी उन की कल्पना से परे रहती है. वे कांग्रेसियों से उलझते हैं और इस्लामियों को गले लगाते हैं. मूढ़ता का इससे प्रत्यक्ष उदाहरण शायद ही हो सकता है.

(लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं)

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

 


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