भारतीय सेना द्वारा 31 अगस्त की रात लद्दाख में पैंगोंग त्सो के दक्षिण में प्रमुख पहाड़ी चोटियों पर कब्जा करने का कदम एक सकारात्मक संकेत है. यह वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर चल रहे गतिरोध में चीन के खिलाफ आक्रामक कार्रवाई करने की भारत की तत्परता को इंगित करता है. लेकिन सेना के जवानों सहित कुछेक लोग ही इस महत्वपूर्ण सैनिक अभियान में शामिल बल– स्पेशल फ्रंटियर फोर्स या एसएफएफ के बारे में जानते हैं.
14 नवंबर 1962 को स्थापित एसएफएफ या एस्टेबलिशमेंट 22 (टू-टू) सेना का सबसे गुप्त छापामार बल है. इनके जवानों को पहाड़ी वाले क्षेत्रों के लिए पैराट्रूपर और कमांडो के रूप में प्रशिक्षित किया गया है जो घात लगाकर हमले करने, तबाही मचाने, खुद को सुरक्षित रखने और विध्वंस करने की कलाओं में पारंगत हैं. उनकी मौजूदगी और क्रियाकलापों के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है. वे रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के अधीन काम करते हैं और कैबिनेट सचिवालय के सुरक्षा महानिदेशालय के जरिए सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) को रिपोर्ट करते हैं.
भारत सरकार इस बल की मौजूदगी की बात से इनकार करती है, जिसमें कथित रूप से दलाई लामा के साथ पलायन कर भारत आए निर्वासित तिब्बती समुदाय के युवाओं को भर्ती किया जाता है.
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अल्पज्ञात बल
एसएफएफ के गठन का आरंभिक लक्ष्य युद्ध की स्थिति में चीनी सैन्य पंक्ति के पीछे गुप्त कार्रवाइयों को अंजाम देना था. कथित रूप से इनका मुख्य काम था छापामारों के रूप में घुसपैठ कर चीनी संचार व्यवस्थता को नष्ट करना, सड़कों, हवाई पट्टियों और रडार केंद्रों को नुकसान पहुंचाना, चीनियों को पीछे की रक्षा पंक्ति में भारी संख्या में सैनिकों की तैनाती के लिए बाध्य करना तथा तिब्बत में उग्रवाद और विद्रोह को हवा देना, जो कि सीमा पर भारतीय सेना के लिए चीनियों के मुकाबले में मददगार हो सकेगा.
एसएफएफ ऑपरेशन ईगल (1971 की लड़ाई में चटगांव पहाड़ियों पर नियंत्रण), ऑपरेशन ब्लू स्टार (1984 में स्वर्ण मंदिर को मुक्त कराना), ऑपरेशन मेघदूत (1984 में सियाचिन ग्लेशियर पर नियंत्रण) और ऑपरेशन विजय (1999 में करगिल संघर्ष) में असाधारण कौशल दिखा चुका है. शुरू में एक मुक्त तिब्बत की लड़ाई के लिए एकजुट हुए गुप्त जवान, अब दूसरे की लड़ाई लड़ रहे हैं– किसी लालच में नहीं बल्कि भारत के प्रति कृतज्ञता के साथ.
एसएफएफ को लद्दाख के मिशन में झोंकना और उनकी मौजूदगी की स्वीकारोक्ति तिब्बतियों की भागीदारी के सहारे चीन को चुनौती देने की दिशा में पहला कदम मालूम पड़ता है. यदि पूर्वी लद्दाख में चीन भारत से टकराता है तो उसे तिब्बती भूमि होकर ऐसा करना पड़ेगा. क्या ये भारत के पक्ष में लड़ने के लिए और अधिक संख्या में तिब्बतियों को तैयार करने का अवसर साबित होगा, जो कि आखिरकार स्वतंत्र तिब्बत हासिल करने के अपने उद्देश्य की दिशा में काम कर रहे होंगे? पूर्वी लद्दाख में एसएफएफ की कार्रवाई ने निश्चय ही बड़ी संख्या में तिब्बती क्षेत्र के युवाओं को प्रेरित किया होगा. हमें चीन के खिलाफ लड़ाई में इस बल का इस्तेमाल करने की ज़रूरत है.
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गलवान में मिले आत्मविश्वास को मज़बूत करना
आइए इस सिद्धांत को आसियान देशों पर लागू करके देखते हैं, खासकर वे देश जो कि चीन की विस्तारवादी नीति से पीड़ित हैं. चीन के मानचित्र पर गौर करें तो आप पाएंगे कि उसका ना सिर्फ भारत से बल्कि 17 अन्य देशों से सीमा विवाद है. मानचित्र से बिल्कुल साफ हो जाता है कि उसने लगभग उतनी ही अतिरिक्त भूमि पर कब्जा जमा रखा है जितनी की शुरू में उसके पास थी. मंगोलिया, लाओस, तजाकिस्तान, कंबोडिया, उत्तर कोरिया और वियतनाम जैसे देशों की भूमि पर अपने दावे के लिए चीन ‘ऐतिहासिक मिसाल’ की दलील देता है. जापान, भारत, नेपाल, फिलीपींस, रूस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया, भूटान, ताइवान, ब्रुनेई, इंडोनेशिया और मलेशिया जैसे देशों के मामले में चीन महज एकतरफा दावा करता है.
चीन के साथ इन 18 देशों के क्षेत्रीय विवादों पर विचार करने पर बीजिंग की विस्तारवादी नीति के विरोध में भारत के साथ हाथ मिलाने की उनकी तत्परता का मेरा दावा सही नज़र आएगा.
मेरे दुश्मन का दुश्मन मेरा दोस्त- एक प्राचीन कहावत है जिसका मतलब है कि दो पक्ष एक साझा दुश्मन के खिलाफ मिलकर काम कर सकते हैं या उन्हें ऐसा करना चाहिए. चीन पहले ही इन सभी राष्ट्रों से अनेकों वर्ग किलोमीटर भूमि हड़प चुका है और अभी कहीं अधिक पर एकतरफा दावा कर रहा है. इसलिए ये सारे देश इस तथ्य से अच्छी तरह अवगत हैं कि लद्दाख में भारत के साथ मौजूदा गतिरोध को भविष्य में उनकी ज़मीन पर भी दोहराया जा सकता है.
गलवान की झड़पों से मिले आत्मविश्वास के बाद अब भारत को विस्तारवादी चीन के विरोध का नेतृत्व करना चाहिए. सबसे पहले हमें व्यापार, सांस्कृतिक आदान-प्रदान और परस्पर विश्वास बढ़ाने के उपायों के ज़रिए इन देशों के साथ मित्रता करने की ज़रूरत होगी. कुछ चीनी उत्पादों पर प्रतिबंध के कारण व्यापार के संदर्भ में हमने जो खोया है, उसकी भरपाई इन देशों से हो सकती है.
द्विपक्षीय व्यापार के लिए मुख्य तौर पर जापान, दक्षिण कोरिया, वियतनाम, सिंगापुर, ताइवान और फिलीपींस पर फोकस किया जा सकता है. एक बार ये संबंध स्थापित हो जाने के बाद सैन्य आदान-प्रदान के क्षेत्र में आगे बढ़ना आसान हो जाएगा. यदि भारत और ये 17 देश मिलकर चीन की विस्तारवादी नीति का विरोध करने का निर्णय लेते हैं तो इनके प्रतिरोध को बेअसर करने की कोशिश में बीजिंग की सैन्य शक्ति बुरी तरह से बंट जाएगी.
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मित्रता की भारत की राह
तिब्बत को समर्थन इस सहयोग का प्रस्थान बिंदु बन सकता है. आसियान समूह के माध्यम से अनेक राष्ट्रों को एक साझा मंच पर लाया जा सकता है. एशिया में भारत की अहम भूमिका और उससे भी महत्वपूर्ण शासन की लोकतांत्रिक व्यवस्था में भारत की आस्था के कारण, इनमें से अधिकांश देश इस संघर्ष में भारत के नेतृत्व को स्वीकार कर लेंगे. इसके अलावा, भारत ने चीन के साथ मौजूदा संकट को जिस तरह संभाला है, वह इन देशों को उनकी क्षमताओं और जरूरत पड़ने पर चीन को चुनौती देने के सामर्थ्य के बारे में आत्मविश्वास दिला सकेगा.
चीन की विस्तारवादी नीतियों के खिलाफ संघर्ष में भरोसेमंद सहयोगियों की तलाश के तहत भारत ने अपने समुद्री मार्ग की रक्षा के लिए अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ– क्वाड के रूप में ज्ञात समझौते किए हैं. अमेरिका तो चीन के खिलाफ संघर्ष की स्थिति में भारत की मदद करने का वादा भी कर रहा है. लेकिन अमेरिका और चीन के बीच व्यापार संबंधों को देखते हुए क्या भारत अमेरिका पर भरोसा कर सकता है? चीन हमारा पड़ोसी है और ज़रूरत के वक्त पश्चिमी देशों से मदद की उम्मीद रखना अवास्तविक लगता है. साथ ही, रूस से हमारे दीर्घकालिक संबंधों और सैन्य साजोसामान को देखते हुए अमेरिका पर निर्भरता बढ़ाना कहां तक उचित होगा?
भारत में संघर्ष की इच्छाशक्ति और साहस हो सकता है लेकिन क्या एक लंबे संघर्ष के लिए हमारे पास पर्याप्त वित्तीय आधार है? इन परिस्थितियों के मद्देनज़र अपने एशियाई मित्र देशों से सहयोग लेना सही तरीका है. नरेंद्र मोदी सरकार इस संभावना (एशियाई देशों का गठजोड़) पर विचार कर रही है या नहीं ये लाख टके का सवाल है लेकिन पूर्वी लद्दाख में एसएफएफ का उपयोग निश्चय ही उसी दिशा में इशारा करता है. इसमें अन्य एशियाई देशों को भी शामिल करने को एक तार्किक कदम माना जाना चाहिए. हमारा एक साझा दुश्मन है, लेकिन क्या सिर्फ इतना भर से ही हम स्वत: ही परस्पर दोस्त हो जाते हैं? इसका उत्तर नकारात्मक हो सकता है लेकिन इस मुश्किल वक्त में चीन की पकड़ ढीली करने के साझा उद्देश्य के लिए दोस्ती का हाथ बढ़ाना बेहतर होगा.
(एयर वाइस मार्शल सूर्यकांत चाफेकर, एवीएसएम, शौर्य चक्र, 2017 में भारतीय वायु सेना से अनुरक्षण कमान के एसएएएसओ के रूप में सेवानिवृत हुए थे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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