वाटरलू की जंग के करीब 10 साल बाद ईटन कालेज में एक क्रिकेट मैच देखते हुए वेलिंगटन के ड्यूक ने टिप्पणी की थी कि ‘वाटरलू की जंग यहीं जीती गई थी.’ अधिकतर खेलों में वैसे ही नेतृत्व कौशल और चारित्रिक गुणों की जरूरत होती है जैसी फौजी जंगों में होती है. अनुभव भी यही बताते हैं कि खेल भी सेना के आंतरिक अंग रहे हैं. जनरल पैटन ने 1912 के ओलिंपिक में आधुनिक पेंटाथलन में अमेरिका की प्रतिनिधित्व किया था.
भारत में अधिकतर आधुनिक खेलों को ब्रिटिश सेना ने शुरू करवाया था और वे आज सेना की संस्कृति और उसमें नेतृत्व विकास के अनिवार्य अंग बने हुए हैं. नतीजतन, 1970 के दशक तक देश में अधिकतर प्रतियोगी खेलों में सेना का दबदबा रहा, लेकिन उसके बाद उसका वर्चस्व घटता गया.
अफसोस की बात है कि खेलों की अंतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धाओं में हमारा प्रदर्शन, जिसे राष्ट्रीय शक्ति की एक पहचान माना जाता है, अपेक्षा से बुरा रहा है. 2021 के ओलिंपिक में चीन ने 38 स्वर्ण पदक, 32 रजत पदक, और 18 कांस्य पदक जीते, जबकि हम केवल 1 स्वर्ण पदक, 2 रजत पदक और 4 कांस्य पदक ही जीत पाए. पाकिस्तान एक भी पदक नहीं जीत पाया, लेकिन यह हमारे लिए कोई सांत्वना की बात नहीं है.
यहां मैं यह पैरवी करना चाहता हूं कि भारतीय सेना अपने इस लुप्त गौरव को हासिल करे और भारत को खेल प्रतिस्पर्द्धाओं की पदक सूची में ऊंचा स्थान हासिल करने में मदद करे.
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गौरवशाली अतीत
सैनिकों में नेतृत्व और चारित्रिक गुणों के विकास के लिए खेलों को फौजी ट्रेनिंग के एक अंग के रूप में शामिल किया गया था. धीरे-धीरे इसने सेना की यूनिटों, रेजीमेंटों और टुकड़ियों के बीच जबर्दस्त प्रतियोगिता का रूप ले लिया. सेना के प्रत्येक अंग में अलग-अलग स्तरों पर प्रशिक्षण शाखाओं ने नीति निर्धारित की और तमाम प्रयासों में तालमेल स्थापित किया. सर्वोच्च स्तर पर ‘सर्विसेज स्पोर्ट्स कंट्रोल बोर्ड’ ने राष्ट्रीय स्तर पर इंटर-सर्विस प्रतियोगिताओं की भागीदारी का आयोजन शुरू किया.
तब लड़ाई तुलनात्मक रूप से सरल थी और नेतृत्व कौशल की वजह से लड़ाई में खिलाड़ी भी बेहद अच्छा प्रदर्शन करते थे. सारागढ़ी जंग के कारण मशहूर हुई हमारी ‘4 सिख यूनिट’ के लिए खेलों की प्रतिस्पर्द्धाएं जीवन-मरण का मामला हुआ करती थीं. इस यूनिट ने 1962, 1965, और 1971 (जिसका मैं चश्मदीद था) की लड़ाई में इसके ‘ग्लेडिएटर खिलाड़ियों’ द्वारा निचले स्तर पर दिए गए नेतृत्व के बूते असाधारण शौर्य का प्रदर्शन किया. इनमें से हरेक जंग में हमने अपनी खेल टीम के सर्वश्रेष्ठ-से-सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ियों को गंवाया मगर टीम को फिर से नये सिरे से खड़ा किया था.
इन खेल प्रतियोगिताओं को जितना महत्व दिया जाने लगा था उसके चलते यूनिट ने ‘ग्लेडिएटर’ को रखना शुरू किया. ये वो सैनिक होते थे जिन्हें फौजी ट्रेनिंग से छूट दी जाती थी ताकि वे केवल खेलों पर ध्यान दें. विपुल संसाधन, मजबूत संगठन और जबर्दस्त प्रतिस्पर्द्धी भावना के कारण स्तर ऊपर उठता गया और लगभग सभी राष्ट्रीय खेलों में सेना का दबदबा कायम हो गया.
तीनों सेनाओं, कई रेजीमेंट/कोर ने हॉकी, फुटबॉल, बास्केटबॉल, वॉलीबॉल की टीमें रखने लगीं, जो अधिकतर निजी टूर्नामेंटों को जीत लिया करती थीं. 1953 में, नेशनल डिफेंस अकादमी के युवा कैडेटों की फुटबॉल टीम डुरंड कप प्रतियोगिता की विजेता मोहन बागान टीम के बाद दूसरे नंबर पर रही थी. आर्मी-11, मद्रास रेजिमेंटल सेंटर और गोरखा ब्रिगेड इस कप को दो बार जीत चुकी थी.
उस समय सेना एक आकर्षक कैरिअर था, और प्रतिभाओं की खोज से अफसर तथा सैनिक के स्तर पर सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाएं मिल जाती थीं. वह सेनाओं के लिए स्वर्णयुग था जब उसने मेजर ध्यानचंद, कर्नल हरिपाल कौशिक, वीआरसी, कर्नल बलबीर सिंह, मानद कैप्टन शंकर लक्ष्मण, ब्रिगेडियर एच.एस. चिमिनी, नायब सूबेदार मिल्खा सिंह, मानद कैप्टन श्रीराम सिंह और पान सिंह तोमर सरीखे विश्वस्तरीय खिलाड़ी दिए. यह सूची बहुत लंबी है.
लेकिन, दुनिया अब ‘कैच देम यंग’ वाला ज्यादा वैज्ञानिक तरीका अपनाते हुए प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए काफी पैसा खर्च कर रही है. कॉर्पोरेट स्पोंसरशिप और विज्ञापनों से कमाई ने खेलों को एक कैरिअर में तब्दील कर दिया है. इधर सेना में प्रशिक्षण और युद्ध ज्यादा जटिल हो गया है. सैनिक 17-21 के बीच की उम्र में सेना में भर्ती होते हैं. खेलों पर अनुपात से ज्यादा समय, प्रयास, और संसाधन का खर्च कार्यकुशलता पर दबाव पैदा करने लगा. शोर मचने लगा कि खेल प्रतियोगिताओं को बंद किया जाए और खेलों पर केवल अच्छी सेहत के वास्ते ज़ोर दिया जाए. सेनाएं संतुलन बनाने में चूक गईं और एकदम उलटे रास्ते पर जाकर 1970 के दशक में नयी नीति लागू कर दी. खेल प्रतियोगिताएं केवल यूनिटों के बीच सीमित कर दी गईं और उनके बाद केवल ट्रायल किए जाने लगे.
जल्दी ही गिरावट आ गई और स्तर नीचे चला गया. 2000 आते-आते वह पाताल तक पहुंच गया, जब सेना खेलों में राष्ट्रीय स्तर पर एक ताकत नहीं रह गई और अपनी साख बचाने के लिए उसने राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेना बंद कर दिया. विडंबना यह है कि इस सबसे प्रशिक्षण और कार्यकुशलता के मामले में सेना को नाम को ही लाभ मिला.
ओलिंपिक के लिए मिशन
सेना में खेलों में गिरावट को रोकने और खेलों में भारत की ताकत जताने के लिए ‘मिशन ओलिंपिक’ नामक परियोजना 2001 में शुरू की गई. विश्वस्तरीय सुविधाएं बनाने के लिए रक्षा बजट से 60 करोड़ रुपये दिए गए. भारतीयों के शरीर के लिए सबसे उपयुक्त खेलों की पहचान के लिए वैज्ञानिक अध्ययन किया गया. 11 तरह के खेलों की पहचान की गई— तीरंदाजी, मुक्केबाज़ी (लाइटवेट), कुश्ती (लाइटवेट), गोताखोरी, एथलेटिक्स (लंबी दूरी और फेंकने वाले खेल), तलवारबाजी, पाल नौकायन, नौकायन, निशानेबाजी, घुड़सवारी.
पांच स्थानों पर विश्वस्तरीय इन्फ्रास्ट्राक्चर तैयार किए गए— मुंबई में पाल नौकायन के लिए, पुणे के कालेज ऑफ मिलिट्री ट्रेनिंग में नौकायन के लिए, नेरथ के रीमाउंट वेटरीनरी कोर में घुड़सवारी के लिए, मऊ के इन्फैन्ट्री स्कूल के आर्मी मार्क्समैनशिप यूनिट (एएमयू) में निशानेबाजी के लिए, और पुणे के आर्मी स्पोर्ट्स इंस्टीट्यूट (एएसआई) में सात तरह के खेलों के लिए. एएमयू और एएसआई में ब्वाएज स्पोर्ट्स कंपनीज़ हैं जो 8 से 15 साल के प्रतिभाशाली बच्चों की पहचान करके उन्हें शिक्षा और कोचिंग देती हैं और सेना में भर्ती के लिए तैयार करती हैं. नेतृत्व खिलाड़ी अधिकारियों ने दिया और सेना के तथा भारतीय खेल प्राधिकरण के सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षक उपलब्ध कराए गए. खान-पान का वैज्ञानिक कार्यक्रम भी शामिल किया गया.
1991 से विभिन्न रेजिमेंटल सेंटरों में युवा प्रतिभाओं की पहचान के लिए 26 ब्वाएज स्पोर्ट्स कंपनीज में सुधार किया गया और अत्याधुनिक सुविधाओं के साथ-साथ प्रशिक्षक उपलब्ध कराए गए. सेना के अंदर प्रतिभाओं को विकसित करने के लिए चुनिंदा सैन्य केंद्रों में कुछ खेलों के लिए इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार किए गए. प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को सीधे जूनियर कमीशंड अफसर या नॉन कमीशंड अफसर के रूप में भर्ती किया गया और उन्हें अफसर के रूप में कमीशन होने के लिए अर्जी देने के लिए प्रोत्साहित किया गया. असाधारण प्रदर्शन करने के लिए विभिन्न स्तरों पर समय से पहले प्रोमोशन देने की व्यवस्था भी बनाई गई. सेना की खेल नीति की 25 वर्ष बाद समीक्षा की गई और डिवीजन के नीचे यूनिटों के बीच प्रतियोगिताएं आयोजित करने की सिफ़ारिश की गई. सेना में खिलाड़ियों को कॉर्पोरेट स्पोंसरशिप और विज्ञापनों से लाभ लेने की इजाजत देने की नीति तैयार की गई.
अच्छा है लेकिन काफी अच्छा नहीं है
2004 के ओलिंपिक के साथ शुरू किए गए ‘मिशन ओलिंपिक’ के तहत कई लक्ष्य तय किए गए. 2020 के ओलिंपिक में 15-20 पदक जीतने का लक्ष्य रखा गया था. लेकिन ‘मिशन ओलिंपिक’ के परिणाम अच्छे नहीं रहे. कर्नल राज्यवर्द्धन सिंह राठौर ने 2004 के ओलिंपिक में भारत को व्यक्तिगत प्रतिस्पर्द्धा में पहली बार रजत पदक निशानेबाजी में दिलाया था. एशियाई और राष्ट्रमंडल खेलों में सेना के खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन करते रहे हैं लेकिन ओलिंपिक में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं. सूबेदार विजय कुमार ने 2012 के ओलिंपिक में निशानेबाजी में रजत पदक, और सूबेदार नीरज चोपड़ा ने 2021 के ओलिंपिक में भालाफेंक प्रतियोगिता में स्वर्ण पदक जीता. राठौर और कुमार एएमयू से निकले थे, और चोपड़ा को 2016 में सीधे जेसीओ नियुक्त किया गया था.
2003-04 में मिलिट्री ट्रेनिंग के महानिदेशक के तौर पर मुझे ‘मिशन ओलिंपिक’ और सेना की खेल नीति तैयार करने का विशेष मौका मिला था. मैं बेहिचक कह सकता हूं कि खेलों में सेना के दबदबे को फिर से हासिल करने और इनमें देश की ताकत बढ़ाने के लिए इससे बेहतर शायद ही कोई कार्यक्रम, फंडिंग, और इन्फ्रास्ट्रक्चर हो सकता था. फिर भी दो दशक के बाद भी हम राष्ट्रीय खेलों में अपना पुराना वर्चस्व नहीं हासिल कर सके हैं और हमारी अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियां भी उल्लेखनीय नहीं हैं. वर्ल्ड मिलिट्री गेम्स में भी हमारा प्रदर्शन फीका रहा.
सेना को अपने खेल कार्यक्रमों के संयोजन के लिए बेहतर नेतृत्व देना होगा. जरूरत हो तो सेना के बाहर की प्रतिभाओं को चुनिन्दा खेलों का नेतृत्व सौंपने की व्यवस्था बनाई जाए. ज्यादा विदेशी प्रशिक्षकों की सेवाएं लेने की भी जरूरत है. प्रतिभाओं की खोज के व्यापक और अधिक एकजुट प्रयास करने होंगे. राज्य सरकारों के साथ तालमेल बनाने के लिए विशेष खेल आयोग का गठन किया जा सकता है ताकि असाधारण प्रदर्शन करने वालों को तरक्की देकर अधिकारी बनाया जा सके और नयी प्रतिभाओं को शामिल किया जाए. प्रतिभाशाली युवतिओं और महिला खिलाड़ियों को भी शामिल करने की जरूरत है.
जंग की तरह खेलों में भी ‘ऐक्शन’ जरूरी है, जो कि इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है. सेनाएं किसी भी कीमत पर अपना मिशन पूरा करने के लिए जानी जाती हैं. मिशन ओलिंपिक के लिए भी इसी जुनून की जरूरत है.
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(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड में जीओसी-इन-सी रहे हैं. रिटायर होने के बाद आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. उनका ट्विटर हैंडल @rwac48 है. व्यक्त विचार निजी हैं)
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