ज्यादातर लोकतांत्रिक देशों में विशेष संसदीय सत्र केवल संकट के वक्त ही बुलाए जाते हैं और उससे पहले जोरदार राष्ट्रीय बहस होती है. लेकिन भारत में बिना किसी पूर्व घोषणा के इसे बुला लिया जाता है और उससे पहले राष्ट्रीय स्तर पर अनुमान लगाने का खेल शुरू हो जाता है.
नरेंद्र मोदी शासन की सबसे उल्लेखनीय विशेषताओं में से एक यह है कि चीज़ों को कितना गोपनीय रखा जा सकता है. प्रधानमंत्री के चारों ओर एक छोटे तंग घेरे के बाहर कोई भी नहीं जानता कि सरकार के शीर्ष स्तर पर क्या हो रहा है या क्या योजना बनाई जा रही है. प्रेस द्वारा अनुमान लगाते रहना ठीक है लेकिन इस सरकार की अनूठी विशेषता यह है कि अधिकांश मंत्रियों को भी पता नहीं है कि क्या उम्मीद की जाए.
इसलिए विशेष संसदीय सत्र के आह्वान ने तथाकथित भाजपा के अंदरूनी लोगों को भी हममें से बाकी लोगों की तरह हैरान कर दिया है. जिन राजनीतिक पत्रकारों को मोदी सरकार के बारे में एक भी बात सही नहीं पता चली- न फेरबदल का समय, न नोटबंदी और न ही राष्ट्रपति पद के उम्मीदवारों का चयन और सब अज्ञानतावश, उग्र अटकलों में लगे रहें, जबकि हममें से बाकी लोग यह देखने के लिए इंतजार कर रहे हैं कि क्या होने वाला है.
फिलहाल अटकलें यह हैं कि सत्र का उपयोग केंद्र और राज्यों में एक साथ चुनाव या महिला आरक्षण के लिए विधेयक पारित करने के लिए किया जाएगा.
या फिर समान नागरिक संहिता लायी जायेगी.
उनमें से कोई भी चीज़ शायद घटित हो सकती है. लेकिन अब नई अटकलों के अनुसार सरकार इस सत्र का उपयोग भारत का नाम बदलने के लिए भी कर सकती है.
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इंडिया बनाम भारत कोई नई बात नहीं
मुझे यकीन नहीं है कि यह कैसे काम करेगा. संविधान में भारत और इंडिया दोनों के उपयोग की व्यवस्था है. तो संसद क्या कर सकती है? इंडिया के इस्तेमाल पर रोक? इसके लिए दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत और राज्यों द्वारा इसे लागू करने की आवश्यकता होगी. ये करना आसान नहीं है.
और इसके अलावा, क्या आपको एक विशेष सत्र की आवश्यकता होगी यदि आप केवल यह घोषित करना चाहते थे कि आपको इंडिया की तुलना में भारत अधिक पसंद है जबकि संविधान आपको दोनों का उपयोग करने की अनुमति देता है?
इन अटकलों को आधिकारिक निमंत्रणों से हवा मिली है जिनमें सामान्य चलन के अनुसार ‘प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ के बजाय ‘भारत के राष्ट्रपति’ का उल्लेख है. इसी तरह, कुछ दस्तावेज़ अब ‘इंडिया के प्रधानमंत्री’ के बजाय ‘भारत के प्रधानमंत्री’ का उल्लेख करते हैं. इस तरह की छोटी-छोटी बातें भाजपा नेताओं की पावलोवियन प्रतिक्रिया को भड़काती हैं, जो भारत में बदलाव की सराहना करते हैं. हालांकि, पिछली मिसाल को देखते हुए, यह स्पष्ट नहीं है कि क्या उन्हें यह ट्वीट करना शुरू करने के लिए कहा गया है या क्या वे केवल अनुमान लगा रहे हैं कि क्या हो सकता है.
भारत बनाम इंडिया की चर्चा नई नहीं है. हाल तक यह भाजपा ही रही है जो भारत के ऊपर इंडिया के इस्तेमाल का जश्न मनाती रही है. लालकृष्ण आडवाणी ने हमें यह कहकर कि भारत चमक रहा है, अपनी पार्टी को आम चुनाव हरा दिया. नरेंद्र मोदी ने मेक इन इंडिया और कई अन्य कार्यक्रम लॉन्च किए जिनमें भारत के बजाय इंडिया का इस्तेमाल किया गया.
यह कांग्रेस शासन ही है जिसने भारत नाम से सार्वजनिक क्षेत्र के निगम शुरू किए: बीएचईएल, बीईएमएल, बीपीसीएल, बीडीएल आदि. राजीव गांधी आडवाणी की इंडिया शाइनिंग से पहले मेरा भारत महान की शुरुआत कर चुके थे. और अभी हाल ही में राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा पर निकले थे.
और फिर भी, सोशल मीडिया आधे-अधूरेपन से भरा है जो हमें बताता है कि भारत हमारे देश का असली नाम है और इंडिया हमें अंग्रेजों द्वारा दिया गया नाम है.
निःसंदेह, यह बकवास है. इंडिया नाम उस समय से चला आ रहा है जब अंग्रेज पेड़ों पर रहते थे. यह हजारों साल पहले की बात है जब भारत के लोगों को सिंधु नदी के पास रहने वाले लोगों के रूप में जाना जाता था, जिसे सिंधु कहा जाता था, जिसके कारण हमारे लोग हिंदू कहलाए. उसी वजह से हमें इंडिया नाम मिला. हज़ारों साल पहले, टॉलेमी के मानचित्र में हमारे देश को इंडिया कहा गया था और सिकंदर महान को इसमें कोई संदेह नहीं था कि वह इंडिया की ओर जा रहा था.
तो, इसमें अंग्रेजों को क्यों घसीटा जाए? यदि आरएसएस सिकंदर महान की विरासत से मुक्ति चाहता है और हमारे ऊपर ज़ीउस, अपोलो और एफ्रोडाइट जैसे यूनानी देवताओं के हानिकारक प्रभाव को समाप्त करना चाहता है तो हां, भारत की मांग कुछ हद तक समझ में आ सकती है. वरना इंडिया नाम हिंदू गौरव का अपमान नहीं है.
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भारत की उत्पत्ति
भारत नाम कहां से आया है? इस शब्द की उत्पत्ति की कहानी प्राचीन वक्त में ले जाती है. रामायण में राम के भाई को भरत कहा जाता था. ऋग्वेद में भरत वंश का उल्लेख है जिसने 1000 ईसा पूर्व में एक ऐतिहासिक युद्ध जीता था. महाभारत में एक वंश का एक भरत भी है जो भारतवर्ष नामक राज्य पर शासन करता है.
जैसा कि लेखक देवदत्त पटनायक बताते हैं, पहले तीर्थंकर के पुत्र जैन भरत भी हैं. पटनायक का सुझाव है कि भारत के लिए भारत नाम जैन से आया है क्योंकि भारत नाम (देश के लिए एक वर्णनकर्ता के रूप में) पहली बार 100 ईसा पूर्व में जैन राजा खारवेल द्वारा ओडिशा की एक गुफा में अंकित किया गया था.
जाहिर है, इन सभी लोगों के नाम पर हमारे देश का नाम नहीं रखा जा सकता. लेकिन हां, भारत नाम प्राचीन है और विभिन्न शताब्दियों में विभिन्न व्यक्तियों, कुलों और क्षेत्रों को संदर्भित करने के लिए इसका उपयोग किया जाता रहा है.
1948 में जब संविधान सभा की बैठक हुई, तो कुछ वक्ताओं (जिनमें से कई विद्वान ब्राह्मण थे) ने पूछा कि इंडिया को भारत कहा जाए. आखिरकार यह निर्णय लिया गया कि संविधान ‘इंडिया दैट इज़ भारत’ का उपयोग करके दोनों नामों को मान्यता देगा, जो कि दशकों से इसी तरह बना हुआ है.
भारत का विशेष रूप से उपयोग करने के प्रयासों को बार-बार अस्वीकार किया गया है. 2015 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि “संविधान सभा में समीक्षा की आवश्यकता के मुद्दे पर बहस के बाद से परिस्थितियों में कोई बदलाव नहीं हुआ है.” 2020 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एसए बोबडे ने भारत को इंडिया पर प्राथमिकता देने की मांग करने वाली एक जनहित याचिका को खारिज कर दिया.
हम दोनों नामों का उपयोग करते हैं. आमतौर पर हम अंग्रेजी में इंडिया और हिंदी में भारत कहते हैं. इस तरह दोनों नामों को बराबर सम्मान मिलता है.
यह हिंदी के समर्थकों को मुद्दे पर जोर देने से नहीं रोकता है. 2004 में यूपी के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने संविधान में “भारत दैट इज भारत” कहने के लिए बदलाव करने का (बल्कि निरर्थक) प्रस्ताव पेश किया. यह भाजपा ही थी जो विरोध में वॉक आउट कर गई और विपक्ष के सदन से बाहर चले जाने के बाद मुलायम ने प्रस्ताव पारित करा लिया. हालांकि, इसका कोई व्यावहारिक महत्व या उद्देश्य नहीं था.
इस पृष्ठभूमि को देखते हुए और यह देखते हुए कि आधिकारिक संचार में भारत का उपयोग करने पर कोई संवैधानिक रोक नहीं है, भाजपा समर्थक नाम परिवर्तन को लेकर इतने उत्साहित क्यों हैं?
क्या ऐसा हो सकता है, जैसा कि विपक्ष ने सुझाव दिया है कि भाजपा विपक्षी गठबंधन द्वारा खुद को इंडिया नाम देने से इतनी नाराज है कि उसने बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया दी है? मेरे लिए इस बात पर विश्वास करना कठिन है कि नरेंद्र मोदी ऐसा करने के लिए बहुत चतुर और दूरदर्शी हैं. इसके अलावा, विपक्ष को बस अपने मोर्चे को “इंडिया: एक भारत गठबंधन” कहना है.
क्या ऐसा हो सकता है, जैसा कि कुछ लोगों ने यह भी सुझाव दिया है कि ‘इंडिया’ के ब्रिटिश खोज होने के बारे में झूठ बोलकर, कुछ भाजपा समर्थक खुद को सच्चे भारतीय के रूप में चित्रित करना चाहते हैं, जबकि विपक्ष को ब्रिटिश पिछलग्गू के रूप में चित्रित करना चाहते हैं? यह और भी कम समझ में आता है क्योंकि यह मोदी सरकार है जो अपनी योजनाओं के लिए भारत का उपयोग कर रही है जबकि कांग्रेस ने अपनी सबसे बड़ी हालिया पहल को भारत जोड़ो यात्रा कहा है.
या फिर ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि समान नागरिक संहिता का प्रस्ताव इतनी जल्दी नहीं हो सकता और क्योंकि एक राष्ट्र एक चुनाव को लागू होने में समय लगेगा, सरकार सिर्फ सत्र के लिए एक प्रतीकात्मक प्रस्ताव चाहती थी?
सच कहूं तो, प्रधानमंत्री के आंतरिक घेरे के बाहर कोई भी नहीं जानता है. लेकिन यह सब मुझे इंडियन एक्सप्रेस में अपूर्व विश्वनाथ द्वारा उद्धृत संविधान सभा में हुई एक बातचीत की याद दिलाता है.
यूपी के विद्वान ब्राह्मण नेता कमलापति त्रिपाठी ने कहा था कि भारत सभी को भारत के अतीत के गौरव की याद दिलाता है.
बीआर आंबेडकर, जो कि त्रिपाठी से भी अधिक विद्वान थे लेकिन निश्चित रूप से कोई उच्च जाति के नेता नहीं थे, ने यह पूछकर जवाब दिया कि क्या यह चर्चा आवश्यक थी. उन्होंने बताया, “अभी बहुत काम किया जाना बाकी है.”
हमेशा की तरह आंबेडकर ने सही ढंग से जवाब दिया.
(वीर सांघवी एक प्रिंट और टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो होस्ट हैं. वह @virsanghvi पर ट्वीट करते हैं)
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(संपादन: कृष्ण मुरारी)
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