वैश्विक भू-राजनीति के मामले में हर एक कूटनीतिक कदम अपनी अहमियत रखता है, खासकर जब उसमें प्रमुख देशों के नेता भी शामिल हों. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की हाल की चीन यात्रा से खलबली मची है, उसको लेकर कई अटकलें लगाई जा रही हैं, खासकर इस दृष्टि से कि भारत के लिए इसके क्या नतीजे निकल सकते हैं. दुनिया की दो सबसे प्रभावशाली शक्तियां, रूस और चीन जबकि करीब आ रही हैं, जाहिर है उसके नतीजे उनके तात्कालिक द्विपक्षीय रिश्ते से आगे बढ़कर निकल सकते हैं. पुतिन और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने हाल के दिनों में ऑनलाइन संपर्कों के अलावा कई बार प्रत्यक्ष रूप से शामिल होकर शिखर बैठकें भी की हैं.
इन दोनों राष्ट्राध्यक्षों की बैठक के बाद ही रूस ने फरवरी 2022 में यूक्रेन के खिलाफ स्पेशल सैन्य कार्रवाई शुरू की थी. इस बैठक में दोनों देशों ने ‘असीम साझीदारी’ की घोषणा की थी. इस भू-राजनीतिक मोड़ के बीच में स्थित भारत के लिए इस साझीदारी के परिणाम बहुआयामी हो सकते हैं और इनका सावधानी से विश्लेषण करने की जरूरत है.
पुतिन ने चीन की जो यात्रा की और यूक्रेन के खारकीव क्षेत्र पर रूस ने जो ताजा हमला किया उसकी पृष्ठभूमि को अगर समझें तो इसके कारण भारत पर होने वाले प्रभावों का अंदाजा लगाने में मदद मिलेगी. रूस-चीन संबंधों में हाल में उल्लेखनीय बदलाव आया है.
शीतयुद्ध के दौर में इन दोनों के संबंध संदेह और प्रतियोगिता से भरे थे, जो 21वीं सदी में रणनीतिक साझीदारी में बदले. अब इन दोनों ने जो ‘असीम साझीदारी’ की घोषणा की है उसके कई कारण हैं, जिनमें अमेरिकी वर्चस्व को लेकर साझा चिंता, आर्थिक हितों की चिंता, और कुछ अंतरराष्ट्रीय मसलों पर नजरिए में समानता शामिल हैं.
फिक्रमंद दोस्ती
रूस और चीन के बीच सहयोग का एक प्रमुख घोषित क्षेत्र है— ऊर्जा. दोनों देशों ने महत्वपूर्ण ऊर्जा समझौते किए हैं, जिनमें पाइपलाइनों के निर्माण और प्राकृतिक गैस की बिक्री के समझौते शामिल हैं. इनके कारण उनके आर्थिक संबंध भी मजबूत हुए हैं. चीन की यात्रा के दौरान पुतिन ने ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग को और मजबूत बनाने के लिए ‘पावर ऑफ साइबेरिया-2’ गैस पाइपलाइन को चालू करने पर वार्ता की. इससे भारत की ऊर्जा सुरक्षा भी प्रभावित होगी. रूस जबकि चीन के साथ अपनी ऊर्जा साझीदारी को मजबूत कर रहा है, भारत को किसी एक ही सप्लायर पर निर्भरता को कम करने के लिए ऊर्जा के कई स्रोत ढूंढने की जरूरत पड़ सकती है.
पुतिन की यात्रा से हिंद-प्रशांत क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन भी प्रभावित हो सकता है. इस क्षेत्र में भारत और चीन के हितों का टकराव है और दोनों की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी टकराती हैं. मॉस्को और बीजिंग में बढ़ती नज़दीकियां चीन को इस क्षेत्र में अपनी दावेदारी पर अमल करने और हिमालय क्षेत्र में भारत के साथ भूमि विवाद में कार्रवाई करने की हिम्मत बढ़ा सकती हैं. ऐसे संघर्षों में रूस का गुप्त समर्थन या उसकी तटस्थता भारत के रणनीतिक समीकरणों को जटिल बना सकती है और उसे अपनी विदेश नीति की प्राथमिकताओं को बदलना पड़ सकता है. ‘असीम साझीदारी’, और इस धारणा के कारण कि चीन रूस की युद्ध संबंधी कार्रवाइयों का स्पष्ट समर्थन कर रहा है, भारत युद्ध की स्थिति में चीन पर अंकुश लगाने की रूस से अपेक्षा नहीं कर सकता है.
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एक और विचारणीय पहलू यह है कि रूस-चीन सहयोग अमेरिका के साथ भारत के संबंधों को किस तरह प्रभावित करेगा. भारत ने रूस के साथ अपनी पारंपरिक साझीदारी और अमेरिका के साथ मजबूत होते अपने रणनीतिक रिश्ते के बीच नाजुक संतुलन बनाए रखने कोशिश की है. रूस-चीन की बढ़ती नज़दीकियां भारत को अमेरिकी खेमे में और अंदर धकेल सकती हैं. वैसे, भारत चीन-रूस साझीदारी के कारण बढ़ते दबाव को संतुलित करने की ही कोशिश करेगा.
यह भारत और अमेरिका के रक्षा संबंधी सहयोग में वृद्धि और क्षेत्रीय तथा वैश्विक मसलों पर बढ़ती करीबी के रूप में सामने आ सकता है. लेकिन भारत की विदेश नीति का जो सबसे महत्वपूर्ण आधार है, रणनीतिक स्वायत्तता, उसकी कड़ी परीक्षा लेगा रूस-चीन का गहराता संबंध.
इसके अलावा, पुतिन की चीन यात्रा अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के गतिशास्त्र में आ रहे बदलाव को भी रेखांकित करती है. शक्ति पश्चिमी देशों के हाथ से धीरे-धीरे पूरब की उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ओर खिसक रही है. रूस-चीन की साझीदारी जबकि मजबूत हो रही है, वे पश्चिमी संस्थानों तथा मानदंडों के वर्चस्व वाली मौजूदा वैश्विक व्यवस्था को चुनौती दे सकते हैं.
यह उभरती बहुध्रुवीय विश्व-व्यवस्था को आकार देने में भारत को ज्यादा जोरदार भूमिका निभाने के मौके दे सकता है. इसकी वजह यह है कि वह अपनी रणनीतिक स्थिति और बढ़ती आर्थिक ताकत का लाभ उठा सकता है. भारत अपनी सक्रियता बढ़ाने की जो कोशिश कर रहा है और ‘ग्लोबाल साउथ’— जिसे जी-20 के दौरान काफी समर्थन मिला— की आवाज़ बनकर उभरने की जो कोशिश कर रहा है वह सब सही दिशा में उतहया गया कदम है.
सजग रहे भारत
अपने हितों की रक्षा के लिए भारत को काफी संभलकर कदम बढ़ाने की जरूरत है. उसे समझना चाहिए कि रूस-चीन नज़दीकियां भारत को दोनों देशों के साथ आपसी हितों— जैसे आतंकवाद विरोध, क्षेत्रीय स्थिरता, और आर्थिक विकास— के मसलों पर ज्यादा कार्रवाई करने के मौके प्रदान करती हैं.
रूस-भारत के दशकों पुराने रिश्ते को आसानी से खारिज नहीं कियाजा सकता, खासकर सैन्य सहयोग के रिश्ते को. दशकों से, भारत ने तमाम तरह के रूसी हथियार हासिल किए हैं, मसलन सुखोई-30एमकेआइ लड़ाकू विमान, टी-90 टैंक, और ब्रह्मोस सुपरसोनिक क्रूज मिसाइल आदि.
एस-400 मिसाइल सिस्टम की बात ही क्या करें, जिसका करार अमेरिका के भारी विरोध और उसके ‘सीएएटीएसए’ जैसे प्रतिबंधात्मक कानून के साये में किया गया.
इसके अलावा, रूस भारत को अहम रक्षा टेक्नॉलजी भी देने को तैयार है ताकि खास वेपन सिस्टम का भारत में ही उत्पादन हो सके और उपयोग लायक बनाया जा सके. रूस-चीन नजदीकी, और मॉस्को तथा वाशिंगटन के बीच संतुलन साधने की भारतीय कोशिशें उसी बात को दोहराती हैं जो 19वीं सदी में ब्रिटिश प्रधानमंत्री लॉर्ड पामर्स्टन ने एक बार कहा था— “स्थायी शत्रु कोई नहीं होता, और न कोई स्थायी दोस्त होता है, स्थायी कुछ है तो वे हैं अपने हित.”
(जनरल मनोज मुकुंद नरवणे, पीवीएसएम, एवीएसएम, एसएम, वीएसएम, भारतीय थल सेना के सेवानिवृत्त अध्यक्ष हैं. वे 28वें चीफ ऑफ आर्मी स्टाफ थे. उनका एक्स हैंडल @ManojNaravane है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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